ऐसा कहा जाता है कि मकरसंक्रांति के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि के घर जाते हैं । इसी लिये घरों में पूरी, पकवान,खिचड़ी बनाकर उल्लास के साथ ये त्यौहार मनाया जाता है । दान,धर्म के कर्तव्य का निर्वहन किया जाता है । बेटी-दामाद को बुलाया जाता है और उनकी खातिरदारी की जाती है ।

बुजुर्गों का अपने बच्चों के घर जाना सौभाग्य सूचक माना जाता है । हम देखते हैं कि मकरसंक्रांति के दिन साधारणतः सूर्य दर्शन कम ही होते हैं। इस बार भी ऐसा ही है। जिस तरह परिवार के साथ मिलने पर और सभी बातें भूल जाते हैं। वैसे ही पृथ्वी को भी सूर्य जी भुला देते हैं। कभी-कभी तो कितने ही दिन तक उनके दर्शन नहीं होते। धरती माँ बैचैन हो जाती हैं कि कहीं पिता,पुत्र में वसीयत और पैंशन के पैसों को लेकर कुछ अनबन तो नहीं हो गयी। इधर धरतीवासी भी सूर्य रश्मियों के अभाव में पीले-पीले विटामिन डी की कमी के शिकार होने लगते हैं । सोचते हैं, कलियुग है ,लेनदेन सर्वोच्च है,रिश्तों पर धन भारी पड़ता है जी। अतःवे भी सामर्थ्यानुसार सदका निकाल कर अपना कर्तव्य पूरा करते हैं और सचेत भी रहते हैं। शनिदेव के प्रति अपनी आस्था बढ़ाते जाते हैं। उन्हें भी फल,फूल, कपड़े, अनाज आदि समर्पित करते हैं । यद्यपि धरती माँ यही सोचती हैं कि बेटे पर क्या कमी है। पर इंसान तो साधारण मनुष्य हैं, वे तो इसी तरह ही मनाते हैं ,अपने इष्ट को।

पैसे वाला पिता किसे बुरा लगता है,जब तक धन ,तब तक मलाई-मक्खन । पैंशन, फिक्सडिपोजिट,वसीयत अपने नाम फिर पिता का जो भी हो अंजाम , जलिए, जलाइए ।

माँ को कौन पूछता है, सभी जानते हैं कि माँ को तो जननी का काम पूरा करना ही है। बीज डालिए,उगेंगे ही। खोदो,खाओ,खींचो,सींचो, अंदर,बाहर मालामाल है। पर मेहनत करनी पड़ती है। सरकारी पैंशन नहीं कि बैठे,बैठाए मिल जाएगी।

जो मेहनत से डरते हैं वे मेहनतकश की रोजी-रोटी पर भी नजर गढ़ाए रहते हैं और चढ़ जाते हैं शनि की ढय्या,साढ़ेसाती बनकर ।

जब पिता प्रताड़ित हो तो आंसू लाजिमी हैं और उसी का असर होता है कि भरी ठंड में भी बेवजह बरसात होने लगती है । इस मौन व्यथा को कौन समझ सकता है ? न कहीं बादलों का गर्जन, न बिजली की चमक । सच मेरा मन तो सूर्य देव के प्रति संवेदना से भर उठता है । शुभ मकरसंक्रांति !

*  *  *

सुबह का वक्त है पिता-पुत्र दोनों ही अपने बारे में बातें करते हुए आकाश में विचरण कर रहे हैं। पुत्र शनि ने पिता से प्रश्न किया," पिताश्री! क्या आपको नहीं लगता कि जमाने के साथ आपको भी बदलना चाहिए।"

"मैं समझा नहीं पुत्र ! स्पष्ट कहिए।"

"यही कि अब आपकी भी अवस्था ढलने की ओर है,आपको भी आराम की जरूरत है। घड़ी दो घड़ी आगे पीछे उगने में क्या हर्ज है। आप यहांँ रुकिए । किसी मातहत को कभी-कभी उगने-डूबने के लिए भेजा जा सकता है।"

"कैसी बातें करते हो पुत्र शनि ? दुनिया के बारे में सोचा है ?समूचे ब्रह्माण्ड में प्रलय आ जाएगी। ऋतुएं बदल जाएंगी,समय की गति बदल जाएगी।”

"ऐसा आप सोचते हैं पिता श्री ! सिद्धांत,आदर्श अपनी जगह हैं, सुविधा अपनी जगह। यही कारण है कि आज पृथ्वी लोक में आपके एक-दो ही मंदिर हैं और मेरे मंदिरों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।"

"पुत्र शनि ! मुझे आवेश मत दिलाओ। मुझे अभी तुम्हारा घर छोड़ना है।"

"क्षमा करें पिता श्री ! आगे मगरमच्छों का डेरा है।"

"मुझे परवाह नहीं। मैं इसी रास्ते से गुजर जाऊंँगा ।"

"पिता श्री ! पिताश्री!"

