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शिक्षा विकास के सोपान की प्रथम सीढ़ी है। यूँ तो व्यक्ति अपने परिवार से परम्परागत आचार-विचार सीखता है ,पर जब वह औपचारिक शिक्षा ,शिक्षण संस्थानों से लेता है तब उसका सम्पूर्ण विकास होता है। तभी समाज और वैश्विक स्तर पर उसका साक्षात्कार होता है। भारत में शिक्षा का इतिहास वैदिक काल से माना जा सकता है। जब वेदों की रचना हुई और ये हमारे विकास के परिचायक हैं जिनमें मन्त्रों के माध्यम से ईश्वर और समस्त सृष्टि के प्रति धन्यवाद और मानव जाति और अन्य जीवों के कल्याण की प्रार्थनाएं हैं। उस दौर में शिक्षा वर्ण व्यवस्था के आधार पर प्रप्त होती थी, हर किसी को अध्ययन का अधिकार नहीं था। सभी वर्ग अपने अपने निर्धारित कार्य करते थे। परिणाम स्वरूप शिक्षा राजागृह और ब्राह्मणों तक सीमित थी। अन्वेषण उस समय भी होते थे पर वे अस्त्र शस्त्र , ज्योतिष, नक्षत्र विज्ञान ,गणित आदि तक सीमित थे। यदि अनुसंधान किए भी जाते रहे होंगे तो भी गोपनीयता के दायरे में आते थे। हर किसी को ज्ञानी बनाने का या शोध का लाभ नहीं मिल सकता था।
भारत में विदेशियों का शासन अनवरत रहने के कारण यहाँ की राजनैतिक, सामाजिक,धार्मिक और आर्थिक व्यवस्था शासकों के अनुरूप प्रभावित होती रही। विदेशी यहाँ की संपदा का दोहन करते रहे और व्यवस्थागत सुधारों की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया।
जब अंग्रेज भारत आये तो उन्होंने देश में अपने व्यापार संवर्धन के लिए बन्दरगाह,रेलवे लाइनें,छावनियाँ और अपने बच्चों के लिए स्कूल बनवाए। जिनमें भारतीयों को भी पढ़ने के मौके मिले और वे उच्च शिक्षा प्रप्त करने के लिए इंग्लैण्ड तक गये। जिससे उनके ज्ञान चक्षु खुले और अपने देश की आजादी के लिए उन्होंने संघर्ष किए। भारत में अंग्रेजी के चलन का कारण भी यही है कि हम हिन्दी अपनाओं के नारे लगाते हैं ,सेमीनार करते हैं,विदेशों में हिन्दी का प्रचार करने जाते हैं,पर सत्तर सालों में उच्चशिक्षा में पढ़ी जाने वाली किताबों के हिन्दी संस्करण तैयार नहीं कर पाये हैं। तब हम सकते हैं कि जिसकी आवश्यकता है ,उसका निर्माण करना होगा और यही पुनर्निर्माण शैक्षिक अनुसंधान की श्रेणी में आता है।
यूँ हम भारतीय आज भी अपने श्रेष्ठ ज्ञान का दम्भ करते हैं और भारत में स्थापित मैकाले शिक्षा पद्धति को कोसते रहते हैं । पर प्रतिस्पर्धी होकर अन्य देशों से सीखने में रुचि कम रखते हैं,लेकिन ज्ञान के लाभों से लाभान्वित भी होना चाहते हैं। पर दम्भ द्वार तोड़ने में हिचकते हैं। सोचिए ! अगर मैकाले शिक्षा पद्वति से अगर भारतीय पढ़ना-लिखना सीख गये हैं तथा विकास की मुख्य धारा में खड़े हैं तो क्या बुरा है इसमें ? पढ़े- लिखे या अक्षर ज्ञान प्राप्त किए लोग अनपढ़ लोगों से तो बेहतर ही हैं। बहुसंख्यक जन समुदाय आजादी के सात दशक बाद भी निरक्षर है,क्या ये बात गौरव करने योग्य है ? एक भयंकर निराशा का क्षितिज पढ़े-लिखे लोगों की मानसिकता पर भी छा जाता है। देश के नागरिकों की यह दशा देखकर अब शिक्षा और उसके विस्तार के लिए अनुसंधान का सहारा लेने में ही समझदारी है।
