लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि भारत में जाति अत्यधिक महतवपूर्ण दल है| राजनीति सिधान्त्कार रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक “कास्ट इन इन्डियन पॉलिटिक्स” में राजनीति और जाति की अंतर्क्रिया पर बृहद विश्लेषण प्रस्तुत किया था और जातियों के राजनीतिकरण की अवधारणा प्रस्तुत की थी | आज भारत के चुनावी राजनीति में राज्यों में जाति के प्रभाव को देखा जाता रहा है | कल तक कांग्रेस का जो प्रभाव इतने वर्षों तक रहा उसमे भी ब्राहमण, दलित और मुसलमानों की कांग्रेस की तरफ एकजुटता को ही मानते हैं| बाद के दिनों में उत्तर कांग्रेस राजनीति में मंडल के दौरान चुनावी राजनीति का एक प्रमुख आधार जातियां बन गयी | आज उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में जाति को एक प्रमुख राजनीतिक समीकरण के रूप में देखा जा रहा है | 1990 के दशक में जहाँ यूपी में पिछड़ी जाति के नेता के रूप में मुलायम सिंह यादव का प्रभाव बढ़ा वही भाजपा ने गैर यादव लोध जाति के कल्याण सिंह को आगे किया | हालाँकि राममनोहर लोहिया के दौर से ही पिछड़ी जातियों के बीच राजनीतिक चेतना की बात होने लगी थी और हिस्सेदारी की बात को बल मिलने लगा था, लेकिन उसका परिणाम उत्तर मंडल राजनीति में ज्यादा देखने को मिला | यदपि प्रमुख दलित नेता कांशीराम ने गावों में घूमकर दलितों के कच्चे झोपड़ियों पर हाथी को उकेरा था और यह कहा था की आने वाले पांच वर्षों में यह हाथी भी चलने लगेगा | वास्तव में यह भी जातीय चेतना को विकसित करने का एक प्रतीकात्मक प्रभाव ही था | चौधरी चरण सिंह के जमाने में भी सोशल जस्टिस मूवमेंट तो शुरू हुआ था जिसके केंद्र में पिछड़ी जातियां ही रहीं लेकिन उस मूवमेंट में वैचारिक अंतर्विरोध देखने को मिला |

उत्तर प्रदेश के भीतर 2017 में भाजपा ने जिस जातीय समीकरणों के बदौलत सफलता प्राप्त की थी 2022 में उसके पास न तो वैसे गठबंधन रहें और न ही पिछड़े जातियों के नेता ही रहें | भाजपा जातीय समीकरणों को लेकर तो कल्याण सिंह के दौर से ही सक्रिय रही जब अगड़ी जातियों और गैर यादव नेतृत्व के बदौलत यूपी की शासन सत्ता प्राप्त की | जब राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री हुए तब हुकुम सिंह ने सामाजिक न्याय समिति बनाकर उत्तर प्रदेश की अति पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने का प्रयास किया था | हालाँकि बहुजन राजनीति से जुड़े सामाजिक न्याय के झंडाबरदार भाजपा के सामाजिक न्याय की बात को सामाजिक समरसता मानते हैं जो जाति व्यवस्था को बनाये रखते हुए पिछड़े तबके की बात करती है | परन्तु यह भी सत्य है कि 2014 के बाद भारत के चुनावी राजनीति में जिस हिंदुत्व का प्रयोग सफल हुआ, उसने सारे जातीय सीमाओं को कमजोर किया | लेकिन यह प्रभाव राष्ट्रीय चुनावों तक ही सीमित है ,राज्यों के चुनाव में जाति एक महत्वपूर्ण कारक साबित हुई है चाहे वह बिहार विधानसभा का 2015 और 2020 का चुनाव प्रभाव हो या 2017 का यूपी विधानसभा का चुनाव |

उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियों में यादव ,कुर्मी लोध प्रभावशाली जातियां रहीं हैं | इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण इन जातियों के प्रभावी नेताओं का उतर प्रदेश में मजबूत दखल और सत्ता में लम्बे समय तक प्रभाव रहा है | इसके परिणाम स्वरुप इन जातियों की आर्थिक स्थिति में बढ़ोतरी और सरकारी पदों पर इनके लोगो का दखल हो जाना | वही कुछ वैसी पिछड़ी जातियां जिन्हें न तो राजनीतिक हिस्सेदारी मिली न ही इनका कोई राजनीतिक नेतृत्व उभर पाया | ये जातियां कल तक प्रभावशाली पिछड़ी जातियों के पीछे -पीछे चलती थीं लेकिन अब पिछले चुनावों से तस्वीर बदली नजर आ रही है | पूर्वी उतर प्रदेश में प्रभाव रखने वाली राजभर जाति के नेता ओम प्रकाश राजभर अपनी जातीय अस्मिता को लेकर काफी मुखर रहे हैं | कल भाजपा के साथ गठबंधन में रहने के बाद आज सपा के साथ सम्मानजनक सीट प्राप्त करने में सफल रहे हैं | इस चुनाव में समाजवादी पार्टी के द्वारा पिछड़ी जातियों को गोलबंद और एकजुट करने का जो मुहीम शुरू हुई उसमे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी काफी मुखरता के साथ देखी गई है | इनकी आबादी 4 प्रतिशत है | वही एक महत्वपूर्ण पिछाड़ी जाति नोनिया के संजय चौहान भी एक प्रभावशाली नेता के रूप में अपनी उपस्थित दर्ज करा रहे हैं | उनकी जनवादी पार्टी सोशलिस्ट का पूर्वांचल में प्रभाव रहा है | यूपी में केवट ,मल्लाह जैसी जातियों वर्षो से भाजपा के साथ बनी हुई है | इनकी आबादी 4 प्रतिशत है | ओम प्रकाश राजभर के भाजपा गठबंधन से जाने के बाद इनका महत्त्व बढ़ चूका है | संजय निषाद इसके प्रमुख नेता हैं | हालाँकि ये जातियां आज भी अपने पारम्परिक आजीवका पर ही निर्भर हैं, इनके नेताओं की यह शिकायत रही कि सपा शासनकाल में सरकारी कार्यालयों में इन्हें उचित हिस्सेदारी नही मिली | यदपि भाजपा ने इनके महत्त्व को देखते हुए इन्हें 16 के करीब सीट दी है | यूपी की एक अन्य प्रभावशाली जाति कुर्मी का भी अपना महत्व रहा है | भाजपा ने केशव प्रसाद मौर्य को एक प्रमुख पिछड़ी जाति के नेता के रूप में तवजो दी है | अब तो राजनीतिक गलियारों में उन्हें भाजपा में कल्याण सिंह के बाद दूसरा प्रभावशाली गैर यादव पिछड़ी जाति का नेता माने जाना लगा है | भाजपा ऐसा मानती है कि कुर्मी वोटरों को साधने में मोर्य की महत्वपूर्ण भूमिका होगी | केशव मोर्य भाजपा के सामाजिक समरसता वाले ढांचे में फीट बैठते रहें है | एक तरफ तो उनका पिछड़ी जाति से होना वही दूसरी तरफ आर एस एस से गहरा जुडाव भी रहा है | हालाँकि समाजवादी पार्टी ने कुर्मी जाति के वोट में सेंध लगाने के लिए केशव देव मौर्य के महान दल से समझौता भी किया है | सपा ऐसा मानती है की भाजपा के द्वारा केशव प्रसाद मौर्य को पिछले चुनाव में मुख्यमंत्री नहीं बनाने से मौर्य- कुशवाहा समुदाय में गुस्सा है | उत्तर प्रदेश के प्रमुख पिछड़ी जाति के नेता रहे सोनेलाल पटेल के बाद उनके परिवार में उनकी पत्नी और बेटी की राजनीतिक द्वन्द और किसी खास जाति में उनके प्रभाव