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भगवान तो केवल प्रयास चाहते हैं। उल्टा पुल्टा प्रयास भी वे सही करके जानते हैं। हम प्रयास करना कम कर देते यह बहुत विचार करने योग्य बात है। एक मानसिकता बना लें कि लड़ना है। मैं बना ही लड़ने के लिए हूँ। चाहे आज अभी शरीर के कारण थका हूँ आराम कर रहा हूँ पर यह तो केवल शक्ति अर्जित करने का समय है। मैं फिर उठूँगा और लड़ूँगा।

धैर्य।

साधक को धैर्य रखकर ही बढ़ना चाहिए। साधना के अगले चरण की प्राप्ति में हो सकता है महीनों लग जाएं पर यह तो उसकी गति पर निर्भर है। धैर्य रखकर निरन्तर भजन में संलग्न रहें क्योंकि इस राह पर चढ़ाई कितनी ऊँची है हम देख नहीं सकते। साधक को बीच बीच मे पूरी शक्ति लगा कर 3 दिन 7 दिन 11 या 21 दिन एक एक क्षण ला उपयोग करते हुए भजन का प्रयास करना चाहिए। प्रयास करें कि 24 में से 18 घण्टे भजन के निकलें। भजन तो मन का विषय है इसमें घरेलु काम बाधा नही बनते।

भगवान से दूरी बनाना।

यह साधना का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। कोई भी कार्य क्यों न हो। विशेष से विशेष क्यों न हो पर यदि भगवान के चिंतन में कम प्रगाढ़ता हुई या कुछ अवधि के लिए दूरी बनी तो भी हानि होती है। देखिए इस मार्ग में तो डूबना है। आप यदि ऊपर ऊपर ही रहे या तट पर रहे तो बात नहीं बनेगी। संसार भुलाकर साधना करनी है। मन ऐसा हो कि सदा अंतर्मुखी बना रहे। अंतर्मुखी की भी श्रेणी होती है। अच्छे साधक पहली श्रेणी से तो कभी नीचे आते ही नहीं जिसमे वे बोलते काम करते दिखते हैं पर भगवद स्मरण में खोए रहते हैं। उसके बाद एकांत मिलते ही अगली श्रेणी में चले जाते हैं। पहली श्रेणी में साधक को आसपास सब फीका दिखता है। मान लो 100 वस्तुएं पास हैं तो जिसकी उसे आवश्यकता है उसी तक उसकी दृष्टि रहेगी बाकी कुछ न दिखेगा यदि दिखेगा तो भीतर नहीं उतरेगा यानी विचार न बनेगा। हम वस्तुओं को देखते हैं तो उनसे विचार आने लगते हैं जैसे अमुक कितना सुंदर यह कितना गन्दा, यह ठीक नही वगैहरा वगैहरा।

संकल्प बनना।

यह बना लें वह खरीद लें ये कर ले वो करलें, उससे बात करें उसका हाल पूछें, सफाई कर लें पैसा कहाँ जमा करायें आदि अनेक संकल्प हमारे मन मे बनते ही रहते हैं जो हमे साधना से हटा स्वयं में लगाते हैं। हमे इस प्रकार की रहनी करनी चाहिए जिसमें संकल्प बने ही न और यदि बने तो उन संकल्पों की काट हम साथ साथ कर दें।

सुख लेना।

सुख चाहे खाने का हो या कोई मनोरंजन हो वह साधक को पीछे धकेलता है। बच्चों पशुओं से खेलना , tv देखना, mobile पर मन लगाना आदि सब साधक को त्याज्य है। जिसके हृदय में विरहाग्नि हो उसे तो किसी प्रसन्न चहरे को भी देखना नहीं चाहिए कि उसके प्रभाव में रहे तो मेरा भी मन कहीं मुस्कुराने न लगे। साधक को जहाँ सुख मिले वह त्याग दे।

एक बात जो सभी बातों का निष्कर्ष है वह ये कि भगवान को छोड़ कर जहाँ भी मन लगता है वह सँग त्याग देना है।

प्रार्थना में कमी।

जब तक भगवान नही मिल जाते एक भी दिन ऐसा न जाये जब हम रो रो कर भगवान से प्रार्थना न कर सकें। प्रार्थना में बहुत भारी शक्ति है। साधक नित्य प्रार्थना करना भूल जाता है। उसके जीवन मे यदि इन साधनों का प्राणों से अधिक महत्व नहीं है तो वह कहीं का नहीं रह जाता। प्रार्थना सबसे विशेष साधना है इसके बिना हर साधना अधूरी है। सो कर उठें तो प्रार्थना, सोने जाएँ तो प्रार्थना। यह दो समय बहुत विशेष हैं। जब जब भक्ति घटती हुई लगे तब प्रार्थना, हर समय बस प्रार्थना।

अधिकाधिक कष्ट उठाकर साधक को भगवान की ओर बढ़ना चाहिए। प्रयास करना है ज़ोर लगाना है और साथ साथ युक्तियाँ लगा कर तथा प्रार्थना से अपने मार्ग की बाधाओं को खोलना है। हमें समस्याओं को सुलझाना आना चाहिए और कभी कभी समस्या का हल ही कोई ठोस कदम होता है यह जानते हुए, गुरु जनों की सलाह से निडर होकर आगे बढ़ना चाहिए। शेष हरि इच्छा।

राम।

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