इधर पृथ्वी पर विद्वानों को पता चला कि सूर्य मकर के ग्रह में संकट में हैं तो उन्होंने सभी पृथ्वी वासियों को बताया कि मकर से आदित्य नारायण की रक्षा के लिए अच्छे-अच्छे व्यंजन बनाओ उड़ने वाली पतंगों के माध्यम से समूचे आकाश में उनकी खुशबुएं फैला दो।

गृहणियों को पता चला तो उन्होंने झट पट अपनी कढ़ाईयां चूल्हे पर चढ़ा दीं और चटकाए तिल । कहीं तिल का ताड़ न बन सके। पिघलाया गुड़ और बांध दिया सभी तिलों को चाशनी में। पीसने लगी मूंग दाल और बनाने लगीं मुंगोड़े, जिससे कोई मुंगेरी लाल के सपनों में ही न खोया रहे। बाजरे के आटे में गुड़,तिल मिलाकर बनायीं मीठी-मीठी

टिक्कियां । जल्दी से सर्दी जाएं झिकी,झिकी (भरपेट)। पतंगें खुशबुएं लिए आकाश को जाने लगीं। मकर खुश हुए और सूर्यदेवता को कोई हानि न पहुंचाने का वचन दे ,मन मुताबिक उत्तरायण में भ्रमण करने की इजाजत दे दी।

*  *  *

उधर भास्कर महाराज प्रमुदित हो पृथ्वीवासियों को बादलों की ओट से देख मंद-मुस्कराने लगते हैं। प्राणियों में जीवन संचार होने लगता है । पक्षी अपने कोटरों से निकल चहकते

हुए आसमान की ओर उड़ने लगते हैं । चूल्हों पर रखी पतीलियों से खीर,खिचड़ी बाहर की ओर उफनने लगती हैं ,बरकती माई प्रसन्न हुईं। ऐसा संकेत पाकर स्त्रियां रंगीन वस्त्र पहन रंगोलियां बनाती हैं । खुशी से रेबड़ियां बांटने लगती हैं । लेने वाले गजक की मांग करने लगते हैं । कहते हैं, "रखो अपनी रेबड़ी । रेबड़ समझ रखा है क्या ,जो रेबड़ी में टरकाना चाहते हैं ? स्वर्ग के सुख लेने के लिए तो तैयार बैठे हो और स्वर्ग पहरेदारों को रेबडि़यां।"

क्या करें बेचारी खुद को ही देने लगती हैं और यह कहावत चरितार्थ हो ने लगती है कि सुन्दरियां बांटे रेवड़ी,फिर-फिर अपने को देवें। घर में सबको खिचड़ी परोसने लगती हैं । जो भी न नुकुर करता है उसे घी डालकर खिचड़ी खाने के फायदे बताती हैं । अचार, चटनी ,सलाद के साथ स्वाद का तड़का लगा अपने फोन में अपडेट देखतीं हैं और समूहों से जुड़ कर मनोविलास में समय व्यतीत करने लगती हैं ।

उधर पुरुषों ने देखा कि महिलाएं तो खूब फोन पर ही समय दे रही हैं । पौष्टिकता के बहाने खिचड़ी पका के खाली बैठी रहती हैं । उन्होंने भी सेहत को आधार बना हरी सब्जियों के ढेर लगा ने में कोई कसर नहीं रखी। करिए सफाई मैंथी, धनिया,पालक,बथुआ, सरसों दिन भर,, जिधर देखो उधर हरा ही हरा,फाइबर,विटामिन बी,ए,आयरन,स्फूर्ति सब इन हरी सब्जियों में नजर आने लगा। डिटाक्सीफिकेशन घर बैठे, बिना अतिरिक्त खर्च के। महिलाएं जिधर देखतीं हैं हरियाली नजर आती है। वे छत पर बैठ सूर्य देव को मानतीं हैं,हे दिवाकर ! जल्दी अपना प्रताप दिखाईए और इन हरियाली में बालियां लगाईये। गाजर का हलुआ चढाएंगे आपको । दिन भर की बेगारी से मुक्त कीजिए प्रभु।

*  *  *

इधर पिता के इस तरह जाने से पुत्र शनि को बहुत दुख हुआ और उन्हें एक बार फिर से लौटने और अपने साथ रुकने के लिए कहा। उधर दिनाकराय जी भी मन में दुखी थे। सोचने लगे, नाहक ही बात बढ़ा दी मैंने । वर्ष में एक बार मिलते हैं उस पर ये तनातनी हो ही जाती है । पिता का मन द्रवित होने लगता है और वे दूर से ही पीछे मुड़कर देखते हैं और आवाज देते हैं । "पुत्र शनि! मुझे ट्रेजरी में अपने जीवित होने का प्रमाण पत्र भी तो देना है। मैं अगले बर्ष फिर आऊँगा । दोनों ही एक दूसरे की ओर देखकर द्रवित हो उठते हैं और आकाश में फिर से झर-झर मेह बरसने लगता है । पिता आश्वस्त करते हैं कि फिक्र नहीं करना। तुम्हें तुम्हारा तेल,तिल मिलता रहेगा, उत्पात मत मचाना।"

"जी पिता श्री"