को भी भाजपा और समाजवादी पार्टी अपने अपने पाले में करती देखी गई हैं | अनुप्रिया पटेल के अपना दल सोनेलाल को जहाँ भाजपा ने अपने गठबंधन में शामिल किया है और उसे 17 सीट दी है जबकि पिछली बार मात्र 11 सीट ही दी गयी थी | वही समाजवादी पार्टी ने सोनेलाल की पत्नी कृष्णा पटेल की पार्टी कमरेवादी के साथ सीटों का गठबंधन किया है | इसमें भी अनुप्रिया पटेल की बहन पल्लवी पटेल सिराथू से उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के विरुद्ध सपा की उम्मीदवार हैं | इनके पीछे भी छोटो छोटी जातियों के वोटों को अपने पक्ष में करने की होड़ ही दिख रही है |

उत्तर प्रदेश में दलित जातियों की बात हो तो बहुजन की राजनीति करने वाली मायावती की पार्टी को हिंदुत्व की राजनीति ने निगल लिया है | यह पार्टी दलित एजेंडा और दलितों के सवाल से काफी पीछे छुट गयी है | यूपी में वल्मिक्की और सोनकर जैसी जातियों का हिन्दुत्वीकरण हो चूका है | हालाँकि बुनियादी तौर पर दलित आन्दोलन यूपी में पूरी तरह शक्ल नही ले पाया | इन जातियों में अभिजात्य पैदा हो गया जो आगे बढ़ने के बाद अपनी ही जाति के कमजोर लोगों की घोर उपेक्षा करने लगा | ये गहरी असमानता को पाटने में नकाम रहा, जिसका परिणाम इनके बीच बिखराव हुआ जिसे जातीय राजनीति का रूप देकर कई पार्टियों ने अपने तरीके से इस्तेमाल किया | आज भाजपा ,समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में इन दलित वोटों को प्राप्त करने की होड़ लगी है | लेकिन मायावती इसे ही अपना कोर वोटर मानती रही है और सोशल इंजीनियरिंग के रास्ते ब्राहमण ,मुसलमान और दलितों के वोटों से सत्ता प्राप्त करना चाहती हैं जो कभी कांग्रेस पार्टी का मतदाता रहा| आज उत्तर प्रदेश में 9 प्रतिशत ब्राहमण और 4 प्रतिशत राजपूत और 2 प्रतिशत वैश्य जाति है | ब्राह्मणों के वोट के लिए भाजपा सपा कांग्रेस और बसपा की भी निगाहे लगी हुई है | भाजपा तो ब्राहमण को अपना वोट मानती है लेकिन यह भी सत्य है कि यूपी में ब्राह्मणों ने बसपा, सपा और कांग्रेस को भी कभी वोट दिया है | हालाँकि राजपूत मतदाताओं का रुझान पहले समाजवादी पार्टी की तरफ था लेकिन आज ये प्रमुख जातियां भाजपा की तरफ झुक गयी हैं | यदपि वैश्य मतदाताओं का कोई सर्वमान्य नेता नही रहा है लेकिन ये क्षेत्रों के अनुसार अपने हितों को देखते हुए मतदान करते रहें है | हालाँकि भाजपा इन्हें कोर वोटर के रूप में समझती रही है | ऐसा प्रतीत होता है कि विधानसभा चुनाव में सभी जातियों का मत निर्णायक साबित होगा | प्रमुख राजनीतिक दलों ने चुनाव में जो टिकट का बटवारा किया है उसमे जातीय गणित को ध्यान में रखा गया है | विधानसभाओं में जातियों के वोटरों के हिसाब से प्रत्याशियों का चयन हुआ है | आज भले ही मतदाता चुनाव में विकास की बात करे लेकिन वह अंततः अपनी बात की समाप्ति जाति से ही करता है | अब आने वाले चुनाव परिणाम के बाद पता चलेगा कि यूपी की विभिन्न दलों ने जातीय आधार पर किसका वोट प्राप्त किया |

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