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"सुनो तुम्हें प्रेम बुलाता है" कहानी शुरू होती है, उपन्यास की लेखिका के पास ऑडिटोरियम के मैनेजर मिस्टर मेहरा के फोन काॅल से। जिसमें इस उपन्यास का विमोचन होना है... मिस्टर मेहरा आडीटोरियम के मैनेजर बताते हैं कि उनके पास एक शख्स आए हैं जो इस उपन्यास की लेखिका की लेखनी के स्वयं को प्रशंसक बता रहे हैं। उन्होंने बताया कि सभी सीटें बुक हो चुकी हैं। आखिरी पंक्ति की जो एक सीट आप खाली रखती हैं वही बची है। अगर वह कहें तो वे उन्हें दे दें । नायिका ईशाना थोड़ी देर चुप रहती है। फिर कहती है, "ठीक है,आप उन्हें टिकट दे दीजिए।"

फिर वह एक तस्वीर के समक्ष जिससे वह बातें कर रही थी । कहती है, हमेशा आपके लिए रिजर्व रखी गयी सीट खाली ही रहती है। मगर हो सकता है इस बार आपका मन मेरे साथ मंच पर बैठने का रहा हो।

यहाँ पाठक सोच में पड़ जाता है,आखिर कौन है वह शख्स ? सीट किसके लिए रिजर्व रखी जाती है ? यही जिज्ञासा पाठक को आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करती है।

कहानी छब्बीस भागों में विभक्त है....

  • एक नयी शुरुआत
  • अतीत की यात्रा
  • निखरता रिश्ता
  • थोड़े आंसू थोड़ी खुशी
  • लक्ष्य पर नजर
  • एहसास कुछ नया सा
  • अनोखा नाम और जन्मदिन का उपहार
  • नए रास्ते पर बढ़ते कदम
  • दूरियों में नजदीकियां
  • अप्रत्याशित खबर लाई मुस्कान
  • नया रंग नहीं उमंग
  • शहनाई की धुन
  • यादें
  • कभी रुकी जिंदगी फिर चली
  • नई किताब पुरानी दिल की पुकार
  • लौट आया प्रेम
  • जुड़ते हुए नए रिश्ते
  • भविष्य की रूपरेखा
  • जिम्मेदारियों में लिपटी खुशियां
  • प्रेम का प्रथम स्पर्श
  • अपनों के पास
  • सहेलियों का बदला रिश्ता
  • संग संग चलेंगे
  • गठबंधन

इस प्रकार यह 245 पृष्ठ का लम्बा उपन्यास है। इसमें देश की , अपने गांव की सुगंध है तो विदेशी भूमि पर भारतीयता के दर्शन हैं। शुरआती पृष्ठ में नायिका ईशाना अपने हाथों में एक तस्वीर लिए हुए अक्सर ही बातें किया करती है। आज जब वह एक पाठक देवदत्त जी के ईमेल को देखती है तो एक प्रश्न पर उसकी नजर ठहर जाती है। "इस किताब को लिखने के पीछे आपका उद्देश्य क्या है ?" नायिका तस्वीर से ही पूछती है, कहिए इस प्रश्न का क्या उत्तर दूं।"

आगे की कहानी इतनी तरलता से आगे बढ़ती जाती है कि पाठक उसके साथ बहता चला जाता है। जैसे पर्वत से उतरती स्वच्छ जलधारा, जिसमें पाकीज़गी के साथ स्वाभाविक चंचलता होती है, साथ ही निरंतरता भी। कुछ तरुणावस्था के स्वाभाविक स्पंदन, एहसास... जैसे एक नदी महसूस करती है कब तक इन पत्थरों के बीच बहती रहूँ ? कहीं वनस्पतियां भी तरोताजा करने के लिए होनी चाहिए, क्षणिक ठहराव भी तो चाहिए होता है। बस ऐसे ही पाठक उपन्यास की नदी में जब उतरता है तो वह भूल जाता है कि वह किसी और की कहानी में डूब रहा है बल्कि वह स्वयं इसकी नायिका या नायक बन जाता है उपन्यास के नायक की तरह गाने लगता है ....हमें तुमसे प्यार कितना यह हम नहीं जानते मगर जी नहीं सकते तुम्हारे बिना...

हाँ ! मुझ जैसी उम्र के 60 दशक पार कर चुकी स्त्री भी अपने घर की मुंडेर से झांकती हुई अपने अतीत के पन्ने पलटने लगती है और उसे अपने 18 साल की उम्र के दृश्य.... जिसमें है अनदेखा भविष्य, मनचाही ख्वाहिशें, निश्चल हंसी... यकीनन यह कहानी फिल्मों की तरह हाथों में पुस्तक लिए पाठक को नायिका-नायिका बना देती है जो अपनी युवावस्था में पहुंच जाते हैं । ऐसा है इस उपन्यास का जादू सचमुच अगर उम्र हम पर हावी होने लगी है तो इस उपन्यास सुनो तुम्हें प्रेम बुलाता है को जरूर पढ़ना चाहिए।

कभी हम नदिया के पार वाली अल्हण नायिका की तरह गाने लगेंगे,कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया...

निष्कर्ष यह है कि पुस्तक में आदर्श परिवार हैं, मित्र हैं, जिम्मेदारिया , आत्मसम्मान, आत्मनिर्भरता आदर्श,समर्पण,प्रेम के मर्यादित क्षण हैं। हर पाठक की जुवान से अंतत: यह कविता स्वत: प्रस्फुटित होने लगेगी, " सुनो तुम्हें प्रेम बुलाता है/ इस पुकार को मत करो अनसुना/ होते हैं वह बहुत किस्मत वाले/ जिनके हिस्से में /यह खुशकिस्मती आती है /वरना दुनिया में न जाने कितने ही लोग ऐसे/ जिनके दिल की जमीन /प्रेम की नाजुक कोंपल को/ उपजाने की आस लिए हुए/सूखकर बंजर हो जाती है......

अंत में यह कहना चाहूंगी कि पुस्तक टंकण त्रुटि से रहित है। अक्षर बहुत अच्छे हैं। किसी पुस्तक का त्रुटि मुक्त होना बड़ी उपलब्धि होती है। कहानी, भाषा- शैली उत्कृष्ट है। यहाँ कुछ कविताएं भी पढ़ने को मिलेंगी। साफ सुथरा लेखन पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। क्यों कि एक लेखक का दायित्व है कि वह अपने समाज को दिशा दे और अपनी संस्कृति, संस्कारों की छाप पाठकों पर छोड़े। लेखिका शिखा श्रीवास्तव जी ने कम उम्र में ही यह जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। मुझे तो यह अपनी जैसी लगी क्योंकि इस कहानी में लिखी गयी एक लाइन अपने पिता जी से कभी मुझे भी सुनने को मिलती थी," खुश रहो आबाद रहो , यहां रहो या फरुखाबाद रहो।"

पति देव कहते थे, "रहने दो मुझको कमला नगर तुम चाहो तो फरुखाबाद रहो। " बहुत से पाठक इस उपन्यास में अपना अक्स देखेंगे। मुझे तो यही लगता है.... इन्हीं शब्दों के साथ मैं लेखिका शिखा श्रीवास्तव जी, अष्टदल समूह का हार्दिक धन्यवाद करती हूँ , जिन्होंने मुझे यह पुस्तक पुरस्कार स्वरूप भेंट की है। लेखिका के आगे के साहित्यिक सफर के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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