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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । समाज के साथ रहने के लिए उसे समाज के विभिन्न नीति-नियमों, आदर्शों, मूल्य-मान्यताओं, धर्म, संस्कृति, आस्था और परंपरा को अपनाना होता है और उसका अवमूल्यन करते हुए सामाजिक क्रियाकलापों में अपना यथासंभव योगदान देना होता है । समाज विभिन्न धर्म, भाषा, संस्कृति, परंपरा, विचार और संप्रदायों का संग्रह है । समाज अनेकता में एकता का संगठन है । समाज में भिन्न-भिन्न प्रकृति, स्वभाव, कार्य-कौशल और क्षमता के लोग रहते हैं और इसी तरह सभी की भिन्न-भिन्न बौद्धिकता, प्रशिक्षण, भाषा कौशल, व्यवहार तथा प्रतिष्ठा है । सभी के दुख-दर्द, पीड़ा, कथा-व्यथा, सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य तथा वैभव भी भिन्न-भिन्न हैं लेकिन सभी की आत्मानुभूति, अनुभव और संवेदना एक ही है । हम किसी भी रंग के हों, हम कहीं भी रहते हों, हम किसी भी जाति के हों और हम किसी भी धर्म-संप्रदाय के अनुयायी हों; हमारे आँसू, खून और पसीने का रंग एक ही है, हमारे हँसने, मुस्कुराने और खुश होने का भाव एक ही है, हमारे प्रेम, अनुराग और आस्था की गहराई एक ही है, हमारी संवेदना और सहानुभूति एक ही है । जब हम दुखी और व्यथित होते हैं तब अपने भावों को गीतों में व्यक्त करते हैं और जब खुश होते हैं तब भी अपने भावों को आवाज़ देते हैं । इन्हीं भावों से लोकगीतों का जन्म हुआ । लोक गीत समाज में अपने भाव संप्रेषण करने का सबसे सरल और प्राचीन माध्यम है । विभीन्न पर्व, त्योहार और सामाजिक आयोजनों में लोकगीतों के द्वारा लोग अपनी खुशी व्यक्त करते थे । इसी तरह विभिन्न त्रासदी, प्राकृतिक प्रकोप, हादसों और समस्याओं में अपने दुख, सहानुभूति तथा समवेदना दर्शाते थे । धीरे-धीरे लोकगीत विस्तृत होते गया और इसका स्वरूप भी बदलते गया । गीतमाला, गीतिकथा, गीतिनाटक होते हुए श्लोक, भजन, दोहा, चौपाई, काव्य, कथा, निबंध, एकांकी और नाटक जैसे अनेक विधाओं का जन्म हुआ । इस तरह समाज में साहित्य का आगमन हुआ ।

समाज में व्याप्त सभी चीजों को हम निश्चित परिभाषा में नहीं बाँध सकते । सभी वस्तुओं और अवयवों को नाप-तौल नहीं सकते । माँ के आशीर्वाद को किस इकाई में मापा जाय ? पिता के त्याग के बदले कितना राशन दिया जाए ? किसी स्त्री के आँसू का क्या वजन हो सकता है ? हमारे संघर्षों की क्या परिभाषा हो सकती है ? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर दे पाना असंभव है । ठीक इसी तरह जब किसी भी साहित्यकार को कठघरे में खड़े होकर यह बताना होता है कि साहित्य क्या है ?, तो यह उसका निरर्थक प्रयास भर होता है । मेरे विचार में, समाज के समीप रहते हुए समाज के हित में समाज सहित विभिन्न विषयों पर लिखा गया लेखन ही साहित्य है । साहित्य यथार्थ और कल्पना का समिश्रण है । साहित्य ही समाज का संवाहक है और साहित्य ही समाज को प्रतिनिधित्व करता है तथा विश्व के समक्ष प्रतिबिम्बित करता है । समाज और साहित्य दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । इन्हें