अब यह भी अनुसंधान का विषय हो सकता है कि विकास की प्रक्रिया में हम आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी पीछे क्यों है? देश में संसाधनों की कमी तो है नहीं। काला धन अकूत संख्या में मिल जाता है,फिजूल खर्ची में भी हम सबसे आगे हैं। पर अनुसंधान के प्रोत्साहन पर हम बहुत पीछे हैं। उसका कारण है प्रेरक तत्वों की कमी और अन्वेषण में सरकारी अनुदान और आवश्यक साजो सामान की खरीदारी के लिए सरकार की निस्पृहता। इस लिए हमारे देश में अविष्कार न के बरावर हैं,जबकि विदेशियों के नाम अधिकांश अविष्कार हैं। जिससे वे अपनी तरक्की भी करते हैं और व्यापारिक आधिपत्य भी। हमें नहीं भूलना चाहिए कि व्यापार के माध्यम से ही अंग्रेज भारत में आये थे और आज भी अन्य देश हमारे बाजार पर कब्जा करके हमारी अर्थ व्यवस्था को कमजोर और अपनी को मजबूत कर रहे हैं।
अब हम बात करते हैं अनुसंधान की,जो कि एक छोटे से कार्य चाहे वह खाना बनाना हो या अन्य घरेलू कार्य ,सभी में जरूरी है। चाय बनाने जैसे कार्य में भी अनुसंधान के द्वारा ही उसके विविध स्वादों से हम परिचित हो गए हैं और ऐसे अनुसंधान हमारे व्यवसाय में सहायक होते हैं। हमारा आलू ,गेहूँ ,प्याज अधिक पैदावार होने पर सड़कों पर फैंक दिया जाता है जबकि अनुसंधान कर्ता उसको बीस गुना मंहगा उत्पाद बनाकर लाभ कमा लेते हैं। हमारे प्रथमिक उत्पाद भुने गेहूँ,जौ,ज्वार,चने, लाई आज विदेशियों द्वारा अच्छी पैकिंग में नवीनता और विविधता के साथ हमारी रसोई में स्थान पा चुके हैं लेकिन हम अपने परम्परगत आहार को भी भूलने लगे हैं।
इसलिए यदि विकास के मार्ग पर अग्रसर होना है तो अपना पूरा ध्यान अन्वेषी शिक्षा पर देना होगा। राजनीतिक लाभ लेने हेतु खाने की सुविधाएं देकर समाज में चेतना नहीं लायी जा सकती। अपितु इसके लिए प्रतिबद्ध होना पड़ेगा कि अशिक्षा को भारत से हटाना है और उसके लिए हर नागरिक को रोजगार की गारंटी मिलना आवश्यक है। जिससे कि वे अपने परिवार को सम्मान जनक ज़िन्दगी दे सकें और विकास की मुख्य धारा में शामिल हो सकें।
अतः पूर्वागृह रहित होकर पूरा ध्यान अनुसंधान परक शिक्षा पर देना होगा। जैसे कि:
शिक्षा में अनुसंधान से क्या लाभ होगा? इस प्रकार के प्रश्न अक्सर हमें आगे बढ़ने से रोकते हैं। तो आइए समझते हैं इसके लाभ और परिणाम के बारे में:
आज दुनिया में दूरियाँ मिटी हैं और सैकेंड्स में हम दूर दराज बैठे किसी भी व्यक्ति से सम्पर्क कर सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ये संसाधन सर्व सुलभ हैं। जिससे मनुष्य से मनुष्य की दूरी भी कम हुई है। वस्तुओं पर किसी का एकाधिकार नहीं हैं,जिससे समाज में दीनता-हीनता का वातावरण समाप्त हो रहा है ।
[ट्रेवर्स ने शिक्षा अनुसंधान को एक ऐसी क्रिया माना है जिसका उद्देश्य शिक्षा सम्बन्धी विषयों पर खोज करके ज्ञान का विकास एवं संगठन करना होता है।]
शिक्षा के विविध पहलुओं के सम्बन्ध में संगठित वैज्ञानिक ज्ञान पुंज का विकास अत्यंत आवश्यक है । क्योंकि उसी के आधार पर एक शिक्षक के लिए यह समझना आसान हो जाता है कि उसके विद्यार्थियों के लिए किस प्रकार के वातावरण और सीखने की पद्धति को सुनिश्चित किया जाए।
