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प्रेम के बढ़ते बढ़ते मानव मन जब अपनी क्षमता की उच्चतम स्थिति तक पहुँच जाता है, तब वह प्रेम कुछ समय वहाँ टिकने के बाद कम होने लगता है। फिर कहीं स्थिर हो जाता है।ये स्थिरता का चरण मानव की वास्तविक स्थिति है। जैसे प्रेम उठता उठता 8वे चरण तक गया फिर लौट कर 5वे पर आ गया तो उसका प्रेम अभी 10 में से 5 पर ही है।
प्रेम का तो स्वभाव ही है बढ़ना या घटना। सच्चा प्रेम किसी क्रिया का मोहताज नही होता और सच्चा प्रेम आसानी से नही होता।किसी का कुछ समय अच्छा लगना प्रेम नही है। किसी नए व्यक्ति से मिलना, उसके रूप,गुण से प्रभावित होना मानो एक प्रसन्नता की तरंग तन मन मे प्रकट करता है। ऐसे में हम उसी से बात करना चाहते है, मिलना चाहते है। हमारा मन यह मानने लगता है कि यहाँ मुझे सुख है। यही मेरा सुख है। मुझे यहीं रहना है परन्तु यह सत्य नही है। यह भावनाओं के आवेग उन लहरों की तरह है जो समुद्र में उठती है परंतु समुद्र ही वास्तविकता है। लहरों का होना तभी सार्थक है जब उनका उद्गम समुद्र से हो और वही विलीन हो अन्यथा वो लहरें भूमि पर पड़ कर सूख जाती हैं। उसी तरह हमारा प्रेम भी सूख जाता है अर्थात मानव मन मे गहराई हो, वास्तविकता हो तब ही प्रेम टिकेगा। साधारणतः मानव स्वयं अपने मन को नही जानता इसीलिए समस्याओ में आसानी से फंस कर दिशाहीन सा रोता रहता है।जो मानव मनन करने वाला व सूक्ष्म दर्शी है वह स्वयं को सत्य दिखाता हुआ अपनी राह बना लेता है।
प्रेम को गहराई की भूख है।जो मानव कष्ट को मित्र समझता है, सेवा करने को अकुलाया रहता है, एकान्त से प्रीति करता है, रुप चिंतन में समय व्यतीत करता है और तड़पते हृदय से नित्य प्रार्थना करता है ऐसा मानव प्रेम की गहराई प्राप्त कर लेता है।फिर प्रेम उस स्थित तक पहुँच जाता है जहाँ उसे ऊँचा जाने के लिए किसी ईंधन(बाहरी क्रिया) की आवश्यकता नही होती वह स्वतः दिन रात उबाल खाता रहता है। ऐसा प्रेम ही वास्तविक प्रेम है।
राम।