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एक शख्स जीवन में ऐसा भी होता है जो लाख गलतियां करदे भले कितना ही बुरा हो लेकिन हमारे द्वारा उसकी अच्छाई उसके प्रेम को भुला पाना मुश्किल होता है या यू कहूं असंभव सा प्रतीत होता है। एक शख्स ऐसा मेरे जीवन में भी है। शायद मैं उसके लिए बहुत बुरा हूं मैंने उसके साथ बहुत अनुचित किया होगा इसलिए उसे मेरे प्रेम,मेरी भावनाओं की अनुभूति नहीं होती। उसके रहते हर सखा जो उचित-अनुचित समझता है लेकिन सब अर्थ रहित शून्य प्रतीत होता है। लेकिन उसके जाने के बाद वो सब हर नादानी,हर कटुवचन को भुलाकर हमे पूर्व की भांति स्वीकार कर लेते है।
अब हर पल हर क्षण एक झूठी आस लगी रहती है शायद वो लौट आएगी,वो माफ करदेगी मेरी हर नादानी को,मेरी हर गलती को और सीने से लगा लेगी मुझे दुबारा पहले की भांति परन्तु मैं जानता भी हूं ये संभव नहीं आखिर किस मुंह से उसे कहूं की मैं उसके बिना नहीं रह सकता। उसके बिना जीवन निरर्थक है शून्य है। एक झूठा दिलासा जो स्वयं को दे रखा है उसकी पसंद अब भी में ही हु केवल नाराज है वो मुझसे। परंतु फिर एक सवाल मन में उथेले मरने लगता है क्या वह भी ऐसा ही महसूस कर रही होगी जैसा मैं करता हु? क्या मेरी ही तरह वो अभी सब संभालना चाहती है? क्या अब भी वो पहले ही की भांति मुझसे प्रेम करती होगी जैसे मैं करता हु? क्या वो भी मेरी ही तरह क्षण प्रति क्षण मेरी याद में तड़प रही होगी?
मेरे मन इन सब सवालों के जवाब तो मेरे पास नहीं है लेकिन इतना जरूर जनता हूं की मैं एक अस्तित्वहीन व्यक्ति हु जो किसी के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान नही रखता। ना मैं कभी एक अच्छा पुत्र बन पाया,ना एक भाई, ना अच्छा मित्र और शायद अब एक जीवन साथी भी बनने के लायक नही रहा। में नहीं जानता मैं ऐसा क्यों हु जनता हूं तो सिर्फ इतना की में किसी का नही हो पाया। मेने हर व्यक्ति नाते रिश्तेदार को अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिया लेकिन मेरे गुस्से और गुरूर की वजह से सारा किया कराया व्यर्थ कर दिया।
अब सब एक क्षण में खत्म कर देना चाहता हु लेकिन उस पिता की रोती हुई तस्वीर मेरी आखों के सामने आ जाती है जिसने लाख सपने संजोए होगे मेरे जन्म पर,देखा होगा उनका उत्तरदायित्व मुझे सौपते हुए,समझा होगा मुझे अपने बुढ़ापे की लाठी (लेकिन उन्हें कैसे कहूं उनकी लाठी बनने वाले को खुद एक सहारे की जरूरत है जो शायद बेसहारा हो चुका है सब होते हुए भी) आखिर घर का पहला पुत्र जो था। एक सवाल जो वो पूछ नही पाए लेकिन उनकी आखों से साफ झलक रहा था आखिर मेरी गलती कहा थी जो अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के बाद भी मेरी संतान को मौत प्यारी है। बस यही सोचकर बढ़ते कदम रुक जाते है। यदि आज 'euthanasia' को भारत में मान्य कर दिया जाए तो शायद सैकड़ों मां के लाल ये कहते हुए इहलीला समाप्त कर लेंगे की अब और नहीं सहा जाता ये जीवन 'अकेलापन','भावशून्य जीवन','जीवित तन और मृत मन' लेकर।