जब बात शादी की होती है तब उस पर होने वाले खर्च और खरीदारी की लिस्ट वर-वधू दोनों ही पक्ष में शुरू हो जाती है। सबसे बड़ी बात यह है कि वधू पक्ष के यहाँ से रुपया आता है और दूल्हे की बहनें अपनी पसंद से उस धन से अपने परिवार और रिश्तेदारों के लिए कपड़े और ज्वेलरी खरीदते हैं। यह बीमारी अमीर लोगों में ही नहीं गरीबों में भी परम्परागत रूप से विद्यमान है। अमुक के शादी के कार्ड के साथ मिठाई और ड्रायफ्रूट्स आए थे तो गरीब सोचता है कि हम किसी से कम थोड़े ही हैं । हम भी लड्डू-बतासे लेकर कार्ड बांटेंगे। कार्ड को लेकर भी दिखावा दिखाई देता है। लोग सोचते हैं कि कार्ड जीवन भर की धरोहर होता है और शादी जीवन में एक बार ही होती है। कार्ड एक डायरी की तरह या एलबम की तरह तो होना ही चाहिए। लोग भी याद रखेंगे कि वाह क्या कार्ड है। जब कि आज डिजिटल होने का जमाना है। वाट्सएप पर सभी सूचनाएं दी जा सकती हैं । मगर कार्ड का होना जरूरी माना जाता है। जबकि पहले एक पोस्ट कार्ड पर निमंत्रण भेज दिए जाते थे और शादियां खूब फलीभूत होती थीं। आज दिखावे ने समाज में इस कदर कमर तोड़ दी है कि सभी अपनी शादी को फिल्मी अंदाज में थीम बेस्ड करना शुरू कर दिए हैं। होटल और मंडप के खर्चे ही लाखों में होने लगे हैं।
लड़कियां भी परिधान को लेकर एडवांस हो गयी हैं। साड़ी, सूट, हनीमून पर जाने वाले अलग वस्त्र और ज्वेलरी, इसके साथ ही जयमाल का लहंगा, रिसेप्शन का लहंगा , सगाई सेरेमनी का गाउन और ज्वेलरी, फुटवियर, मेकअप आदि पर बढ़-चढ़ कर ख़र्च करना चाहती हैं। जो धनी हैं या जाॅब करती हैं उनके लिए यह सब आसान होता है। मगर मिडिल क्लास में ये ख़र्च पेरेंट्स की कमर तोड़ देते हैं।
ये तो शुरुआत है, लड़की होने का मतलब भारत में यह है कि शादी के समय लड़का पक्ष पूछता है आपका क्या एस्टीमेट है ? फिर बताएंगे," हमने अभी बीस लाख या तीस लाख का कंस्ट्रक्शन करवाया है। हमने अपनी बेटी की शादी में तीस या पचास लाख ख़र्च कि या है। देखिए हमें तो आपसे कुछ नहीं चाहिए। बस दावत और बारातियों की खातिर अच्छी होनी चाहिए।" लड़की वाला पूछ भी नहीं सकता है कि आपकी इस खर्च में कितनी भागीदारी होगी। फिर वे अपने शहर में होटल बताते हैं,गेस्ट की संख्या बताते हैं क्योंकि उनका व्यवहार बहुत होता है और उसकी सम्पूर्ण भरपाई वे लड़की वाले से करवाना चाहते हैं। यहाँ तक कि मिठाई के डिब्बे भी अपनी तरफ से न देकर बेटी वालों के यहाँ से ही पैक करवा लेते हैं। उनका सीधा जबाब होता है कि यदि आपको देना है तो अपनी बेटी को जेवर , गाड़ी जो भी देनी हो दीजिए नहीं तो रिक्शे में भेज दीजिए। ख़र्च बचाना है तो आर्य समाज मंदिर में कर लीजिए।
एक रात के लिए पूरे जीवन की कमाई दूसरे दिन सुबह यहाँ-वहाँ बिखरी बेटी के पिता का कलेजा तार-तार कर देती है। दिखावे के लिए छप्पन तरह की वैरायटी और इसके बावजूद डस्टबिन में बरवाद हुआ भोजन अपनी किस्मत, व्यक्ति की मूर्खता, किसान की मेहनत और इंसान की नासमझी पर मुंह चिढ़ाता और बद्दुआ देता नजर आता है। जैसे कह रहा हो , आने समय में मैं आप सभी को निवाले की कीमत बता कर रहूंगा।
जब मेरा वास्ता ऐसी वारदातों से होता है तो इक्कीसवीं सदी में जन्म ले रहे चलन बढ़िया लगते हैं। आज समय के अनुसार लव मैरिज करने में क्या हर्ज है ? बेहिसाब खर्चों के बाद भी ससुराल पक्ष कभी संतुष्ट नहीं होता है। कितने ही रिश्ते अपने इर्द-गिर्द देखती हूँ कि शादियां कामयाब नहीं हुईं। वहाँ लड़की एक कामवाली बन कर रह जाए तो सब खुश। अन्यथा हर वक्त उसके लाए सामान और खाने-पीने पर छींटाकशी शुरू हो जाती है।