शिक्षा से सम्बन्धित अनेक विषय हैं, जैसे शिक्षा का इतिहास, शिक्षा का समाजशास्त्र ,शिक्षा का मनोविज्ञान, शिक्षा का दर्शन, शिक्षा विधियाँ और शिक्षा की तकनीक तथा अध्यापक एवं छात्र मूल्यांकन, मार्ग दर्शन, शिक्षा के आर्थिक आधार और मूलभूत समस्याएँ आदि । बदलते परिवेश और परिस्थितियों में वर्तमान ज्ञान के सत्यापन और वैधता परीक्षण की अनवरत आवश्यकता रही है । इस प्रकार शिक्षा अनुसंधान वर्तमान और पूर्व स्थित ज्ञान के परीक्षण और सत्यापन तथा नये ज्ञान को अग्रसारित करने की प्रक्रिया है । शिक्षा सम्बन्धित अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर और शिक्षा की समस्याओं का निराकरण भी इसके अन्तर्गत आता है ।
'यूनेस्को के एक प्रकाशन के अनुसार शिक्षा अनुसंधान से तात्पर्य उन सब प्रयासों से है, जो राज्य अथवा व्यक्ति या संस्थाओं द्वारा किए जाते हैं और जिनका उद्देश्य शैक्षिक विधियों एवं शैक्षिक कार्यों में सुधार लाना होता है।'
ऐसा माना जाता है कि यदि शिक्षा की प्रक्रिया सशक्त एवं प्रभावशाली हो तो व्यक्ति में उसके द्वारा वांछित परिवर्तन मसलन ,सामाजिक विकास और जीवन को उन्नतशील दृष्टिकोण में ढालने का कार्य किया जा सकता है ।
पश्चिम में सबसे लोकप्रिय अनुसंधान आधारित शिक्षा सीखने का नया तरीका चलन में है और आने वाले समय में यह भारत में भी प्रचलित होगा ।
श्री सविता श्रीकून कहते हैं...
"इक्कीसवीं शताब्दी में आवश्यक कौशल का निर्माण करने के लिए अनुसंधान आधारित शिक्षा सीखने की प्रक्रिया का एक हिस्सा होगा ।"
यहाँ छात्र निर्देशित आत्म-निरीक्षण से जुड़े होते हैं । इन कार्यक्रमों को बुद्धि को बढ़ाने,विश्लेषण तथा समस्या सुलझाने के कौशल विकसित करने और छात्रों को कैरियर के लिए तैयार करने के लिए विशेष रूप से डिजाइन किया गया है ।किए गए शोध, संचालन और विधियों, सटीक प्रश्न बनाने और प्रसंस्करण तथा अनुसंधान प्रक्रिया की निगरानी जैसे कौशल को आसान बनाने में मदद करते हैं ।छात्र अनिश्चितता का सामना, आजादी, टीम वर्क और संगठनात्मक कौशल में दक्षता प्राप्त करते हैं ।
यह एक विशिष्ट पाठ्यक्रम है जो चार विशिष्ट विषयों -विज्ञान, प्रोद्योगिकी, इंजीनियरिंग, और गणित में छात्रों को शिक्षित करने के विचार पर आधारित है । यहाँ छात्र अकादमिक शिक्षा को कार्यस्थल शिक्षा के साथ जोड़ने, संचार करने, समूह कार्य, बातचीत और सार्वजनिक जुड़ाव जैसे कौशल विकसित करने में सक्षम होते हैं ।
शोध आधारित शिक्षण विचारों के आदान-प्रदान और पारस्परिक विकास के लिए फोकस समूह बनाकर महीने में एक बार व्याख्याता ठोस उदाहरणों का उपयोग करके इस शिक्षण तकनीक की सम्भावनाओं और परेशानियों पर विमर्श करते हैं ।
दुनिया के सभी देशों में शिक्षा प्रासंगिक शिक्षा की ओर बढ़ रही है। शिक्षण और शिक्षा का यह रूप व्याख्याताओं और छात्रों द्वारा नये ज्ञान के संयुक्त अधिग्रहण पर केन्द्रित है। सीखने की इस प्रक्रिया में छात्रों से प्रश्न पूछने के लिए कहा जाएगा और शिक्षकों को उत्तर देने में अपनी सहभागिता करनी होगी।