अलग किया ही नहीं जा सकता । समाज के बदलते स्वरूप के साथ साहित्य भी बदलता है और साहित्य के विषय और सामाग्री में परिवर्तन आने से समाज में भी आमूलचूल परिवर्तन होता है । समाज कच्चे लोहे की तरह होता है जिसे किसी भी आकार में ढाला जा सकता है, किसी भी स्वरूप में बदला जा सकता है । साहित्य में चुम्बकीय गुण होता है इसीलिए वो समाज को अपनी ओर खींचता है । चुंबक को जहाँ ले जाइए लोहा उसके विमुख कभी जा ही नहीं सकता इसीलिए समाज और साहित्य के बीच गहरा अंतरसंबंच है । यदि हम अपने इतिहास को खंगालें तो हमें बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जिससे कि लोगों के चेतना के स्तर में वृद्धि हुई और समाज परिवर्तन की ओर अग्रसर हुआ । समाज में जितने भी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, दार्शनिक और वैचारिक क्रांति हुईं उसके पीछे साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है । विभिन्न सामाजिक कुप्रथा, अंधविश्वास, अंधभक्ति, रूढ़िवादी परंपरा को तोड़ने का काम साहित्य ने ही किया तभी तो आज दास प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, बहु-विवाह जैसी कुरीतियों को निर्मूल किया गया है । विभिन्न नुक्कड़ नाटकों के मंचन द्वारा समाज को संदेश दिया गया कि एक स्वस्थ और शिक्षित समाज के लिए माँ का साक्षर होना अत्यावश्यक है । इससे लोगों की सोच में धीरे-धीरे बदलाव आया और बेटियों को भी बेटों की तरह पढ़ने भेजा जाने लगा । बेटे और बेटियों में भेदभाव करना बंद हुआ और यह चेतना जागृत हुई कि बेटियों को भी समान अवसर दिया जाए, तो वह भी आगे बढ़ सकती हैं । विवाहित औरतों को प्रौढ़ शिक्षा जैसी योजनाओं का लाभ दिया जाने लगा ।

प्रभावी ढंग से जनचेतना का प्रचार-प्रसार साहित्य द्वारा ही संभव है, क्योंकि साहित्य समाज के तथ्य घटनाओं को तथा सामाजिक विषय-वस्तुओं को प्रतिबिम्बित करता है । एक साहित्यकार अपने शब्दों की बुनाई से, अपनी कलात्मक शिल्प से और लयात्मक शैली प्रवाह से लोगों की भावनाओं को इस तरह स्पर्श करता है जैसे ठंडी हवाओं का झोंका चेरी के फूल को स्पर्श करता है । यही कारण है कि पाठक साहित्य के संबंधित विषय और पात्र में इस तरह संवेदना से भीग जाता है जैसे कि वो उसकी अपनी कहानी हो, उसकी अपनी आपबीती हो । स्वतन्त्रता से पूर्व लोगों को स्वाधीनता के लिए जागरूक करने का और युद्ध सेनानियों का मनोबल बढ़ाने का काम साहित्य ने ही किया । स्वतन्त्रता के बाद हुए विभिन्न सांप्रदायिक दंगों ने समाज को तहस-नहस ही कर दिया था । सन् 1947 के भारत विभाजन में हुए दंगे-फ़सादों ने न जाने कितने घरों को जलाया, कितने निर्दोष और मासूम लोगों का कत्ल हुआ, कितनी बेटियों और बहनों का बलात्कार हुआ, कितनों ने खुद अपने गले को रेत लिया, कितने लोग बेघर हुए । मानव सभ्यता में इतने विशाल रूप में आबादी का इस तरह अदला-बदली कभी नहीं हुआ जितना भारत-पाकिस्तान विभाजन में हुआ । इसका बहुत बड़ा असर साहित्य में भी हुआ । सन् 1984 का सीख विरोधी दंगा हो या 1986 का कश्मीर दंगा, 1989 का भागलपुर दंगा