Image by Myriams-Fotos from Pixabay
सूर्य प्रकृति की आदिम शक्तियों में एक हैं जिन्हें मनुष्य ने देवत्व प्रदान किया।यही कारण है कि सूर्य दुनिया के सभी प्राचीन सभ्यताओं में पूजे गए।जब हम वेद और पाश्चात्य जगत के इतिहासों का अध्ययन करते हैं,तो पाते हैं कि न सिर्फ भारतीय समाज अपितु विश्व की सभी संस्कृतियों में देवताओं को पूजा जाता रहा है। अध्ययन की माने तो ईसा से 2000 वर्ष पूर्व बेबिलोनिया की सभ्यता में 3600 देवता पूजनीय थे।
विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में जो देवता सबसे ज्यादा पूजे गए और सभी जगह पूजे गए, वे हैं सूर्य! सूर्य जिन्हें अदिति के पुत्र होने की वजह से आदित्य भी संबोधित किया जाता है। चाहे सुमेरियन सभ्यता(2300-2150 ईसा पूर्व) हो चाहे ग्रीस(800-500 ईसा पूर्व)की। सैन्धव सभ्यता हो या वैदिक, सूर्य सभी सभ्यताओं में प्रकाशित हुए।
जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है कि विश्व की कोई भी ऐसी सभ्यता नहीं जहाँ सूर्य नहीं पूजे गए। अलग-अलग सभ्यताओं में इनका नामकरण अलग-अलग था।सूर्य के लिए लैटिन में ‘सो’ ग्रीस में हेलियोस, मिस्र में रा/रे/होरस/एटन और भारतीय भाषाओं में सूर्य, दिनकर,दिवाकर, प्रभाकर आदि नाम हैं।
विश्व की प्राचीन सुमेरियन सभ्यता में सूर्य को’ऊतु’ नाम से पूजा जाता था। ईसा पूर्व 2000 में बेबिलोनिया की सभ्यता में सूर्य ‘शमश’ नाम से पूजे जाते थे। सुमेरियन सभ्यता के समकालीन मिस्त्र की सभ्यता में सूर्य का बहुत ही महत्व था। जहाँ ये रे/रा/होरस/एटन और अन्य नामों से पूजे गए। मिस्र में सूर्य को सृष्टिकर्ता देवता माना जाता था और फ़राओ को सूर्यदेव का प्रतिनिधि। इस सभ्यता के अलग-अलग राजवंशों में पूजनीय देवताओं की श्रेणी में सूर्य का स्थान ऊपर-नीचे होता रहा। मिस्र के राजवंशों में सूर्य का सबसे अधिक बोल-बाला रहा 18वें राजवंश में। 1375 ईसा पूर्व मिस्र के 18वें राजवंश के फ़राओ अमेनहेतेप/अखनाटन ने सभी देवताओं के पूजा पर विराम लगा दिया और सिर्फ एटन की पूजा का प्रचार किया।उसने एटन की प्रसंशा में अपना नाम भी अखनाटन कर लिया।ये एटन कोई और नहीं सूर्य देव रे ही थे।उसने एटन की कल्पना भौतिक सूर्य के रुप में ना करके उसकी जीवनदायिनी ऊष्मा और प्रकाश के रूप में की। अखनाटन सूर्य को न सिर्फ मिस्र बल्कि पूरे विश्व का एक मात्र निराकार दैवी शक्ति मानता था। सूर्य के निराकार होने की वजह से अखनाटन ने उनकी कोई मूर्ति नहीं बनाई।उसने सूर्य के लिए प्रतीकात्मक एक चक्र बनाया जिसमे सूर्य के किरणों को दिखाया जाता था, जिसके दोनों सिरे पर हाथ बनी होती थी। उसने सूर्य के निम्मित पूजा के समय को सुबह-शाम में निर्धारित कर दिया था। हालांकि उसके बाद उसके पुत्र और चर्चित फ़राओ ने इस प्रक्रिया पर रोक लगा दी और सब कुछ पूर्ववत कर दिया।
