Photo by Alexander Shatov on Unsplash
साहित्य शब्दों की विधा है। आज का दौर परिवर्तन का दौर है। साहित्य के प्रसार के लिए संचार माध्यमों की आवश्यकता होती है। जब से व्यक्ति के जीवन में डिजीटल माध्यम का प्रवेश हुआ है तब से साहित्य का भी स्वरूप बदल रहा है। अब किताब,कापी पेन लेकर बैठना गुजरे जमाने की बात होती जा रही है। संदर्भ के लिए गूगल , विकीपीडिया, यूट्यूब बहुत से माध्यम हैं इसलिए अब लाइब्रेरी जाकर पुस्तकें छांट कर लाने और उन्हें पढ़ने का जमाना पीछे छूटता जा रहा है। एक क्लिक पर हजार जानकारी हमें उपलब्ध हैं। पुस्तकें भी प्लेटफार्म पर पढ़ने के लिए आ चुकी हैं। हम सभी जानते हैं कि कागज बनाने में पेड़ काटने पड़ते हैं। उनका दुरुपयोग भी बहुतायत में हो रहा है। पेन बनाने के लिए प्लास्टिक प्रयोग की जाती है। स्याही अलग से उपयोग होती है। ये सभी कारखानों में बनाया जाता है जिससे प्रदूषण और संसाधनों का दोहन बहुतायत में होता है। इसलिए समझदारी इसी में है कि समझदार बना जाए।
साहित्य की उपयोगिता -
साहित्य की उपयोगिता तभी तक है जब तक उसका प्रसार -प्रचार हो और वह अधिकाधिक व्यक्तियों तक अपनी पहुँच बना सके। यह काम पुस्तकें बखूबी करती रही हैं। आज तक का समस्त ज्ञान वे ही सहेजती आ रही हैं। ज्ञान-विज्ञान इतिहास, भूगोल, धर्म, राजनीति , गणित सभी कुछ हम किताबों में ही पढ़ते रहे हैं। डिजिटल क्रांति के द्वारा अब बच्चे बहुत जल्दी ही अपने लैपटॉप, टैब, मोबाइल पर चाहे जहाँ और चाहे जब बहुत सी जानकारियां बिना किसी गाइड या अध्यापक के स्वयं सीख रहे हैं।
साहित्य और मीडिया -
साहित्य सृजन एक कौशल है, शिल्प है , चिंतन है। साहित्यकार समाज में घटित जीवन के कार्य-व्यवहार को संवेदना में परिवर्तित करते हैं और मानव को एक दूसरे की भावनाओं से रूबरू करवाते हैं। मीडिया एक बेहतरीन संप्रेषण का माध्यम है, जिसमें साहित्य जनसंचार माध्यम-नाटक, सिनेमा, संगीत आदि का समावेश होता है। साहित्य सृजन है जो मनुष्य की अन्त: चेतना से निस्रत होता है। समाज के कार्य, व्यवहार पर क्रिया-प्रतिक्रिया, संवेदना, उपचार आदि मानवीय भावभूमि पर लिखे जाते हैं। मीडिया उनके लिए कितना कारगर होगा यह कहा नहीं जा सकता। उसकी अपनी सीमाएं हैं और बाध्यताएं भी। लाइक,शेयर ,फारवर्ड का युग है। लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों की रचनाएं लोग अपने नाम से पोस्ट करके वाहवाही लूटने में महारत हासिल कर रहे हैं।
इसलिए साहित्य में आज भी पुस्तकों का प्रकाशन अवश्यंभावी है जिससे लेखन की सत्यनिष्ठा बनी रहती है और यह वर्षों तक कायम रहती है। मीडिया पर निर्भर अभी पूरी तरह से नहीं रहा जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में साहित्य और मीडिया दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन जब साहित्य होगा तभी मीडिया का काम होगा ।
इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के रूप में रेडियो ने हिंदी साहित्य के प्रचार-प्रसार में अमूल्य योगदान दिया है। लाइब्रेरी, पुस्तकें, वैज्ञानिक-संस्कृति वार्ताएं, परिचर्चाओं का प्रसारण कर लोक-संवाद को सम्मिलित किया गया है। रेडियो से शामिल होने वाले अधिकारी, कर्मचारी, विद्वान या विद्वान अभिरुचि के थे। आकाशवाणी ने मानव संवेदनाओं को संप्रेषित करने, जन-जागृति लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अंततोगत्वा रेडियो भी विज्ञापन की बैसाखी पर सवार है। साहित्य-सृजन को बढ़ावा देने वाला वह माहौल अब नहीं रह गया है। फिर भी अच्छी-अच्छी कविताएं, कहानियां, बातचीतें, रेडियो प्रसारित होते हैं, लेकिन अब उनका श्रोता नहीं है। प्रिंट मीडिया में जहाँ वर्तमान में दृश्य मौजूद है, वहीं इन कहानियों को व्यापक परिदृश्य में महसूस कराता है । दुर्लभताओं को उजागर किया जाता है। यदि किसी पत्रकार की दृष्टि सत्य पर होती है तो कहा जा सकता है कि साहित्य के निकट सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की एक समन्वित वृष्टि हो रही है जो कि दुर्लभ ही है।
वर्तमान समय में मीडिया बहुत मजबूत है । आज मीडिया की प्रबल जनमत-निर्माण का प्रभावशाली साधन है। समाज को दिशा देने के दायित्व के पीछे साहित्य का भी बहुत बड़ा योगदान है। विभिन्न विषयों से संबंधित साहित्य की पुष्टि का परिणाम है-प्रभावी मीडिया की उत्पत्ति। मीडिया का आधार है विचार, घटनाएं, सूचनाएं और भाषा।
इन्हीं चारों की मूल संरचना पर साहित्य का भी निर्माण होता है। किसी भी काल का साहित्य उस समय के विचार ,संस्कृति, घटनाएं,समाज के सिद्धांतों से प्रभावित रहता है। मीडिया भी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। साहित्यकार का अंतःमन इन समग्र बातों को सूक्ष्मता से जांच-परखकर सुंदर, सरल एवं सर्वग्राह्य भाषा में लिपिबद्ध करता है। साहित्य का अपना एक अलग संसार है, जहाँ जीवन भर विराम नहीं मिलता। पूर्व में लिखा गया साहित्य आज भी जीवित है। सूर, कबीर, तुलसी, रहीम आदि तमाम साहित्यकार और उनके द्वारा रचित साहित्य आज भी लोगों की प्रेरणा का स्रोत है। इस सम्पूर्ण अमूल्य धरोहर को संजोकर रखने एवं नई सभ्यताओं को इसके स्थानान्तरण का गुरुत्तर एवं दुरूह कार्य मीडिया ही कर रहा है।
फिर भी पुस्तकों का अपना स्थान है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का अपना अलग। साहित्य प्रेमी आज भी अपने दम-खम पर साहित्य को पुस्तकों में सहेजने का कार्य कर रहे हैं। क्यों कि जिस तरह से समय के साथ कागज को दीमक से बचाना होता है उसी तरह सोशल मीडिया पर भी नयी टेक्नोलॉजी का खतरा रहता ही है। न जाने कब समस्त डाटा डिलीट हो जाए और कुछ बचे ही न। निष्कर्ष यही है कि गम्भीर चिंतन के लिए समय की स्याही चाहिए। भावों के विस्तार के लिए सुकून और एकांत चाहिए तभी अच्छे साहित्य का सृजन हो सकेगा । आज क्वांटिटी तो है पर क्वालिटी का कोई भरोसा नहीं रहा।