हो या 1992 का बाबरी मस्जिद दंगा या फिर 2002 का गुजरात दंगा, इन दंगों ने सामाजिक समरसता और एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया, समाज की धारणा और मानसिकता को कुरूप बना दिया । सन् 1948, 1965, 1971 और 1999 का भारत-पाकिस्तान युद्ध हो या सन् 1962 का भारत-चीन युद्ध, इसने समाज की नींव में इतना गहरा घाव किया कि समाज को फिर से अपने पुराने संरचना में आने में कई वर्ष लग गए । इस दानवी और वीभत्स विभीषिका ने संवेदनशील साहित्यकारों को झकझोर कर रख दिया । इसी बीच साहित्यकारों ने इन्हीं दंगों और नरसंहार को साहित्य की विषय-वस्तु बनाकर चेतनामयी और प्रेरणादायी कविता, कथा, उपन्यास और संस्मरण लिखे । साहित्य के माध्यम से समाज को बताया गया कि इन दंगों, फसादों ने केवल अपनों को खोने का दु:ख दिया है और कई सपनों की बेवजह हत्या हुई है । इससे किसी भी जाति, धर्म और संप्रदाय को सुख, चैन और शांति नहीं मिली बल्कि समाज में विश्वास और भाईचारे में गहरा आघात मात्र हुआ है । यह हत्या, हिंसा और काट-मार इतिहास के लिए कलंक है, घोर अंधकार है । इससे समाज में डर-त्रास और अव्यवस्था मात्र फैली है । हिन्दी साहित्य की अग्रणी कथाकार कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ अपनी मिट्टी से विस्थापित होने का दु:ख और शरणार्थी शिविरों की हालातों के बारे में बताता है । शीर्षष्ठ उपन्यासकर यशपाल द्वारा लिखित ‘झूठा सच’ और भीष्म साहनी के ‘तमस’ विभाजन की त्रासदी का वृतांत पेश करता है कि किस तरह से सामान्य घटनाओं को सांप्रदायिक दंगों में बदला जाता है और कैसे इन्हें राजनैतिक रंग डाल दिया जाता है ।

हिन्दी गीतों और कविताओं ने भी इन जख्मों पर मरहम लगाने का काम किया है । कदम कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाये जा, यह ज़िंदगी है कौम की तू कौम पे लुटाये जा जैसे गोपाल सिंह नेपाली के गीत हो या फिर हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए जैसे दुष्यंत कुमार के गीत, जहाँ समाज को स्वतन्त्रता, स्वाधीनता और राष्ट्रीय एकता का संदेश देता है तथा युवाओं और सैनिको को जोश से भर देता है वहीं कवि प्रदीप द्वारा लिखित और स्वर कोकिला लता मंगेशकर द्वारा गाया गया गीत, ए ! मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी जैसे गीत आज भी हर भारतीय की आँखें नम कर देता है । यह साहित्य की शक्ति ही है जो समाज को एक पल में जोश से सराबोर कर सकती है तो अगले ही पल में भाव विभोर और गंभीर भी बना सकती है । वर्षों पुरानी प्रेमचंद की कहानियाँ हों या फिर आर. के. नारायण की मालगुडी की कहानियाँ, आज भी कितनी जीवंत, सजीव और सांदर्भीक लगती है । समाज के बदलते रहने से भी साहित्य सदा जीवंत ही रहता है । इतिहास के विभिन्न काल-खंडो में हुए विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक घंटनाओं को जीवंत रखना ही समाज को साहित्य की सबसे बड़ी देन है, जिससे कि समाज फिर से उस तरह के हादसों, दंगों और त्रासदी को ना दोहराय और सदा अमन-चैन और शांति बनाए रखे ।

भूमंडलीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में जिस तरह से समाज का स्वरूप, व्यवहार और सामाजिक संस्कारों में बदलाव आया है उसी तरह साहित्य में दार्शनिक चिंतन, वैचारिक क्रांति, गहरी भावुकता और संवेदनशीलता लुप्त हो रही है । आज जिस तरह से समाज अपनी मौलिकता से दूर हो रहा है ठीक उसी तरह साहित्य में भी फूहड़ता, अश्लीलता और असहनशीलता परोसा जा रहा है । लोगों में हताश है, गलाकाट प्रतिस्पर्धा है, असंवेदनशीलता है और गहरा तनाव है । लोगों में सहानुभूति खत्म हो रही है जिससे साहित्य की भाषा दिन प्रतिदिन निम्नस्तर की हो रही है । पहले के मुक़ाबले साहित्यकारों की संख्या बढ़ी है और लाखों की तादाद में पुस्तकें प्रकाशित भी होती हैं । प्रत्येक वर्ष राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, विश्व पुस्तक मेले का आयोजन करता है साथ ही राज्य स्तर पर भी लगातार पुस्तक मेलों का आयोजन कर रहा है, किन्तु पहले की तादाद में पाठकों की संख्या में भारी गिरावट आयी है । इसका कारण है, अपनी भाषा के प्रति कम लगाव होना, उदासीन होना और हिन भावना रखना । जब हम अपनी भाषा के प्रति ऐसा विचार और व्यवहार करेंगे तो हमारे साहित्य, संस्कृति, कला, इतिहास, दर्शन और सभ्यता को कैसे संरक्षति करेंगे ? जब भाषा ही नहीं बचेगी तो इतना विशाल साहित्य भंडार, सभ्यता, ऐतिहासिक और सामरिक धरोहरों का क्या होगा ? समाज के लिए यह एक चिंता का विषय है कि साहित्य को जीवित रखने के लिए अपनी भाषा को कैसे बचाया जाए ? अपनी भाषा के प्रति जागरूक रहना समाज का दायित्व है । सभी भारतीय भाषाओं विशेषकर हिन्दी भाषा को लेकर तरह-तरह के राजनीतिक माहौल तैयार किया जा रहा है । भाषाई परिप्रेक्ष्य में युवाओं को गुमराह किया जा रहा है । हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं है, इसमें भविष्य सुरक्षित नहीं है जैसे विचारों से नयी पीढ़ी के युवाओं में असंतोष भरा जा रहा है । देश के कई विद्यालयों में माध्यमिक स्तर के बाद हिन्दी को ख़त्म कर दिया गया है तथा अन्य विदेशी भाषाओं के समकक्ष वैकल्पिक विषयों के तौर पर रखा गया है । जब विद्यालय स्तर पर ही हिन्दी सहित सभी मातृभाषाओं को ख़त्म कर दिया जा रहा हो, तो कैसे भाषा का विकास और उसका प्रचार-प्रसार होगा ? कैसे भारतीय भाषाओं के नए पाठकों का निर्माण होगा ? अब तो प्राथमिक कक्षाओं से अंग्रेजी को लागू कर दिया गया है जिससे अबोध बच्चों को अपनी मातृभाषा से विमुख किया जा रहा है । अंधाधुंध खुल रहे कान्वेंट स्कूलों में बच्चों को अपनी मातृभाषा में बातचीत करने पर दंड दिया जा रहा है । क्या हमारी भावनाओं और सपनों की भाषा अंग्रेजी है ? क्या हमारी कल्पनाओं में अंग्रेजी के स्वर गूँजते हैं ? एक तरफ हम वर्षों की साधना से साहित्य सृजन कर रहें हैं तो दूसरी तरफ भाषा की हत्या भी कर रहे हैं । इतनी मेहनत और साधना से लिखे गए हमारे साहित्य को आखिर कौन पढ़ेगा ? हमें यह तय करना होगा कि हम किसके लिए लिख रहे हैं और हमारा पाठक वर्ग कौन हैं ? जब पाठक ही नहीं उपलब्ध होंगे तो हमारे लिखने का क्या औचित्य रह जाएगा ?

