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भारत जैसे प्राकृतिक रूप से समृद्ध देश में हमारे ऋषि, मुनियों ने प्रकृति को अपनी माँ के समान स्थान देकर उसे संरक्षित पोषित और अक्षुण्ण किया है।हम भारतीयोंका दिन सुबह भूमि स्पर्श से होता है क्योंकि वही समूची सृष्टि की धात्री पालन-पोषण करने वाली है। संसार की समस्त भौतिक आवश्यकताएं यही से पूर्ण होती हैं। अंत में पृथ्वी ही हमें अपने में विलीन कर लेती है। इसके उपरांत हमें जीवन के लिए जल और भोजन की आवश्यकता होती है। पहले जल नदियों से ही प्राप्त होता था अतः सभ्यताओं का विकास इन्हीं के किनारे हुआ। दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति सदानीरा अविरल बहने वाली धाराओं से ही होती थी। इसलिए ये भी वंदनीय हैं। इनके जल में प्रवेश करते समय इनका भी आभार स्वरूप स्पर्श करने की परम्परा रही है। जल में मल, मूत्र,नाक,साफ करना, थूकना , साबुन का प्रयोग निषिद्ध हुआ करता था। स्नान बालू से कर‌ लेते थे लोग । कपड़े धोने के लिए अलग से गढ्ढे बना कर सोख्ता बनाया जाता था जिसमें गंदा पानी जमीन की सतह से छनता हुआ भूमिगत होता था। उसके बाद सूर्य को पिता का दर्जा दिया गया। जिसकी आवाजाही से दिन-रात होते हैं और उसके प्रकाश, गर्मी से समस्त सृष्टि जीवन पाती है। यदि आदित्य न हों तो जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए हमारे वेद,शास्त्रों में पृथ्वी,जल, सूरज,पवन,की आराधना की गयी है और उनका आभार व्यक्त किया गया।

वेद मंत्रों से हमें पता चलता है कि ऋषि मुनियों ने प्रकृति के गुण गाते हुए जनमानस को इनका महत्व बताया और अपने जीवन में इनसे प्रेरणा लेकर प्रति उपकार करने की प्रेरणा दी।

संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसे प्रकृति ने सम्मोहित न किया हो। श्री बाल्मीकि रामायण में बाल्मीकि जी ने किष्किन्धाकाण्ड के अष्टाविंश: सर्ग में बर्षा ऋतु का वर्णन बड़ा ही मनोरम बन गया है।

यदि प्रकृति और पर्यावरण के दृष्टिकोण से पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि उस समय पानी फलों, फूलों और पर्वत की अन्य वनस्पतियों से सम्प्रक्त होकर सभी को प्राप्त हुआ करता था। आज की स्थिति यह है कि वही जल हमें मल, मूत्र से मिश्रित हुआ प्राप्त हो रहा है। झरनों की कल-कल और पक्षियों का उनके साथ स्वर मिलाना एक अद्भुत अनुभूति देता है। आज हम वाहनों का कोलाहल,तेज आवाज शोरगुल वाला संगीत सुन रहे हैं। कहाँ सुगंधित केवड़े वाला जल और कहाँ आज बदबूदार मदिरा की ओर बढ़ते हुए आज की पीढ़ी के कदम।

आज आकाश से गिरता हुआ मोती के समान स्वच्छ और निर्मल जल पत्तों के दोनों में संचित हुआ देख प्यासे पक्षी पपीहे हर्ष से भरकर देवराज इन्द्र के दिए हुए उस जल को पीने आते हैं। जनमानस उत्साह से बाहर निकल कर आनंदित होते हैं। मगर अब बदले परिवेश में गगन में स्थित धूल,धूएं के कण प्रकृति द्वारा समुद्र से वाष्पीकरण द्वारा शुद्ध किए गये जल को प्रदूषित कर देते हैं।

महाकवि कालिदासजी की रचनाओं को पढ़ते हैं तब ज्ञात होता है वे प्रकृति को चेतन एवं भावनायुक्त पाते हैं। उनके अनुसार सम्पूर्ण चराचर प्रकृति भी मानव की भाँति व्यवहार करती दिखायी देती हैं। महाकवि ने मेघ को दूत बनाकर भू, अग्नि, जल, पवन के सम्मिश्रण रूप जड़ पदार्थ को मानव बना दिया है। वे प्रकृति में न केवल मानव की बाह्य आकृति अपितु सुख:-दु:खादि भावों की भी सम्भावना करते हैं। वे उसे प्रेमी अथवा प्रेमिका के रूप में देखते हैं...

महाकवि कालिदास प्रकृति को उपदेशिका रूप में भी पाते हैं। वे प्रकृति से प्राप्त होने वाले सत्य का स्थान-स्थान पर उल्लेख करते हैं। जो मानव जीवन का मार्ग-निर्देश एवं आदर्श उपस्थित करती है।

रामचरितमानस में प्रकृति एवं पर्यावरण को भी हमारे जीवन का अभिन्न अंग होने के साथ जीवन को सुखी बनाए-रखने में इसकी अनिवार्यता तथा महत्व पर समुचित प्रकाश डाला गया है। उन्होंने अपनी रचनाओं को प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाते हुए लिखा है -किष्किंधाकाण्ड हमें प्रकृति के विविध आयामों से परिचित करवाने के साथ उसकी महत्ता और संरक्षण की आवश्यकता पर ध्यान दिलाया है। अंततः हम कह सकते हैं कि पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी श्रीरामचरितमानस की प्रासंगिकता कालजयी है।

