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भारत ऐसा देश है जहाँ महिलाओं को देवी का दर्जा दिया गया, उन्हें पूजनीय बनाया गया किंतु उत्तर भारत में महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण करने पर हालात लज्जा जनक ही दिखाई पड़ते हैं। बराबरी का दर्जा देने के बावजूद निराशाजनक तस्वीर ही बनती है पहली नजर में ।

एक महिला जब जन्म लेती है तभी से हीनता के बोध में पलती, बढ़ती है। खान-पान, रहन-सहन, परवरिश, शिक्षा में भी दूसरे पायदान पर खड़ी दिखाई देती है। पराया धन, पराई अमानत आदि संबोधनों के साथ शादी के समय दान दहेज के स्तर पर तोली जाती है। संपत्ति के अधिकार के संबंध में भी मौन अदृश्य और प्रभावशाली नीति के दरमियान अपनी अहमियत तलाशती नजर आती है।

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि स्त्रियाँ स्वयं ही अपनी ऐसी स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं । इतिहास गवाह है कि स्त्रियों ने अपने खिलाफ हो रहे भेदभाव और अन्याय के विरुद्ध कभी आवाज बुलंद नहीं की। वह चुपचाप सहती हैं जैसे कि वह सहने के लिए ही हों। वह कभी भी पुरुषों या परम्परा द्वारा बनाए गए नियमों पर प्रश्नचिन्ह लगाती नहीं दिखाई देती। लंबे समय से मौन रहने के कारण वे स्थापित व्यवस्था के विरुद्ध आवाज उठाने में स्वयं को असहाय और कमजोर पाती हैं।

विभिन्न देशों के बारे में जानकारी और प्रचार-प्रसार तंत्र के साधनों द्वारा आज की तारीख में पढ़ी- लिखी स्त्रियांँ जागरूक हो रही हैं और अपने विरुद्ध हो रहे अन्याय के विरुद्ध लामबंद हुई हैं। इसी का परिणाम यह है कि अब हम स्त्रियों के प्रति होने वाले अन्याय, अपराध, अत्याचार की खबरें पढ़ पाते हैं अन्यथा तो ऐसी खबरें घर की चारदीवारी से बाहर ही नहीं आ पाती थीं।

बेहद शर्मनाक स्थिति 21वीं सदी में यह है कि (महिला) गर्भस्थ शिशु को ही समाप्त करने का प्रयोग चल रहा है। जब तक हम इस समस्या के मूल तत्व को नहीं जानेंगे तब तक इस संबंध में अन्य चर्चाएं बेमानी ही रहेंगी। बालिका शिशु की सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि समाज अब भी पुरुषवादी सोच से पीड़ित है, वह इस बात को स्वीकार नहीं कर पाता कि स्त्रियां भी घर से बाहर निकल कर आजादी के साथ जीना चाहती हैं और शिक्षित होकर आत्मनिर्भर बनकर अपनी जिंदगी के फैसले स्वयं लेने में सक्षम होना चाहती हैं।

दूसरी समस्या है - (दहेज का बाजार ) जहांँ दूल्हा और उसके परिजन रुपया मांगना अपनी शान समझते हैं और लेने के बाद ही सम्माननीय बनते हैं। लड़के के विवाह का कारोबार एक अच्छा फायदे का सौदा बन गया है इसलिए भी लोग लड़के पैदा करना चाहते हैं।

तीसरी समस्या- सामाजिक सोच जहाँ लड़की का बाहर आना- जाना और देर रात यात्रा करना वर्जित किया जाता है और लड़कों के जमघट सड़कों चौराहों बस अड्डों पर क्या करते हैं उनसे कोई जवाबदेही नहीं है।

चौथी समस्या- कमजोर बनाने की साजिश कम खाएं,पतली रहें, लाजवंती बनें,चुप रहें, खूबसूरत गुड़िया बनें, जिससे शादी के बाजार में शीघ्र पसंद की जा सकें आत्मनिर्भरता पति परिवार के भरोसे चले।