हिन्दी में संभवतः सर्वप्रथम श्री कामता प्रसाद पांडे ने 1965 में शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान नाम की पुस्तक लिखी थी। उनके अनुसार शिक्षण संस्थाओं और शैक्षणिक अनुसंधान कर्ताओं के बीच एक ऐसी खाई सी बन गयी है,जिसे पाटना प्रजातन्त्र की रक्षा हेतु नितान्त आवश्यक हो गया है। प्रजातन्त्रात्मक राष्ट्र के विद्यालयों को सतत विकासशील बनाए रखकर ही प्रजातन्त्र को जीवित रखा जा सकता है। इसके लिए विद्यालयों के प्रधानाचार्य, व्यवस्थापकों,अध्यापकों तथा निरीक्षकों को चाहिए कि वे अपनी जिम्मेदारियों को वैज्ञानिक दृष्टि से समझने की चेष्टा करें । वह अपनी शैक्षणिक समस्याओं का हल स्वयं ढूंढें तथा सदैव इस बात का प्रयत्न करें कि विद्यालय निरन्तर प्रगति के नवीन चिन्हों का सृजन करें। शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान इसी तथ्य की पुष्टि हेतु विकसित हुआ है। इस प्रकार क्रियात्मक अनुसंधान को संक्षिप्त में ऐसे कह सकते हैं-
"जब शिक्षक अपनी कक्षागत समस्या को स्वयं वैज्ञानिक ढंग से हल करता है, वह क्रियात्मक अनुसंधान कहलाता है।"
ऐसा माना जाता है कि शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान का विचार अमेरिका के शिक्षाशास्त्रियों द्वारा लाया गया। जिनमें प्रोफेसर एम कोरे को क्रियात्मक अनुसंधान का प्रवर्तक माना जाता है। उनके अनुसार "क्रियात्मक शोध से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है, जिसके द्वारा अभ्यास कर्ता अपने निर्णय और क्रियाओं के मार्गदर्शन,संशोधन तथा मूल्यांकन करने के लिए अपनी समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने का प्रयास करते हैं।”
यही इसका मूल मन्त्र है।1953 में प्रो.कोरे की एक किताब आयी "To Improve School Practice "उन्होंने लिखा ,मुझे शिक्षा जगत के अनुसंधानों पर बहुत विश्वास था। परन्तु अब मेरा भ्रम टूट रहा है। यह अनुसंधान उन्हीं को करना चाहिए जिन्हें उनके परिणाम के आधार पर परिवर्तन लाना है और ये On The Spot किए जाते हैं। स्कूलों की कार्यप्रणाली में सुधार एवं परिवर्तन लाने की यह एक महत्वपूर्ण विधि है। जिसके अन्तर्गत प्रधानाध्यापक एवं शिक्षक अपनी शिक्षण समस्याओं ,बच्चों के सीखने की समस्याओं, विद्यालयों की समस्याओं,बच्चों के उच्चारण दोष,वाचन दोष,दो वर्णों में भेद न कर पाना जैसे(श और स),सूचनाओं का संकलन, उपस्थिति आदि का वैज्ञानिक अध्ययन एवं निवारण किया जाता है।
शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान का महत्व निम्न लिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है।
दुनिया तेजी से बदल रही है,सीखने समझने के हालात भी बदले हैं। आज के बच्चे जन्म के कुछ महीने बाद ही नयी-नयी तकनीक से परिचित होने लगे हैं। ऐसे हालात में आज की पीढ़ी को अपने दादा,नाना की पीढ़ी से आगे माना जा सकता है और यह परिवर्तन पीढ़ी दर पीढ़ी देखने को मिल रहा है। इस दौर में वह शिक्षा पद्धति कामयाब नहीं हो सकती जो कि स्थापित है। अब उसमें समयानुसार परीवर्तन लाना होगा। यह परिवर्तन पुरानी पीढ़ी को असमंजस में डाल सकता है ,लेकिन नयी पीढ़ी तो पहले ही इन सब परिवर्तनों की अभ्यस्त हो चुकी है। उसमें समयानुसार शीघ्रता से नवाचार को ग्रहण करती है और समय के साथ तकनीक से तालमेल बना लेती है। भारत में जब कम्प्यूटर आये थे तब पुरानी कार्य पद्धति से कार्य करने वाले लोग बहुत असहज महसूस करते थे और बहुत सी हानियाँ बताते थे । लेकिन आज सभी नयी-नयी तकनीक के साथ काम करना पसंद करते हैं और चीजों को नये नजरिये से देखते हैं और उनके मन में उसके प्रति कोई पूर्वाग्रह भी नहीं है,क्यों कि आज के बच्चों ने दुनिया को ऐसा ही देखा है,जैसी कि वह आज है,पहले जैसी नहीं।