ईजियन सभ्यता के पवित्र चिन्हों में सूर्य का स्थान था। 1600 शताब्दी ईसा पूर्व हित्ती सभ्यता में सूर्य पूजनीय थे जहाँ उन्हें सत्य और न्याय का देवता मान ‘देवराज’ नाम से पूजा जाता था। हित्ती सम्राट सूर्य की उपाधि ग्रहण कर स्वयं को धन्य मानते थे। कसाइट सभ्यता में भी सूर्य ‘शमश’ नाम से ही पूजे जाते थे। प्राचीन ग्रीस की सभ्यता में सूर्य को ‘अपोलो’ नाम से पूजा जाता था। असीरियन (ईसा पूर्व 1400-500) सभ्यता में सूर्य राष्ट्रीय देवता के रुप में पूजे जाते थे।जहां सूर्य चक्र पवित्र चिन्ह के रुप में मान्य था जिसके बीच मे देवता असुर को चित्रित किया जाता था। सूर्य चक्र न सिर्फ प्राचीन मिस्र, असीरिया या सुमेरियन सभ्यताओं के केंद्र में थे बल्कि ये प्राचीन भारतीय सभ्यताओं में भी दिखते हैं।जिसका प्रमाण ओड़िसा का सूर्य मंदिर अवस्थित सूर्य चक्र है। जैन धर्म मे में सूर्य चक्र का बड़ा महत्व है है।जैन धर्मावलंबी सूर्य चक्र के सम्मुख होकर ही ध्यान लगाते हैं। सूर्य चक्र ध्यान केंद्रीकरण में सहायक माना जाता है। प्राचीन ईरान(2000 ईसा पूर्व) में सूर्य की पूजा ‘मित्र’ तथा ‘अर्यमन’ नाम से होती थी। सिकन्दर के अभियानों के बाद के बाद सूर्य की उपासना सीरिया में भी पनपी। मित्र की उपासना ईरान से रोम तक पहुँची, यही कारण था कि अनेक रोमन सम्राट अपने नाम मे ‘मिथ्रादतेस’ उपनाम धारण करते थे।
भारत में प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य की उपस्थिति के कई साक्ष्य वेदों में मिलते हैं जहां उन्हें पूजने का विधान और उनके उच्च महत्व को सन्दर्भित किया गया है। वैदिक सभ्यता से पहले सैन्धव सभ्यता के इतिहासों से अभी तक कोई पुष्ट साक्ष्य नहीं प्राप्त हुए हैं जो इसका निर्धारण कर सकें कि सिंधु घाटी सभ्यता के लोग सूर्योपासना में विश्वास रखते थे। वैसे कई इतिहासवेत्ताओं ने ऐसा माना है कि सिंधु सभ्यता के लोग सूर्य को पूजते थे। इसको माना भी जा सकता है क्योंकि सिंधु घाटी और सुमेरियन सभ्यताओं में व्यापारिक संबंध था ऐसा कई इतिहासकारों का मानना है।और सुमेरियन सभ्यता में सूर्य पूजनीय थे।
भारतीय राजवंशों का अध्ययन सूर्योपासना की दृष्टि से किया जाय तो कुषाणवंशीय राजा कनिष्क द्वितीय शताब्दी का काल ही वह समय दिखता है जब सूर्य की पूजा मूर्तियों के रूप में होती दिखाई देती है ।अभी तक हुए अध्ययनों में ना सिर्फ कनिष्क कालीन सूर्य मूर्तियाँ मिली हैं अपितु प्राप्त स्वर्ण मुद्राओं पर भी यूनानी सूर्य देवता ‘हेलियोन’ को उकेरा गया है। जहाँ उन्हें यूनानी विश्वाशों के आधार पर चित्रित किया गया है।