प्रायः यह कहा जाता है कि हमारे देश में उत्कृष्ट कानूनी संरक्षण महिलाओं को प्राप्त है, परंतु कानून के समुचित कार्यान्वयन की कमी है अतः इस कमी को सुधारने के लिए महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता के प्रशिक्षण को पुलिसकर्मियों, अभियोजकों, चिकित्सा, विधि कर्मियों ,प्रशासकों और निचली अदालतों के लिए अनिवार्य बनाना चाहिए।

महिलाओं की सुरक्षा के संबंध में कलम के योगदान की महत्वपूर्ण भूमिका है। शिक्षा रूपी ज्ञान के उजाले से सदियों से चले आ रहे महिलाओं के प्रति अन्याय के समस्त व्यवहार को क्रमशः कम किया जा सकता है। जिस प्रकार सभ्यताएं क्रमबद्ध रूप से विकसित हुई हैं। जैसे कि एक ओर चांद और मंगल पर जाने वाली सभ्यताएं हैं तो दूसरी ओर आदिवासी जीवन जीने वाले मनुष्य भी हैं । ठीक वैसे ही स्त्री या परस्पर स्त्री पुरुष दोनों ही का विकास क्रम रहेगा । उदाहरणार्थ ,एक ओर ज्ञान-विज्ञान के प्रकांड पंडित स्त्री पुरुष तो दूसरी ओर मात्र भूख-प्यास और रोजगार से जूझते प्राणी ...तीसरे भी हैं जो तथागत अहम ,कुंठा और वहशीपन के चंगुल में फंसे उन्मादी और अज्ञानी हैं। अतः सद्विचार और चेतना के जागरण से विचार परिवर्तन, सही मार्गदर्शन, संयमित व्यवहार से समाज को एक आदर्श मार्ग पर लाने का प्रयास किया जा सकता है। कानून और व्यवस्था की पहल जो सच्चे अर्थों में की गई हो तब ही किसी अनैतिक क्रियाकलाप को रोका जा सकता है। असल बात तो यह है कि हमारी प्रतिबद्धताएं क्या हैं? सशक्तीकरण के उपाय- शिक्षा, राजनीति में भागीदारी, आर्थिक उत्कर्ष के उपाय, शादी के खर्चों पर रोक, शक्ति संवर्धन शारीरिक मानसिक दोनों ही। समाजशास्त्री इस बात को स्वीकार करते हैं कि भारत में महिलाओं की प्रगति के लिए योजना तब तक सफल नहीं हो सकती, जब तक जनसंख्या के सभी वर्गों में जागरूकता पैदा करने का कार्यक्रम न चलाया जाए। इसका कारण यह है कि महिलाओं को अधिकार दिया जाना निश्चित रूप से सामाजिक प्रवृत्ति से जुड़ा हुआ है और इस बारे में मुख्य काम महिलाओं के साथ भेदभाव दूर करना और बच्चों के दिलों दिमाग में सकारात्मक दृष्टिकोण को बिठाना है ताकि परिवार एवं समाज महिलाओं की प्रगति संबंधी योजना प्रक्रिया को स्वीकार करें तथा उस में सहयोग करें।