नवोन्मेष सतत चलने वाली प्रक्रिया है। शिक्षा व्यक्तित्व विकास का मूलाधार है,अतः उसमें स्थापित व्यवस्था के विपरीत जाकर नवीनतम प्रयोग करने होंगे। जिससे पुरानी मान्यताएं और लोग प्रभावित होंगे,लेकिन अब यह अवश्यम्भावी हो गया है।
"दुनिया तेजी से बदल रही है,अब बड़े छोटों को हरा नहीं पाएंगे,अब तेज गति धीमे को हराएगी।" - (रोबोट मर्डोक)
भारत जो कि विश्व गुरू बनने का सपना देख रहा है। यदि यह सपना पूरा करना है तो हमें शिक्षापद्धति में नवोन्मेष लाना ही होगा। क्योंकि शिक्षा परिवर्तन का एक सशक्त अस्त्र है। आधुनिक युग में यदि परम्परागत सोच और विचारों को अपनाते रहेंगे तो यह छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ होगा। साथ ही देश की विकासोन्मुख धारा में अवरोध भी आते रहेंगे। नवोन्मेष कोई नया कार्य करना मात्र नहीं है,बल्कि कार्य को नये ढंग से करना ही नवोन्मेष कहलाता है।
आज सभी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि यदि विद्यार्थियों को नवीन और रोचक विधियों से अध्ययन कराया जाएगा तो न केवल उनमें पढ़ाई के प्रति लगाव होगा अपितु वह पहले से बेहतर सीखेंगे और उसके सुखद परिणाम भी आएंगे।
परिवर्तन शाश्वत है और बदलाव कहीं भी और किसी भी क्षेत्र में हो वह स्फूर्ति, चेतना, ऊर्जा और नवीनता लाता है। इसका अन्दाजा हम घर की सज्जा में थोड़ा परिवर्तन करके ही महसूस करते हैं । इसी प्रकार निश्चित ढर्रे से अलग किताबों से इतर व्यावहारिक धरातल पर जब बच्चों को सिखाते हैं तो वे अधिक सक्रियता से कार्य करते हैं । बच्चा पाठ पढ़ने की अपेक्षा रचनात्मक कार्यों से अधिक तेजी से और अपने अनुभव से सीखता है। यह रचनात्मकता उसमें तभी आ सकती है, जब उसे अध्यापकों द्वारा सिखाया जायेगा । विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप स्कूल में होने से बच्चों की मानसिक, शारीरिक और सामाजिक सक्रियता बढ़ती है, उसमें आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के गुण पैदा होते हैं । विद्यालयों का वातावरण ऐसा होना चाहिए कि कक्षा में प्रवेश करते ही उन्हें सकारात्मक ऊर्जा का भान हो और अध्यापक बच्चे के मनोविज्ञान को समझने में समर्थ हों। अतः शिक्षकों की भी ट्रेनिंग होनी चाहिए ।
नवाचार का प्रयोग अब छोटे बच्चों के स्कूलों में देखने को मिल रहा है । उन्हें प्रतिदिन नयी जानकारी से अवगत कराया जाता है । मसलन अब उन्हें क से कबूतर न केवल पढ़ाया जाता है, अपितु सचमुच कबूतर दिखाते हैं, कि कैसे वे अपने रहने का स्थान बनाते हैं और अण्डे रखते हैं, फिर उनसे कैसे बच्चे निकलते हैं और उनके भोजन क्या है ? यह सब उन्हें देखने को मिलता है तो वे उसे याद रखते हैं । ऐसे ही बागवानी के लिए छोटी सी जगह में मिट्टी भर कर उसमें फलों, सब्जियों के बीज डलवा कर उसमें पानी देने, घास निकालने जैसे कार्य करवाते हैं जो कि बच्चे खेल खेल में ही सीख जाते हैं । सफाई का महत्व समझाने के लिए जगह-जगह कूड़ेदान रख कर उसमें कागज और अन्य कचरा डालने का अभ्यास करवाते हैं। हाथ धोने की आदत ,अपने काम खुद करने की आदत और अभ्यास से बच्चों में अच्छी आदतें शुरू से ही उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन जाती हैं और उनमें आत्मनिर्भरता आ जाती है । काम करने का रुझान भी विकसित होता है ।