हिन्दी देश की संपर्क भाषा है । सन् 2011 के राष्ट्रीय जनगणना के अनुसार यह 46 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा भी है । सर्वप्रथम महात्मा गाँधी ने सन् 1917 में हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने की मान्यता दी थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया । इतने विशाल जनसंपर्क की भाषा को संविधान सभा ने 14 सितम्बर, 1949 को राजभाषा का दर्जा दिया । तब से लेकर आज तक हिन्दी को लेकर कई राजनीतिक दांव-पेंच होते आ रहे हैं । यद्यपि शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र को लागू किया गया है किन्तु दक्षिण भारत के कई राज्यों में इसका लगातार विरोध होता रहा है । यह विरोध जनस्तर से नहीं हो रहा है, बल्कि कुछ राजनीतिज्ञ अपनी राजनीतिक पकड़ और शक्ति प्रदर्शन करने के लिए इसका राजनीतिक विरोध करते आ रहे हैं । ऐसा भी नहीं है कि दक्षिण भारत की जनता हिन्दी से प्रेम नहीं करती और उन्हें हिन्दी की समझ नहीं है किन्तु अपने राजनीतिक लाभ के लिए कुछ राजनीतिज्ञ वहाँ के लोगों में ऐसी भावना को बढ़ावा देने का काम कर रहें हैं कि हिन्दी उनके ऊपर जबर्दस्ती थोपी जा रही है । सन् 1937, 1940 और 1965 में तमिलनाडू राज्य में हुए हिन्दी विरोधी आंदोलन इसी बात का प्रमाण है । नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के प्रस्तावित मसौदे पर भी तमिलनाडु और कर्नाटक सरकार ने हिन्दी को अनिवार्य विषय किए जाने का विरोध किया था । नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के प्रस्तावित मसौदे पर त्रिभाषा सूत्र को लेकर उठे विवादों के बाद केंद्र ने हिन्दी की अनिवार्यता वाले प्रावधान को हटा दिया । त्रिभाषा सूत्र का उद्देश्य किसी भी राज्य में हिन्दी को थोपना या अनिवार्य करना नहीं है बल्कि भाषाई एकता को मजबूती देना और सभी भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना है । देश की साहित्य, संस्कृति, ऐतिहासिक विरासत तथा सामरिक धरोहरों का संरक्षण, संवर्द्धन और प्रचार-प्रसार करना है । इसका गलत और भ्रामक अर्थ निकालकर कुप्रचार और हिंस्रक गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा रहा है ।

भाषा का विवाद बहुत ही संवेदनशील विषय है । यह विवाद यहीं खत्म नहीं होता । भारतीय संविधान में हाल तक 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है जिसमें से हिन्दी भी एक है । 2003 में बोड़ो, डोगरी, संथाली और मैथिली भाषा को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने के बाद कई राज्यों के नेता अपने-अपने क्षेत्र की भाषा-बोली को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मुहिम में लगे हुए हैं । लगभग 40 से अधिक भाषाएँ ऐसी हैं जो इस सूची में क्रमबद्ध होने के लिए लगातार आंदोलन कर रही है । भोजपुरी, राजस्थानी, बुंदेली, ब्रज, कुमाउनी, गढ़वाली आदि भाषा जो कि हिन्दी भाषी राज्य है, अगर इन्हें आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है तो इससे हिन्दी साहित्य के पाठक कट जाएंगे । धीरे-धीरे हिन्दी साहित्य बिखर जाएगा और कालांतर में हिन्दी के पाठक ही नहीं रहेंगे । यदि समाज को जागरूक और सचेत करना है तो साहित्य को बचाना होगा । साहित्य को बचाने के लिए भाषा को बचाना होगा और भाषा को बचाने के लिए हिन्दी के जड़ों को सींचना होगा ना कि पत्तों को ।

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