कुछ समय पूर्व तक समाज के दृष्टिकोण में बदलाव लाने के साधन सीमित थे। संचार साधनों की पहुंँच भी सीमित थी । पिछले दशक में संचार क्रांति ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की दृश्य श्रवण प्रणालियों ने उपग्रह प्रक्षेपण के जरिए लाखों लोगों तक पहुंचने के रास्ते खोल दिए हैं , जिसके प्रकाश पुंज में महिलाओं के अंधकार पूर्ण रास्ते प्रकाशित हो सकते हैं किंतु चक्रव्यूह में फंसे मीडिया तंत्र भी परिवर्तन के रास्ते खोलने में हिचकते हैं। परिणाम स्वरूप आज भी महिलाओं के हिस्से में रोना-धोना टॉर्चर किया जाना परंपराओं का निर्वाह करना आते हैं। जिनसे आज वे आजाद होना चाहती हैं। ऐसे नकारात्मक भूमिका वाले प्रसारण जिनसे महिलाओं के स्वाभिमान को क्षति पहुंचती है और जो उनके हितों के प्रतिकूल हैं, दिखाए जाते हैं। क्योंकि प्रचार-प्रसार तंत्र भी सदियों की पुरुषवादी सोच को अतिक्रमण करके आगे नहीं बढ़ना चाहते बल्कि वे व्यवस्था के समानांतर चलने में ही अपनी भलाई समझते हैं। बहुत समय पहले महिला आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए महिला परिपेक्ष्य में एक कार्यशाला आयोजित की, जिसमें अध्ययन से यह बात सामने आई कि अनेक कार्यक्रमों में महिलाओं को सेक्स भूमिका में रूढ़िवादी ढंग से पेश किया जाता है। प्रायः उन्हें अपने आप को हीन समझने वाली, पुरुषों को पथभ्रष्ट करने वाली घृणित स्त्री, तिरस्कार योग्य औरत आदि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसी प्रकार महिलाओं के कार्यक्रम शादी, घर ,खाना पकाना तथा महिलाओं की पत्रिकाएं भी इसी क्रम में पति को कैसे खुश रखें, सिलाई- बुनाई, घर की साज-सज्जा आदि सामग्री से भरी होती हैं। जिससे इस दृष्टिकोण को बल मिलता है कि महिलाओं की रुचि क्षेत्र बहुत ही सीमित है। यहाँ तक कि सामाजिक चेतना संबंधित धारावाहिक भी छिपे ढंग से पूर्वाग्रहों और प्रतिगामी प्रवृत्तियों को दिखाते हैं । समाचारों और सामायिक मसलों संबंधी कार्यक्रमों में उल्लेखनीय महिलाओं के बारे में चर्चा तक नहीं की जाती।

कुछ समय पूर्व तक एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी जिसमें एक महिला के द्वारा किए जाने वाले कार्यों को अनुत्पादक की श्रेणी में रखा गया तथा अन्य अवांछित वाक्यों का प्रयोग भी किया गया था जिसका सीधा कारण यह है कि एक महिला द्वारा किए गए घरेलू कार्य का कोई शुल्क निर्धारित नहीं है जबकि घर से बाहर चौकीदारी के काम के भी पैसे मिलते हैं सफाई ,कपड़े धोने के काम, खाना पकाने आदि के काम से पुरुष पैसा कमा कर लाता है तो उसका श्रम उत्पादकता की श्रेणी में आ जाता है। दूसरी ओर एक महिला जो कि घरेलू काम के साथ बेलदारी से लेकर देश की बागडोर तक संभाल सकती हैं। तब उसके काम को कम करके आंका जाए इससे बढ़कर अफसोस जनक बात हमारे लिए क्या हो सकती है ?

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि स्त्रियां 21वीं सदी में पुरुषों के बराबर की स्थिति को प्राप्त करने के लिए बिना किसी प्रतिरोध के तत्पर हैं किंतु इसे पूर्णता का दर्जा नहीं दिया जा सकता। आज विज्ञान और तकनीक की प्रगति के साथ-साथ स्त्रियों की साक्षरता गति भी तीव्र गति से बढ़नी चाहिए तथा घर से बाहर निकलने पर उनमें शारीरिक और मानसिक सुरक्षा की भावना बलवती होनी चाहिए। स्वतंत्र भारत में भारतीय संविधान में उन्हें बराबर के संवैधानिक तथा स्वतंत्र व्यक्तिगत विकास और बढ़ने के अधिकार की सुविधा प्राप्त है आज बहुत सी महिला संस्थाएं लंबे समय से चली आ रही लैंगिक भेदभाव की मानसिकता के विरुद्ध समानता और स्वतंत्रता की मांग को लेकर सक्रिय हैं। किंतु वास्तविकता यह है कि स्त्री को स्वयं ही अपने अंदर छिपी शक्तियों और क्षमताओं को जागृत करना होगा जिससे उन्हें बराबरी का दर्जा और सामाजिक स्थिति अपनी गुणवत्ता और काबिलियत के आधार पर प्राप्त हो सके।

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