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गंगा - हाँ यही नाम था उसका। प्यार से सभी उसको गंगो बुलाते थे।
ऐसा मौसम कभी कभार ही आता है , जिस मौसम में उसे पहली बार देखा था। मुझे तो अब तक कभी ऐसा अनुभव फिर कभी नहीं हुआ।
बारिश का मौसम...
पूरा आसमान गहरे काले बादलों से ढंका हुआ...
सुबह के लगभग पौने पांच बजे का समय...
रिमझिम रिमझिम हलकी हलकी बारिश हो रही थी...
पूरब दिशा में हलकी हलकी लालिमा ये अहसास करा रही थी , सूर्यदेव का आगमन होने ही वाला है।
चारों तरफ की जमीन गीली गीली और गहरी हरी चादर से ढंकी हुयी दूर दूर तक की जमीन...
उजाला इतना था की कुछ दूर तक का दृश्य साफ़ था फिर धुंधला...
तब हमने देखा था उसे पहले बार...
शायद उसे भी किसी के द्वारा देखे जाने का अहसास हो गया था....
तभी उसने पलटकर देखा...
बड़ी बड़ी गहरी नीली आँखें, चौड़ा माथा, धवल सफ़ेद रंग... जो भी एकबार देख ले बस देखते ही रह जाए
उसने कुछ सेकेण्ड के लिए मुझे देखा और वापिस सर घुमा लिया , जैसे कि उसे कुछ परवाह ही नहीं किसी की।
कुछ देर के लिए मैं हतप्रभ रह गया।
मैंने घरवालों को जगाया , सबने घर से बाहर आकर उसे देखा।
सब लोग उसे देखकर हैरान थे , कि कौन है ये ? कहाँ से आई है ? क्यों आई है ? इसके घरवाले कहाँ हैं ? बिना पूछे यहाँ आ गयी और एकदम निडर होकर उन्मुक्त विचरण कर रही है , जैसे जनम जनम से यहीं की हो।
लेकिन उसे कोई फ़िक्र नहीं थी।
और फ़िक्र हो भी कैसे ? वो जिसके साथ यहाँ आई थी , वो भी इस घर का काफी वरिष्ठ और सर्व सम्माननीय सदस्य था।
थोड़ी देर में हमें उसको यहाँ साथ लाना वाला भी दिख गया।
मधु ,हमारा बैल उसको अपने साथ यहाँ लेकर आ गया था जंगल से।
वैसे भी बेचारी जंगल में क्या करती? उम्र ही क्या थी उसकी? सिर्फ दो साल की बछिया थी वो।
दरअसल बरसात के दिनों में घर में बांधकर रखने में काफी समस्याएं होती हैं। भूसा, पानी, गोबर , कीचड बहुत सारी परेशानियां होती हैं। इसलिए गांव के सभी लोग अपने जानवर बरसात के चार महीनों के लिए जंगल में भेज देते हैं। उनकी देखभाल के लिए कुछ ग्वाले भी वहां जाते हैं , और उन जानवरों के साथ ही चार महीने तक जंगल में ही रहते हैं। सारे गांव वाले पैसे मिलाकर उनको दे देते हैं। हमने भी अपने दो बैल मधु और बड़सिंगा को इस बरसात में जंगल भेजा था। बारिश में खेतों में पानी भरा रहता है और खेती से सम्बंधित कोई काम इन चार महीनों में नहीं होता इसलिए बैलों की घर पर कोई जरुरत नहीं थी। उधर जंगल में बारिश की वजह से हर तरफ हरी हरी घास पैदा हो जाती है। चार महीने बाद जब जानवर वापिस घर लौटते हैं , लगभग दिवाली के समय, तब तक वो काफी मोटे ताजे और तंदरुस्त हो जाते हैं। दिवाली के बाद ही खेतों का काम शुरू होता है इसलिए हर तरीके से सहूलियत हो जाती है।
हमारे दोनों बैल लगभग १० सालों से हमारे साथ थे। एकदम परिवार के सदस्यों की तरह लगाव था दोनों तरफ से। समझदार इतने कि उनको बस एक बार बोल दो कि घर से खेत तक चले जाओ तो बड़े आराम से अकेले ही खेत चले जाते और चरकर आ जाते थे। अगर दोनों को बैलगाड़ी में जोतकर खेत से घर जाने को बोल दो। तो सीधे घर पहुँच जायेंगे बिना किसी गाड़ीवान के।
मधु की उम्र काफी ज्यादा हो गयी थी। दोनों सींग टूट चुके थे। दांत भी मुड़ चुके थे। कहते हैं जब बैलों के दांत अंदर की तरफ मुड़ जाएँ तो फिर उनकी जिंदगी घटने लगती है। वैसे तो जिंदगी हम सभी की पैदा होने के साथ ही पल पल हर पल घाट ही रही है। लेकिन एक होता है उम्र का चढ़ाव और दूसरा होता है उम्र का उतार। तो मधु अब अपने उम्र के उतार पर था। अक्सर वृद्ध लोगों को बच्चों से ज्यादा स्नेह होता है। शायद उनको देखकर वो अपना बचपन दोबारा जीते हैं और अहसास करते हैं। बिलकुल ऐसा ही जानवरों में भी होता है। मधु को भी गंगो में अपना बचपन नजर आया होगा। फिर दोनों में बातें हुई और वो गंगो को अपना घर दिखाने के लिए लेकर आ गया था।