अब इक्कीसवीं सदी हैं। समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है पर रवायतें अभी भी जारी है बेटी पक्ष को छोटा समझने की। उनका दोहन करने की। अगर नहीं करते हैं तो बेटी के भविष्य की बात सामने आ जाती है और पिता को शर्तें माननी पड़ती हैं। क्योंकि वह भी चाहते हैं कि उनकी बिटिया का जीवन सुखमय हो। लड़कियों की शिक्षा और सर्विस से भी कुछ बदलता नहीं दिखाई देता। शादी की चौखट पर नतमस्तक होना मजबूरी है।
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इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि स्त्रियाँ स्वयं ही अपनी ऐसी स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं । इतिहास गवाह है कि स्त्रियों ने अपने खिलाफ हो रहे भेदभाव और अन्याय के विरुद्ध कभी आवाज बुलंद नहीं की। वह चुपचाप सहती हैं जैसे कि वह सहने के लिए ही हों। वह कभी भी पुरुषों या परम्परा द्वारा बनाए गए नियमों पर प्रश्नचिन्ह लगाती नहीं दिखाई देती। लंबे समय से मौन रहने के कारण वे स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाने में स्वयं को असहाय और कमजोर पाती हैं।
विभिन्न देशों के बारे में जानकारी और प्रचार-प्रसार तंत्र के साधनों द्वारा आज की तारीख में पढ़ी-लिखी स्त्रियांँ जागरूक हो रही हैं और अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय के विरुद्ध लामबंद हुई हैं। इसी का परिणाम यह है कि अब हम स्त्रियों के प्रति होने वाले अन्याय, अपराध, अत्याचार की खबरें पढ़ पाते हैं अन्यथा तो ऐसी खबरें घर की चारदीवारी से बाहर ही नहीं आ पाती थीं।
बेहद शर्मनाक स्थिति 21वीं सदी में यह है कि (महिला) गर्भस्थ शिशु को ही समाप्त करने का प्रयोग चल रहा है। जब तक हम इस समस्या के मूल तत्व को नहीं जानेंगे तब तक इस संबंध में अन्य चर्चाएँ बेमानी ही रहेंगीं। पहली बात बालिका शिशु की सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि समाज अब भी पुरुषवादी सोच से पीड़ित है, वह इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता कि स्त्रियां भी घर से बाहर निकल कर आजादी के साथ जीना और शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बनकर अपनी जिंदगी के फैसले स्वयं लेने में सक्षम होना चाहती हैं।
दूसरी समस्या है - (दहेज का बाजार ) जहांँ दूल्हा और उसके परिजन रुपया मांगना अपनी शान समझते हैं और लेने के बाद ही सम्माननीय बनते हैं। लड़के के विवाह का कारोबार एक अच्छा फायदे का सौदा बन गया है इसलिए लोग लड़के ही पैदा करना चाहते हैं।
तीसरी समस्या- सामाजिक सोच जहाँ लड़की का बाहर आना- जाना और देर रात यात्रा करना वर्जित किया जाता है और लड़कों के जमघट सड़कों चौराहों बस अड्डों पर क्या करते हैं उनसे कोई जवाबदेही नहीं है।
चौथी समस्या- कमजोर बनाने की साजिश कम खाएँ,पतली रहें, लाजवंती बनें,चुप रहें, खूबसूरत गुड़िया बनें, जिससे शादी के बाजार में शीघ्र पसंद की जा सकें आत्मनिर्भरता पति परिवार के भरोसे चले।
प्रायः यह कहा जाता है कि हमारे देश में कानूनी संरक्षण महिलाओं को प्राप्त है, परंतु कानून के समुचित कार्यान्वयन की कमी है अतः इस कमी को सुधारने के लिए महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता के प्रशिक्षण को पुलिसकर्मियों, अभियोजकों, चिकित्सा, विधि कर्मियों ,प्रशासकों और निचली अदालतों के लिए अनिवार्य बनाना चाहिए।