सूर्य को ईरानी राजसी वेशभूषा में कोट पहने दिखाया गया है,उनकी दाढ़ी है और कंधे पर ज्वालाएँ निकलती दिखाई पड़ती है। भारत में पहले सूर्य मंदिर की स्थापना पहले मुल्तान में हुई थी जिसे कृष्ण पुत्र साम्ब ने बनाया था| अपने अध्ययन में भंडारकर ने इसकी पुष्टि की है। ख़ुद कनिष्क बहुत बड़ा सूर्य भक्त था और उसने अपने समय में कई सूर्य मंदिर बनाए। दक्षिणी राजस्थान के भीनमाल के जगत स्वामी सुर्यमंदिर में जो सुर्यमूर्ति है वो भी कुषाण के समय की ही है। कुषाण काल में मथुरा ईरानी/शाक्यद्विपीय मग ब्राम्हणों के लिए सूर्योपासना का प्रमुख केंद्र था। कुषाण कालीन सुर्यमुर्तियों के मिर्माण कला पर ‘शको’ और ‘मग’ ब्राम्हणों का भी प्रभाव था,ऐसा माना जाता है। मथुरा संग्रहालय में कुषाण कालीन सूर्य मूर्तियाँ हैं जिसमे सूर्य भारी कोट पहने,चार अश्व चालित रथ पर बैठे हैं।
दाएं हाथ में कमल कलिका और बाएं हाथ में खंडित खड्ग है।मौर्य–शुंग कालीन मूर्तियाँ तो नहीं प्राप्त होती है लेकिन तत्कालीन मृन्मुर्तियों तथा पात्रों पर सूर्य के मानव रूप में चित्रण अवश्य प्राप्त होता है,जिसमे वो चार अश्वों पर सवार हैं। ईरानी परम्परा और धार्मिक आख्यानों में सूर्य रथ चार अश्वों से ही संचालित माना गया है ।गुप्तकाल में भी सूर्योपासना का चलन था और सूर्य मूर्तियाँ बनाई जाती थी|इस समय भी मूर्तियाँ ईरानी परंपरा में ही बनती थी। भारत में न केवल उत्तर अपितु पश्चिमोत्तर भारत में भी सूर्य उपासना के अनेक केंद्र थे । यही कारण है कि मध्यकालीन पश्चिमोत्तर भारत से भी कई सूर्य प्रतिमाएं प्राप्त होते चले गए। एलोरा (आठवीं शताब्दी), मोढेरा(ग्यारहवी शताब्दी) तथा प्रतिहार शासकों के काल में अनेक सूर्य प्रतिमा बनाए गए। दक्षिणी राजस्थान के भीनमाल अवस्थित जगत स्वामी सूर्य मंदिर प्रतिहारों के बनाए माने जाते हैं| गुजरात के मंदिरों में रखी चालुक्य कालीन मूर्तियाँ उल्लेखनीय है। बिहार और बंगाल से पाल और सेन कालीन अनेक स्थानक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। खजुराहों से मिली अनेक प्रतिमाएं ये दर्शाती है कि भारत में सभी कालों में सूर्य का महत्त्व उच्च ही रहा है ।और वे हमेशा पूजनीय रहे हैं ।
अनेक जगहों से पूर्व-मध्यकालीन प्रतिमाएं प्राप्त हुए हैं। मध्ययुगीन भारत में सूर्योपासना चरम पर था यही कारण है कि अनेक सूर्य मंदिर इस काल में भी बने। 309 ई. से 366 ई. के बीच की एक सूर्य प्रतिमा अफगानिस्तान के ‘खेरखा नेह’ नामक स्थान से प्राप्त हुई। प्राप्त प्रतिमा में सूर्य अपने सारथि अरुण के द्वारा चालित रथ में बैठे हैं।
सूर्य की प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व की मूर्तियाँ बोधगया से भी पाई गई है जहाँ वे चार अश्वो द्वारा चालित रथ में दर्शाए गए हैं। कुषाणकालीन प्रतिमाओं पर ईरान और शक का प्रभाव दिखाई पड़ता है जो गुप्तकाल तक दिखता है। सूर्य का प्राचीनतम अंकन बोधगया के एक वेदिका स्तम्भ पर किया मिलता है जिसमे वे धोती पहने दर्शाए गए हैं।
मिथिला से भी सूर्य की कई प्राचीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनका काल 11 वीं -12 वीं शताब्दी आसपास है| भारतीय प्राचीन राजवंशों में हुण शासक तोरमाण और मिहिर कुल सूर्य उपासक थे। थानेश्वर के हर्षवर्धन,उसके पिता प्रभाकरवर्धन,पितामह आदित्यवर्धन और प्रपितामह राज्यवर्धन जैसे शासक भी सूर्य उपासक थे।