अनजान घर की बछिया को देखकर हम लोग भी सोच में पड़ गए। पता नहीं इसका मालिक कहाँ कहाँ इसको ढून्ढ रहा होगा। फिर ध्यान आया कि जंगल से आई है तो जरूर ग्वालों को कुछ पता होगा , क्यूंकि जंगल में तो बहुत सारे गांव के जानवर जाते हैं। इसलिए पिताजी अगले दिन सुबह सुबह मधु और गंगो दोनों को लेकर फिर जंगल चले गए। मां ने रास्ते में नाश्ते के लिए डालडा की पूरियां और आम का अचार रख दिया था, साथ में एक छोटा सा टुकड़ा कोयले का भी बाँध दिया था। कहते हैं कोयला रास्ते में बुरी नजर से हमारे खाने की रक्षा करता है। हर बार जब भी कहीं जाना होता तो रास्ते के लिए यही खाना होता था। अगले दिन पिताजी दोनों को जंगल में छोड़कर आ गए। ग्वाले को भी समझा दिया कि अगले बार ये समय से पहले घर नहीं पहुंचना चाहिए।
लेकिन सिर्फ एक ही सप्ताह बीता था कि दोनों फिर से घर आ गए। मधु तो समझदार था लेकिन गंगो चंचल और मासूम दोनों थी, वो अपना पराया कुछ नहीं समझती थी , इस बार वो पडोसी के खेत में घुस गयी। पडोसी ने उसको पकड़कर हमारे घर छोड़ दिया। फिर वही घटना दोहराई गयी। वापिस जंगल छोड़ना और ग्वाले को हिदाया देना। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। ना ही मधु जंगल में रहने को तैयार हुआ और ना ही गंगो हमारा घर छोड़ने को तैयार हुई। गंगो के असली मालिक का भी कोई पता नहीं चला। लगभग एक साल तक हम लोगों ने प्रतीक्षा की, कि कोई आये और कहे कि ये हमारी बछिया है , तो हम लोग इस टेंशन से मुक्त हों। लेकिन ऐसा नहीं हुआ , और फिर एक दिन माँ ने उसका नामकरण भी कर दिया , तब से गंगो हमारे परिवार की सदस्य बन गयी।
गंगो को सभी प्यार करते थे। कोई हरी घास खिला रहा है, कोई खली और भूसा मिक्स करके दे रहा है। कोई रोटी खिला रहा है। एक तरीके से गंगो घर की सबसे छोटी सदस्य घर की सबसे लाड़ली सदस्य बन गयी। दोनों बैलों के साथ गंगो घूमती रहती थी और मन होने पर उछल कूद भी करती रहती थी। उसके अपने गले में खुजली करवाना बहुत पसंद था और वो घंटो तक खुजली करवा सकती थी। लेकिन गंगो का प्यार जताने का तरीका काफी खतरनाक था। अगर आप उसके पास गए और उसको प्यार आ गया तो वो अपनी जीभ से आपको चाटना शुरू कर देगी। एक ही जगह चाट चाट कर मांस तक निकाल देने की क्षमता गंगो में थी। मैं तो जब उसके पास जाता तो अपना सर आगे कर देता था , तो वो बालों को चाटती रहती थी। इससे खाल निकलने का खतरा नहीं होता था लेकिन बाद में शेम्पू से बाल धोने पड़ते थे।
समय चक्र घूमा और और वो समय आ गया जब गंगो ने सबको खुशखबरी दी। बच्चा होने से पहले ये चर्चा होने लगी कि इसका दूध कौन दुहेगा? गंगो एक चंचल बछिया से एकदम सीधी साधी गाय बनने वाली थी। सभी ने बारी बारी से उसके थनों को हाथ लगाकर देखा , गंगो ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। शांति से खड़ी रही। फिर तो हम बच्चों का ये खेल सा बन गया। जब भी घर पे कोई मेहमान आते तो हम बड़ी शान से उनको बताते कि इसका दूध तो हम ही दुहेंगे देखो इस तरीके से। कई बार खाली गिलास या लोटा लेकर दूध दुहने की एक्टिंग करते थे। छोटे छोटे बच्चे गंगो के नीचे से आराम से निकल जाते। उसके सींगों से खेलते रहते और कई बार तो उसकी पीठ पर भी बैठ जाते। लेकिन गंगो ने न कभी किसी को सींग मारने की कोशिश की और ना ही लात मारने की। यहाँ तक कि बच्चो में पास आने पर वो अपनी पूँछ हिलाना भी बंद कर देती थी , जिससे बच्चों को डर न लगे।