"वह देखो धरतीवासी मेरी रश्मियां दिखाई देते ही कितने खुश हैं चारों ओर आनंद ही आनंद नजर आ रहा है । खून के रिश्तों से अलग भी निःस्वार्थ प्रेम के रिश्ते होते हैं, जिन्हें देखकर मेरा मन खुश है ।

मेरे वहाँ पहुँचते ही शीत सहनशील हो जाएगी । पत्तों पर जमी ओस झरने लगेगी । बूँद -बूँद ठहरी हीरे की कनी सी ओस मेरे प्रकाश परावर्तन से मुझे अपने में समा लेने के लिए तत्पर है। वह देखो बूँद में समझाया हुआ मैं सूक्ष्मतर। एक से अनेक में समाहित मैं और अनेक को स्वयं में सहेजे मैं* जाने-माने रिश्र्तों के बंधन से मुक्त होते ही ऐसे ही अनुभव होते हैं । सार्वभौमिक सरोकारों के लिए ऐसे ही माया, मोह के बन्धन तोड़ने पड़ते हैं । वह देखो ! आनंद का अतिरेक ,चहुंओर ,दीवारों, छतों, वीथियों पर बरसती जीवनी शक्ति, सुबह की रश्मियों के सम्पर्क में आने वाली हर वस्तु स्वयं प्रकाश का पर्याय बन गयी है ।

सुखी रहो पुत्र शनि !"

*  *  *

अद्भुत दृश्य था सितारे ,भानु और ग्रह शनि की विदाई का। भानुप्रताप जी मकर राशि के मध्य खड़े हैं। वे अपना दांया हाथ ऊपर विदाई का संकेत देते हुए हिला रहे थे और शनि निस्तब्ध खड़े, अविरल आँसुओं की जैसे गंगा, जमुना बह निकली हो और पिता एक बार पुनः पुत्र को निहारने के लिए एकटक देखते हुए भावविह्वल होने लगे। अंततः आकाश में बादल घिर आये जल के स्रोत झरने लगे। पर ये घड़ियाली आँसुओं की वारिश नहीं थी और न ही प्याज के आँसुओं की, क्योंकि प्याज को उन्होंने पहले ही वर्जित कर रखा था। आज उनके दुख में उनके नजदीक रहने वाले सभी ग्रह,नक्षत्र दुखी थे और एक बार फिर घरती का आँचल गीला होने लगा।

तभी सर्दी ने करुणा भरा गीत गाया कि मैं अब एक सीढ़ी नीचे उतर चुकी हूँ, कैसे रुकूँ ?

मुझको जाने दो हिमालय से सदाएं आ रहीं।
हे गगन सम्राट मुझको माँ मेरी बुला रही।।
है पराजित धुंध कुहरा लौटने पर विवश।
भर रही सुषमा प्रकृति की नित नये अमृत कलश।।
झांकते खग कोटरों से शीत निद्रा भी अवश।
साज छेड़े मधुकरों ने गान कोयल गा रही।।
मुझको जाने दो,,
ओस के बिन्दु टपकते पीर पानी की तरह ।
झरने लगे अब पीत पल्लव वीतरागी की तरह ।।
झांकती नव कोंपलें ज्यों वस्त्र नव ले आ रहीं।
मुझको जाने दो,
मधुपान को आगत मधुप, अभ्यस्त स्वागत के कुसुम।
रंग भरे बहु अंक में ज्यों नेह के हों शुभ शगुन।।
भ्रमर की गुंजार सुन मंजरियां लहरा रहीं,
मुझको जाने दो...
गुमनाम होतीं सिहरने स्वच्छ हो अब व्योम भी।
आद्रता - अदृश्यता करती है अनुलोम सी।।
गतिमान दर्शक है दिवाकर ! गान दिश चहुं गा रहीं।
मुझको जाने दो...
नादमय वातारण ,अनुरागमय आसक्त मन।
प्रेममय आकाश,महि,चर,अचर सब प्राणीजन।।
सृजन नव करने निमित्त यहाँ उष्मा रवि आ रहीं ।
मुझको जाने दो...

इधर पृथ्वी पर बरसते मेह से धरती भी बैचेन हो उठी। विरह की वेदना जल के रूप में अपने अन्तर में समाहित कर सूर्य देव को याद कर कहने लगीं, " प्रभु क्या है ये सब ? इतने प्रतापहीन कैसे हो रहे हैं आप?"

"क्या समझती हैं आप कि प्रतापियों को पीड़ा नहीं होती ? पुत्र से वियोग का दुख क्या माँओं को ही होता है। मेरी प्रतीक्षा करो! समस्त भू-मंडल साफ-स्वच्छ हो रहा है। पेड़-पौधे अपने पीत पत्र गिरा रहे हैं, उनमें नयी ऊर्जा भरने के लिए मेरा उजाला अब सब में प्राणों का संचार करेगा और तुम नवीन वस्त्र धारण किए मेरे स्वागत में तैयार रहना। तब मेरे आगमन से तुम पुनर्नवा हो हर प्राणी मात्र के लिए सुख और सौभाग्य लाओगी और पक्षियों के कलरव से पुन: तुम्हारी प्रसन्नता लौटेगी।

.    .    .

Discus