भारतीय वेद-पुराणों में सूर्य संध्या और छाया के पति ,यम,यमी और शनि के पिता और अदिति के पुत्र हैं। नव ग्रहों में सूर्य हीं श्रेष्ठ हैं। पुरे भारत खंड में पंच प्रमुख देवताओं में जीवन और प्रकाशदायिनी सूर्य को भी रखा गया है ।
ॐ आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवं
पंच्दैव्त्य मित्युक्तम सर्वकर्मसु पूजयेत ।।
ऋग्वेद में सूर्य को शक्तिशाली और सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में स्तुत्य माना गया है। भारतीय परिपेक्ष्य में और संभवतः प्राचीनतम सभ्यताओं में सूर्य के सन्दर्भ में अश्वो का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में आया है।सूर्य वैदिक काल से ही भारतीय आदिम संस्कृति में प्रकृति देवता के रूप में पूजनीय रहें हैं । सौरपुराण में सूर्य हीं सृष्टिकर्ता और सभी देवों के देव बताए गए हैं।
भारतीय ग्रंथों जैसे वृहत्संहिता(67 /46-48), विष्णु धर्मोत्तर पुराण (2.8.67) अग्निपुराण, मत्स्यपुराण, विश्वकर्मशिल्प, अपरातपृच्छा आदि में सूर्य का चर्च हुआ है,जहाँ सूर्य सात अश्वों के साथ व्यक्त किए गए हैं। भारतीय समाज में ना सिर्फ हिन्दू अपितु बौद्ध और जैन धर्म में भी सूर्य महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में देखे जा सकते हैं । बौद्ध धर्म में इन्हें बुद्ध का भाई माना गया है। बौध धर्मावलम्बियों की सम्पूर्ण आराधना का आधार हीं सूर्य चक्र है। हुए अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि बौद्ध धर्मावलम्बी सूर्य चक्र के सम्मुख बैठ कर हीं तांत्रिक सिद्धियाँ करते थे। भारतीय इतिहास पुरुष राम को सूर्य के वंश का ही माना जाता है,सूर्यवंशी पुरुषोत्तम राम इसीलिए उनकी उपाधि है। सूर्य को भारतीय श्रुति ग्रंथों में प्राण कहा गया है-‘आदित्याः प्राणः’(छान्दोग्य उपनिषद,3.16.5 )याज्ञवल्क्य स्मृति में भी नवग्रहों में सूर्य देवता के पुजने का चर्च हुआ है। सूर्य को वेदों और अन्य ग्रथों में मित्र भी कहा गया है। तैतरीय(1 /7/10/1) में कहा गया है-जहाँ मित्र रहते हैं वहां दिन होता है । “मैत्रं वा अहः”। शतपथ ब्राम्हण (4/3/1/26) में सूर्य को विश्वदेवा कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद में सूर्य को ब्रम्ह कहा गया है, (“आदित्यो ब्रम्हनेती”)। ऋग्वेद में सूर्य को स्थावर-जंगम की आत्मा कहा गया है|