गंगो ने समय आने पर एक सुन्दर बछिया को जन्म दिया। बिलकुल अपनी ही तरह सफ़ेद। ऐसा लगता था जैसे किसी ने कॉपी पेस्ट कर दिया हो। बछिया का नाम रखा गया- शारदा। बड़े होने पर शारदा भी अपनी माँ गंगो की तरह ही थी। महाभारत में लिखा है कि भगवन श्रीकृष्ण और उनके पुत्र प्रदुम्न में इतनी समानता थी कि अगर दोनों एक साथ हों तो पहचानना मुश्किल हो जाता था।
अब उनको तो मैंने देखा नहीं लेकिन मैंने गंगो और शारदा को देखा है , दोनों में फर्क करना आसान नहीं था। लेकिन गंगो का दूध दुहने की तमन्ना कभी पूरी नहीं हुई। बच्चा होने के बाद गंगो के थनों को हाथ लगाना मतलब एल ओ सी पार करने के सामान था। इतनी जोर से लात फटकारती थी कि अगर निशाने पर लगा गई तो हड्डी का भगवान् ही मालिक है। उसके थनों को हाथ लगाने की परमिशन सिर्फ हमारी माताजी को थी। शारदा उनमे अपना मुंह लगा सकती थी, उसको कोई मनाही नहीं थी। इस वजह से हमने कोशिश भी नहीं की। एक मां और बच्चे के बीच में सिर्फ दूसरी माँ ही आ सकती है , इसका अहसास मुझे गंगो ने करवा दिया था।
गंगो ने एक एक करके सात बछियों को जन्म दिया। कुछ बछियां दीदी के ससुराल भेज दी गयीं। कुछ ब्राम्हणों को दान में दे दी,और कुछ को ऐसे ही जंगल में छोड़ दिया। क्यूंकि बहुत सारे जानवरो को घर में रख भी नहीं सकते थे। और गाय को बेचने की परंपरा को हमारे पिताजी सही नहीं मानते थे। मुझे याद है एक बार मैंने गंगो की पीठ पर एक जोरदार डंडा मार दिया था। गंगो की चंचलता उद्दंडता में बदल गयी थी। उसके बच्चे खींच नहीं पाते थे। अगर वो खेत में चली गयी तो सिर्फ अपनी मर्जी से ही वापिस आती थी। अगर उसकी मर्ज़ी न हो तो कभी कभी वो दो तीन बाद घर आती थी। ऐसे ही जब एक बार मैं उसे बाहर से घर के अंदर बाँधने के लिए ले जा रहा था तो उसने दौड़ लगा दी और अंदर जाकर खड़ी हो गयी। उसका धक्का लगने से मैं जमीन पर गिर पड़ा था। फिर मैं उठकर उसको एक जोरदार डंडा जमा दिया। गंगो वहीँ लेट गयी और फड़फड़ाने लगी। थोड़ी देर बार एकदम शांत हो गयी जैसे बेहोश हो गयी हो। मैंने उस समय जितने भी देवताओं के नाम मुझे याद थे सभी को स्मरण कर लिया। मैंने बोलै भगवान् इसको ठीक कर दो तो पांच रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगा। पांच रुपये मेरी एक महीने में जमा की गयी अमानत थी, और ये कोई छोटी बात नहीं थी। लेकिन गंगो के लिए मैं उसे कुर्बान करने को तैयार हो गया क्यूंकि गौ हत्या से बड़ा पाप कुछ हो ही नहीं सकता था। एक बाल्टी पानी उसके ऊपर डालने पर वो पैर फड़फड़ाकर उठी और खड़ी हो गई। फिर मैं बहुत देर तक जोर जोर से रोया। उस समय घर पे कोई नहीं था, इस वजह से ये बात सिर्फ मुझे पता है और गंगो को पता थी।
एक बार फिर से समय चक्र बदला और मैं पढ़ाई करने शहर आ गया और फिर नौकरी के चक्कर में घर भी छूट गया। कभी कभार साल में एक दो बार घर जाता था तभी गंगो से मिल पाता था। धीरे धीरे मैं गंगो को भुलाता चला गया और मजबूर होकर उसने भी मुझे भुलाया होगा। कई साल गुजर गए।
फिर एक दिन एक करिश्मा हुआ। पिछले हफ्ते गंगो मुझे फिर से दिखी , ठीक वैसा ही मौसम , वही हलकी हलकी हवा, पानी की बूंदे, गहरे काले बादल, चारों तरफ हरियाली और पानी। मैंने गंगो को देखा, उसने भी सर उठाकर मेरी तरफ देखा, इस बार उसकी आँखों में चंचलता नहीं थी, विकलता थी। बोली - बहुत प्यास लगी है, दो दिनों से किसी से पानी नहीं पिलाया। मैं पसीने पसीने हो उठा। सांस तेज तेज चलने लगी, आँखों में आंसू आ गए। मैं हड़बड़ाकर उठ गया। ओह तो ये एक सपना था, लेकिन मैं गंगो को दुखी नहीं देख सकता था। सुबह होते ही मैंने मां को फोन लगाया और अपने सपने के बारे में बताया। माँ ने बताया - बेटा गंगो को गए तो कितने साल बीत गए। अभी तो उसकी तीसरी पीड़ी चल रही है। और हाँ शायद कल शाम को उसे पानी पिलाना भूल गए थे।