नवान्मेषी शिक्षा को जीवन्त और समयानुकूल बनाने के लिए उसकी विषयवस्तु और शिक्षण विधियों में नवीनता लाना आवश्यक हो गया है । जैसे कि मूल्यांकन के क्षेत्र में नवाचार शुरू हुआ और रटने की पद्धति को समाप्त करने के लिए सेमेस्टर प्रणाली ,ग्रेडिंग प्रणाली, शिक्षण डायरी जैसे अनेक नये प्रयोग शुरू किए गये हैं। दीवार चित्र,समाचार, पुस्तकालय, बालअखबार प्रकाशन , क्राफ्ट आदि नवाचार का ही हिस्सा हैं ।
भारत सरकार द्वारा स्थापित संस्थान "National Council Of Educational Research and Training" "राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद " जो कि शिक्षा से जुड़े मामलों पर केंद्रीय और प्रान्तीय सरकारों को सलाह देने के उद्देश्य से स्थापित की गयी है। इसका मुख्य कार्य शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय को विशेषकर स्कूली शिक्षा के सम्बन्ध में नीति निर्धारण करने का है। इसके अलावा शिक्षा के समूचे क्षेत्र में शोध कार्यों को प्रोत्साहित करना, उच्च शिक्षा में प्रशिक्षण को सहयोग करना, स्कूल शिक्षा पद्धति में लाये गये बदलाव और विकास को लागू करना । अपने कार्य हेतु प्रकाशन सामग्री और अन्य वस्तुओं के प्रचार की दिशा में कार्य करना, साथ ही शिक्षा में गुणवत्ता लाना ही इस काउन्सिल का मुख्य उद्देश्य है ।
इसके अलावा भी अन्य संस्थान भी एन सी ई आर टी के सहयोगी के रूप में कार्यरत हैं, इनमें प्रमुख हैं:
उक्त समस्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि विकासशील भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए शिक्षा में हर स्तर पर पर्याप्त सुधार और नवीन अन्वेषण की अनिवार्य आवश्यकता है। गरीबी के स्तर पर और उसके आस-पास के आर्थिक स्तर पर संघर्ष कर रहे सभी भारतीय परिवारों को कम से कम हाईस्कूल स्तर तक गुणवत्ता परक और रोजगार परक, मातृभाषा के साथ-साथ अँग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान करना केन्द्र एवं राज्य सरकारों का कर्तव्य होना चाहिए और इसे संवैधानिक अधिकार के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। जर्मनी ,इटली ,स्वीडन ,ब्रिटेन जैसे सभी विकसित राष्ट्रों में हाईस्कूल स्तर तक की शिक्षा सभी नागरिकों को अनिवार्य रूप से और निःशुल्क उपलब्ध करायी जाती है। भारतीय संविधान में इस आशय के शिक्षा संबन्धी संशोधन की तुरन्त आवश्यकता है। यह खेद की बात है कि स्वतन्त्रता के सत्तर साल बाद भी भारत के ग्रमीण विद्यालय एवं सी बी एस सी बोर्ड के विद्यालयों का पाठ्यक्रम और पढ़ाई का माध्यम अलग अलग है । इस भेदभाव के कारण ग्रामीण छात्र अँग्रेजी माध्यम से पढ़ने वाले अन्य छात्रों से प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाते हैं। अतःबिना पर्याप्त सुधारों के सम्पूर्ण भारत को विकसित करने का स्वप्न अधूरा ही रहेगा।
स्वलिखित, मौलिक।
तथ्य एवं परिभाषाएं,गूगल सर्च से साभार।