ऋग्वेद के ही एक श्लोक में कहा गया है कि पूषा,त्वष्टा,धाता,विधाता,सविता,मित्र, वरुण,आदित्य,शुक्र,विष्णु,भग आदि नाम अन्य देवताओं के होते हुए भी सूर्य को समर्पित है,और ये सभी देव सूर्य के हीं अंश रूप हैं। यजुर्वेद (23/48 ) में “ब्रम्हा सूर्यसमं ज्योति” कह कर ब्रम्हा को सूर्य की ज्योति बताया गया है। अथर्वेद में सूर्य को सृष्टिकर्ता माना गया है ।गायत्री मंत्र में भी सूर्य की हीं प्रार्थना की गई है। रामायण में राम द्वारा सूर्य उपासना के कई प्रसंग आए हैं। महाभारत में कुंती,कर्ण ,युधिष्ठिर,आदि के साथ सूर्य का संबंध दिखता है। भारतीय आख्यानों में हनुमान ने तो सूर्य देव को निगल हीं लिया था। जिसके बाद तीनों लोक में अँधेरा छा गया था। साम्ब पुराण में सूर्य प्रतिमा निर्माण और प्रतिमा के उचित आकर का वर्णन मिलता है। आदित्य स्तोत्रं पढने के फलस्वरूप सूर्य के आशीर्वाद से हीं साम्ब का कुष्ट रोग सही हो गया था। कहा जाता है कि रोग से मुक्ति के बाद स्नान करने के दौरान ब्रम्हा द्वारा बनाई मूर्ति साम्ब को मिला था, जिसे उसने कोणार्क सूर्य मंदिर में स्थापित कर दिया। भारतीय ब्राम्हण ग्रंथों में शतपथ ब्राम्हण कि माने तो याज्ञवल्क्य को यजुर्वेद लिखने की प्रेरणा सूर्योपासन से ही प्राप्त हुआ (शतपथ ब्राम्हण 14 /9 /5 /33 )| ऋग्वेद में सूर्य को आकाश में विचरण करने वाला विष्णु कहा गया (ऋग्वेद 3/62/10)|ऋग्वेद में ही सूर्य को अग्नि का रूप कहा गया है (ऋग्वेद 3/12)| ऋग्वैदिक काल में सूर्य के महत्त्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि सोमरस की उत्पत्ति भी सूर्य से मानी गयी(9/93/1)|
जैसे भारतीय पुराणों और धार्मिक ग्रंथों में सूर्यवंश और चंद्रवंश का वर्णन है, सूर्यवंशी लोग सुर्य के संतान माने जाते हैं। ठीक ऐसे हीं मिस्त्र के लोग भी ख़ुद को ‘औरित्स’ यानी ‘सुर्य का पुत्र’ मानते थे। यहाँ शब्द ‘और’ सुर्य का द्योतक था। ‘The Book of Dead’ में सूर्य एक आँख के रूप में चित्रित हैं, आँख में पंख लगा हुआ दिखता है। भारतीय पुराणों में भी सूर्य वरूण के आँख के रूप में मान्य हैं । मिस्त्र की प्राचीन अवधारणाओं मे सुर्य कई चिन्हों और प्रतीकों से चिन्हित किए गए। जिनमें हैं एक चील, एक घड़ियाल, सिंह और गोला। सुर्य को दृष्टि का देवता मानने के कारण चील के साथ जोड़ दिया गया था । ग्रीस में ‘Golden cup of lotus को सुर्य का चिन्ह माना जाता था। मध्य अमेरिका में सुर्य को मानव मुखाकृति में चित्रित किया जाता था, जिनका मुँह खुला और किरणों के दिखाया जाता था। भारत में स्वास्तिक को सुर्य चिन्ह के रूप में मान्यता प्राप्त हैं ।
सूर्य | राष्ट्र |
बाल, बेलुस/बेलस | असीरियन,मोअबितेस |
शमश | बेबीलोनियंस |
हम्मन | लिबियंस |
वित्ज्लीपुत्ज्ली | मैक्सीकन्स |
उर्तोल,एडोनिस,डायोनिसस | अरबियंस |
असबिनुस | इथोपियन |
बेलेनुस | गौल्स |
रा,ओरिसिस,होरुस,सेत आदि | मिस्त्र |
अपोलो,हेर्क्लुस | ग्रीक,रोम |
हु | द्रुइद्स |
विराकोचा | पेरुवियन्स |
दिनकर,सूर्य | भारत |
मिथ्रास | पर्शियन |
एडोनिस, बेल-सामेन,मेल्कार्थ | फोएनिसियन्स |
निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि आदिम देव सूर्य हीं वो देवता हैं जो सर्वकालिक पूजनीय देव हैं, और रहेंगे।
श्रोत पुस्तक: