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जब से कोलकोता में निंदनीय कृत्य हुआ है तब से बार-बार मेरे ख्याल में आ रहा है। हर दिन हमारे अखबार इसी तरह की घटनाओं से अपने पृष्ठ काले करते हैं पर कहीं कोई असर किसी पर पड़ता है, ऐसा दिखाई नहीं देता। यदि असर होता तो शायद आज यह घटनाक्रम भी नहीं घटता। कितने ऐसे वाकये हुए ,मगर नतीजा संतोष जनक बमुश्किल ही होता है। आगरा में आठ साल पहले प्रसिद्ध कालेज की साइंस लैब में भी एक छात्रा का कत्ल हुआ था। कितनी ही बच्चियां यौन शोषण का शिकार होती हैं और उन्हें मार कर नालों में फैंक दिया जाता है। भी निर्पाभया तो कभी कोई अन्य। पाक्सो कोर्ट में ऐसे केसेज की भरमार होती है। पुलिस जांच होती है, मुकद्दमे चलते हैं मगर परिणाम और प्रमाण प्रामाणिकता पर नहीं पहुँच पाते हैं।

न जाने क्यों स्त्री जाति के विरुद्ध यह अपराध कम होने का नाम ही नहीं ले रहे। जब कि हम इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गये हैं। समाज में कन्या भ्रूण हत्या का इसीलिए चलन हुआ क्योंकि कोई भी माँ या परिवार अपनी बड़ी होती संतान का ऐसा हश्र बर्दास्त नहीं कर सकते।

जिस हरियाणा को बेटियां रहित माना जाने लगा था आज उसी हरियाणा की बेटियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने देश का नाम रोशन कर रही हैं। अन्य स्थानों पर भी पेरेंट्स उन्हें अच्छी शिक्षा दिलवा रहे हैं तो वे आज हर उस क्षेत्र में भी आगे हैं जिसमें सिर्फ पुरुषों का ही बोलबाला था। बैंक, डाकघर, डाक्टर, आइएएस, पीसीएस,जज, पुलिस, सेना, उड्डयन, शिक्षा,हर जगह उन्होंने पहुँच बनायी है। अब तो आटो रिक्शा भी चलाने लगी हैं।

आखिर हमें तो सर ऊंचा करके कहना चाहिए कि आज स्त्री और पुरुष समानांतर रेखा पर चल रहे हैं लेकिन हो यह रहा है कि बदले की आग में पुरुष का अहम जलने लगा है क्योंकि उन्हें लगता है कि जिस स्त्री को उन्होंने अपना गुलाम या कठपुतली बनाने का सुखद स्वप्न देखा था ,वह तो अब उसके बराबर खड़ी है। क्या-क्या व्यूह रचनाएं नहीं की गयीं उसे कमतर बनाने के लिए। आदर्श पल्लू दिया,घर के समस्त कार्य उसके जिम्मे कर दिए , बच्चे तो पैदा करने ही थे। मर्दों का सुरक्षा कवच दिया। दहेज का जाल बुना जिसमें लड़की का समस्त परिवार ही हीन श्रेणी में रखा गया। जबकि हमारी सनातन संस्कृति में राजा जनक ने जब अपनी पुत्रियां दशरथ पुत्रों के दाम्पत्य बंधन में बांधी थीं। तब राजा दशरथ ने उनका आभार व्यक्त किया था । क्योंकि लेने वाले से दाता का स्थान ऊपर होता है। हम किस सनातन संस्कृति पर गर्व कर रहे हैं ? महाभारत काल की जिसमें द्रोपदी को दांव पर लगाया गया था। मगर राज सत्ता ने उसका साथ नहीं दिया लेकिन कृष्ण ने आकर मदद की । रामायण काल जिसमें प्रणय निवेदन पर स्वरूपनखा के नाक- कान काटे गये और परिणाम स्वरूप रावण ने सीता हरण किया। राम ने रावण का अंत तो कर दिया लेकिन राजधर्म के निर्वाह में सीता को अपने राजमहल से निर्वासित कर दिया गया। शकुन्तला के साथ विवाह करके दुष्यंत भूल गये कि वे उसे गर्भवती कर गये हैं। अहल्या के साथ छल इंद्र ने किया मगर परिणाम अहल्या को झेलना पड़ा। स्त्रियों ने सदियों से देखा है ,सहा है और उन्होंने अपने लक्ष्य पाए हैं। पर अब यह क्या हो रहा है आदमी पाशविक होता जा रहा है। क्या यह आधुनिक सभ्यता का प्रभाव है ? जिसमें कंट्रोल नहीं होता है तब क्यों न उन्हें लंगोट पहनाया जाए। यह हमारी संस्कृति में है। कहा जाता है कि महिलाओं की पोशाक पश्चिमी हो गयी हैं, इसलिए उनके साथ अनहोनी हो रही हैं। तब यह कहना भी सही है कि पुरुषों की पोशाकें भी पाश्चात्य हो गयी हैं इसलिए वे इतने राक्षस होते जा रहे हैं। पहले अपनी कामना पूर्ण करते हैं और सबूत मिटाने के लिए हत्या भी कर देते हैं।

तब क्यों न लंगोट अनिवार्य कर दिया जाए क्योंकि वह हमारी सनातन संस्कृति का प्रतीक है। लंगोट पहनने वाला व्यक्ति आसानी से बलात्कार नहीं कर सकेगा क्योंकि उसे खोलने में वक्त तो लगता ही है। जिस तरह से महिलाओं के लिए इज्जत घर बनवाए गये हैं उसी तरह से अब पुरुषों के लिए जगह-जगह अपना गुबार निकालने के लिए गुबार घर बनवाने चाहिए। जिससे पुरुष अस्मिता पर लगने वाले धब्बे कम हों। क्यों कि इन अपराध को करने में उनका कोई दोष नहीं है,यह हमारी संस्कृति पर विदेशी सभ्यता और इंटरनेट पर देखी जाने वाली गलत चीजों का असर है। आखिर वे भी तो इंसान हैं और इंसानों से गलती हो ही जाती हैं। गुबार घर का डिजाइन तैयार करने में ही बहुत सी आबादी व्यस्त हो जाएगी क्योंकि हर कोई अपनी पसंद और ख्वाब के हिसाब से उसे शेप देगा। एक अच्छा काम और ठेकेदारी में मुनाफा भी। रोजगार भी कुछ दिन के लिए मिलेगा बेरोजगारों को।

अगर यह गुबार की श्रेणी में नहीं आता है बल्कि भविष्य में रोटी कौन बनाएगा, कपड़े कौन धोएगा, झाड़ू पोंछा और घर की चौकीदारी कौन करेगा से उपजा फ्रस्ट्रेशन है तो उसका इलाज भी खोजना होगा। पाश्चात्य देशों से मार्गदर्शन लेना होगा और समझना होगा कि जब पति-पत्नी दोनों कमाने जाते हैं तो घरेलू काम कैसे होते हैं। समझदार लोग महिलाओं से बेहतर खाना बनाते हैं और बच्चों के डायपर भी बदलने लगे हैं। इक्कीसवीं सदी बदलाव की सदी है। स्वयं को बदलिए, पाशविक होने का ठप्पा मत लगवाइए। घृणा,का जबाब घृणा से ही मिलता है और समझदारी का अपनत्व से। लंगोट पहनिए और अपने अपने अस्तित्व और अस्मिता पर दाग मत लगने दीजिए।

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