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फ़रवरी की मध्यम शीत रात्रि मे हमारी रेलगाड़ी अंधकार के साम्राज्य को चिरती हुई आगे बढ़ रही थी | उस अँधेरे को फीका करता फागुन का पीत कलित चाँद बड़ा ही मनोहरी लग रहा था | उस सुवर्ण चंद्र की आभा ताल के पानी मे और भी खिल रही थी | दिन के उजाले मे हरियाली से लहलाने वाली पहाड़िया रात्रि मे एक विशाल छाया के भांति प्रतीत होती थी, किन्तु उन्हें तुलनात्मक रूप से कुरूप बिलकुल नहीं कहा जा सकता | रात्रि मे पहाड़ श्यामवर्णित अप्रत्यशीत सुंदरता समेटे रहते है, जिसमे चाँद चार चाँद लगाता है | ज़ब रेल,नदी पुल के ऊपर से गुजरी तो रात्रिकालीन यात्रा की वास्तविक खूबसूरती से मै रूबरू हुआ | मदमस्त बहती नदी के मुहाने से शुरू हुए पहाड़ और उनके ऊपर दिव्यरत्न की भांति दमकता हुआ चाँद मानो किसी दूसरे संसार की अनुभूति करा रहे थे |
चाँद की स्वर्णिम लालिमा बहती नदी के स्वच्छ जल से टकराकर सीधे हमारी रेलगाड़ी से टकरा रही थी| सच मे उस दिव्य अनुभव को भूल पाना मेरे लिए नामुमकिन है | ऊपर सितारों से भरा आकाश और नीचे हजारों बिजली के बल्बो से प्रकशित शहर एकदूसरे के पूरक ही मालूम पड़ते थे| दोनों ही मेरी भावनात्मक दृष्टि मे समान ही थे| सुदूर गाँव मे स्थित मंदिर और उसके ठीक सामने पेड़ के चबूतरे पर अलाव का आनंद लेते ग्रामीणों के सुकून का आंतरिक अनुभव करना बड़ा ही रोमांचक था |मानो मै उनकी चर्चा को महसूस कर पा रहा था |
तेजी से पीछे छूटता किसी घर का प्रकाश जीवन की किसी सीख के समान था, कि जीवन मे कुछ भी स्थायी नहीं होता |व्यक्ति, वस्तु, स्थान, रिश्ते, सुख दुःख एक समय पश्चात् पीछे छूट ही जाते है, चाहे वो आपके लिए कितने ही मायने रखते हो | उस परिस्थिति मे व्यक्ति को रेलगाड़ी की तरह जीवन के सभी परिवर्तनो को अटल सत्य मानते हुए निरंतर आगे बढ़ना चाहिए |
जैसे जैसे रात्रि गहराती है, वैसे वैसे रेल के अंदर व बाहर शांति बढ़ती जा रही थी | बस रेल की छूकछूक व मीलों दूर तक सुनाई देता उसका हॉर्न सभी पर हावी था | कुछ यात्री खिड़की से आती मदमस्त हवा के झोको के सहारे नींद के आगोश मे थे तो कुछ मेरी तरह मौनपूर्वक सफर का आनंद उठा रहे थे | कुछ समय पहले तक हँसता, रोता, खेलता बच्चा भी शांति से सो गया था, शायद इस कारण भी डिब्बे के बाकी लोग सो पाए थे | लेकिन गाड़ी के किसी स्टेशन या पासिंग पर रुकते ही यात्रियों की अचेतावस्था भंग होती और थोड़ी देर उधर उधर देखकर परिस्थिति भापने के बाद एक बार फिर उनका निंद्रा संघर्ष प्रारम्भ हो जाता | ऊपर की बर्थ मे भीमकाय शरीर तान कर सोये ताऊ के खर्राटे लगभग सभी के लिए चिंता का विषय थे| 2-4 लोगो ने उन्हें टोंका भी, ताऊ ने भी नींद मे अनमने ढोग से उन्हें अनसुना करते हुए आज्ञा पालन का नाटक किया | भला खर्राटे कहा रुकने वाले थे वे भी निरंतर देरी से चलती रेल के समान अनवरत जारी थे |
लेकिन रेल का कुछ घंटो का सफर कई भिन्न भिन्न विचारों को कुछ समय के लिए ही सही एक जरूर कर देता है | किसी से जान पहचान ना होने के बावजूद भी कुछ घंटो मे ही इतना गहरा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है जो आजीवन एक सुहाना क्षण बन कर यादो के पटल मे जुड़ जाता है | उन कुछ समय के मैत्री सम्बन्ध मे दोनों पक्षो को यह पता होता है की शायद दोबारा मुलाक़ात नहीं होंगी पर भी उस क्षणिक पल को वे यादो के पन्नों पर समेटकर अपने साथ ले जाना चाहते है | सफर खत्म होते ही होने वाली बिछड़न कभी कभी अत्यंत भावुक होती है, उसमे पुनः मिलने की झूटी व मार्मिक संवेदना होती है जो दोनों पक्षो को आत्मसंतुष्टि का एहसास दिलाकर खत्म हो जाती है | अंत मे कुछ समय पहले तक साथ मे गप्पे लड़ाते लोग एक दूसरे की आँखों से ओझल हो एक भीड़ मे जाकर खो जाते है |