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भगवद स्मरण पूजा भक्ति के लिए मानव मन को ठहरना है और दूसरी ओर संसार मे मानव को गतिशील रहना होता है। यही वो वजह है कि मानव दो तरह से नहीं जी पाता। संसार में समय बिताते हुए जब भक्ति करने उतरता है तो मन को रोकने में संघर्ष होता है। एक दो बार तो व्यक्ति ऐसा कर भी ले पर नित्य की यदि ये स्थिति हो तो भक्ति या कार्य एक साथ करना असम्भव सा हो जाता है। वर्तमान में धनोपार्जन उतना सरल नही रहा है। संसार पहले के अनुपात में अब बहुत तेज़ी से बदल रहा है। सब ओर भागदौड़ मची है । भौतिक उन्नति के पीछे जो नही जाना चाहता और सादा जीवन जीना चाहता है उसे भी संसार दबाव बनाकर अपने संग घसीट लेता है। आज के समय में भौतिकता थोपी जा रही है। ऐसे में मानव करे क्या ?
मेरे विचार में यदि इस संसारिकता की प्रचंड लहरों से मानव को बचना है तो उसे चुनाव करना होगा और एक नही अनेक। उसे समय के साथ साथ निरंतरता में उस ओर संघर्ष करना होगा जहाँ वह अंततः ठहर सके। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति ने पढ़ाई पूरी की और बड़ी कंपनी मे कार्यरत हो गया, फिर विवाह करके दो बच्चों को जन्म दे दिया। ऐसे मे वह व्यक्ति कितना समय ठहराव को प्राप्त कर पायेगा। अब तो उसे भागना होगा परिवार की जरूरतों की पूर्ति के लिए। वहीं दूसरी ओर एक व्यक्ति ने कम आयु मे अपने लक्ष्य को समझते हुए पढ़ाई पूरी कर दुगनी गति से व्यापार किया और अधिकाधिक धन अर्जित कर व्यापार को इस तरह संगठित किया कि उसे व्यापार को अपने दिन का आधा घंटा भी देने की विशेष आवश्यकता नहीं है। वह विवाह बंधन से मुक्त धनी, सेवा और भक्ति मे लीन प्रभु चरणों को प्राप्त करने की लालसा मे जीवन निर्वाह कर रहा है। इसी तरह किसी को किराये का धन मिला, किसी को बैंक से ब्याज तो किसी ने छोटा मोटा ऐसा कार्य ढूंढ लिया जिससे उसकी भौतिक आवश्यकता की पूर्ति हो जाये और कहीं न फँसते हुए बाकी का समय प्रभु चरणों मे बिता दिया।
फँसना और बचना ये मानव के स्वयं के हाथ मे है। आज का मानव अति आलसी और भोगी हो चूका है। वह भक्ति की आड़ मे अपने आलस्य और भोग को पुष्ट करता है। सत्य तो यह है कि संघर्ष को चुनने वाला निश्चित रूप से मुक्त होता है और कड़े संघर्ष को चुनने वाला मुक्ति को बहुत पीछे छोड़ स्वयं ईश्वर का रूप हो जाता है।
राम।