हमारे शास्त्रों में पेड़ पौधों से उनके पत्ते, लकड़ी लेने पर उनसे आज्ञा लेने का विधान है। इसके लिए विविध मंत्र हैं। साथ ही इन्हें ईश्वर के साथ जोड़ा भी गया है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, "वृक्षों में मैं पीपल हूँ। " नदियों में गंगा नदी,पर्वतों में मेरु, जलीय जीवों में मगरमच्छ हूँ। यानि खतरनाक मगरमच्छ को भी मारने का मतलब है ईश्वर के प्रति हिंसा।

तुलसी के पत्ते तोड़ने का भी मंत्र है - 

"ॐ सुभद्राय नम:, मातस्तुलसि गोविन्द हृदयानन्द कारिणी, नारायणस्य पूजार्थं चिनोमि त्वां नमोस्तुते। "

पेड़ काटने ,उनसे पुष्प,पत्र लेने के लिए भी मंत्र बनाए गए हैं जिससे मनुष्य प्रकृति के प्रति कृतज्ञ बने । उन्हें अपना सहचर समझे।

पर्यावरण का मतलब

पर्यावरण से तात्पर्य है हमारे चारों ओर का वातावरण। जिसमें कुछ प्राकृतिक है तो कुछ मनुष्य कृत। प्रकृति ने मानव ,पशु ,पक्षी के अनुरूप भोजन बनाया है। इसे सूक्ष्मदर्शी होकर समझना होगा। गेहूं,चना,बाजरा , दालें आदि अनाज मनुष्य के प्रयोग हेतु और भूसा पशुओं के लिए। जो पशुओं के काम नहीं आ सकेगा वह जलावन में काम आ जाएगा। मल, मूत्र भी मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के काम का है। पर मनुष्य ने पीने के पानी के साथ पाखाने जोड़ दिए। स्वच्छता का वादा करते हैं। विदेशी एक्सपर्ट बुला कर समस्या का निदान खोजते हैं। करोड़ों की योजनाएं बनाते हैं। आखिर हमें मानव सभ्यता के स्वास्थ्य का ख्याल भी तो रखना है। इसके इतर प्रकृति स्वयंस्फूर्त बनाई है ईश्वर ने। मिट्टी भुरभुरी करने के लिए चींटी, केंचुए कारीगर शांतिपूर्वक जमीन को बुआई के लिए तैयार कर देते हैं। पशुओं का अपशिष्ट भी जलावन के काम आ जाता है। 

गंदगी स्वत: साफ होती है। बरसात में अथाह पानी आता है मगर हम उसे इकठ्ठा करने की योजना न बनाकर सबमर्सिबल से आवश्यकता से अधिक पानी खींच कर धरती का सीना खोखला कर रहे हैं। पर्यावरण दिवस पर हम नारे लगाते हैं। रैली निकालकर सभी को जागरूक करते हैं मगर। हमारे माॅल में जो सामान मिलता है, उससे कचरे के अंबार लग रहे हैं। हर सब्जी अलग-अलग पैकेट में पैक होती है फिर उस पर चिप लगती है और बांधने के लिए प्लास्टिक की पिन लगायी जाती है। सब्जी पांच रुपए की और उसके साथ दो रुपए का कचरा जो कारखानों में बनता है जिसका उत्पादन धरती से संसाधन प्राप्त करके होता है। पांच सौ रुपये की सब्जी के साथ बांसी कागज के पैकेट, गत्ते के डिब्बे, सुरक्षा के लिए जालीदार प्लास्टिक के कवर.,पिनें और भी न जाने क क्या-क्या हर दिन आता है और कचरे के बैग में रखकर बाहर कचरा फैंकने के‌ लिए भी काले पालीथीन बैग। अमीरों के लिए यह सब करना पड़ता है हमारी व्यवस्था को। हम सभी जानते हैं कि इसी तरह के कचरे से ओखला जैसे पहाड़ बन रहे हैं। उसके निस्तारण के लिए करोड़ों खर्च हो रहा है। जब कि निस्तारण की जिम्मेदारी व्यक्तिगत होनी चाहिए। तभी हमें जिम्मेदारी का भान होगा। कोई भी व्यक्ति अपने घर के आगे कूड़े का ढ़ेर नहीं लगाता लेकिन सड़कों पर, नदियों में बेपरवाही से फेंक देते हैं। अगर समझदारी से काम लिया जाए तो कचरे के ढ़ेर से बचा जा सकता है। ठेले से सब्जी,फल लेते हैं तब बास्केट में ले लेते हैं । 

सब्जी फल के छिलके गाय या अन्य जानवरों के लिए बाहर रख दने से बेहतर उपयोग हो जाता है। इसके बाद भी यदि गीला कचरा है तो उसे आटे के बैग प्लास्टिक की बोतलों में भर कर फर्टिलाइजर बना सकते हैं। किसी प्लास्टिक के पाइप को गार्डन या गमले में रखकर उसमें गीला कूड़ा डालने से कुछ ही दिन में वह कम्पोस्ट बन जाता है। साउथ में प्लास्टिक बैग का उपयोग लगभग बंद हो गया है। फिर भी पर्यटक बहुत सा कचरा समुद्र के किनारे छोड़ जाते हैं। जिससे समुद्र तट गंदे होते हैं और लहरों के साथ वह गहराई में जाकर समुद्री जीवों के लिए जानलेवा हो जाता है जैसे कि मैदानी भागों में गायें पालीथीन आदि खाकर बीमार हो जाती हैं। यह तो हुई व्यक्तिगत स्तर पर जिम्मेदारी और पर्यावरण कैसे स्वच्छ रखने की बात। हमारी सरकारों को भी अभी समय रहते ही प्रभावी कदम उठाने होंगे। जब हमारे संकल्प श्रेष्ठ होंगे तो उनके क्रियान्वयन में भी कोई परेशानी नहीं होगी। मुख्य बात है विचार ! संकल्प ! संवेदनशीलता ! चेतना का स्तर ...

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