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वैसे तो हर दिन बुजुर्गों का सम्मान होना चाहिए लेकिन उनके प्रति मन में छुपे ही समान को व्यक्त करने के लिए बुजुर्ग दिवस 1 अक्टूबर को मनाया जाता है। बुजुर्गों के प्रति होने वाले दुव्र्यवहार को रोकने के लिए, उनके प्रति जागरूकता फैलाने के लिए 1991 में पहली बार अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस मनाया गया। बुजुर्ग जो अपने बच्चों को पालते हैं और उनको कुछ लोग अनाथाल्य भेज देते हैं। इससे दुख की बात कोई नहीं हो सकती। बुजुर्ग हर हाल में सम्मान के पात्र होते हैं, उनका सम्मान करना चाहिए।

बुजुर्ग ईश्वर के अवतार होते हैं जिनके आशीर्वाद से बच्चों का पालन पोषण होता है। उनका सम्मान होना ही चाहिए और उन्हें सहारे की बहुत जरूरत होती है। एक दिन कम से कम उनके प्रति समर्पित भाव होना चाहिए और उनकी हर प्रकार की सेवा करनी चाहिए। वैसे तो उनकी सेवा करने में जो आनंद आता है व्यक्त नहीं किया जा सकता। निश्चित रूप से वह घर स्वर्ग के सामान बन जाता है जहां बुजुर्गों की सेवा की जाती है।

आज भी कुछ घरों में संयुक्त परिवार मिलते हैं। सुनील कुमार का के घर में भाई, मां, दादी मां, पड़दादी, पोते, पड़पोते आदि आज के दिन भी जीवित है और सभी एक ही चूल्हे पर खाना बनाते हैं। सभी की एकता बरकरार है तथा परिवार बेहद प्रसन्न है। बच्चों के पालने में तथा संस्कार देने में उनका अहं योगदान है। आज भी एकल परिवारों से बहुत बेहतर है। एकल परिवार खराब स्थिति में है। सुनील कुमार का संयुक्त परिवार आज दूसरों के लिए उदाहरण बना हुआ है।

आज के दिन समाज में एकल परिवार बढ़ते जा रहे हैं। भाई-भाई में बैर, भाई बहन में तनाव जिसके चलते अलगाववाद आ गया है और परिवार में बिखराव की स्थिति आ गई है। किसी के पास समय नहीं है। बुजुर्गों का ख्याल नहीं किया जाता। हालत यह है कि बुजुर्ग परेशान बैठे भोजन पानी के लिए तरसते देखे गये हैं। कुछ घरों मेें बुजुर्ग है उन्हें एक चारपाई पर लेटा दिया जाता है जो दिन भर पानी एवं भोजन के लिए भी तरसता देखा जा सकता है ऐसे में एकल परिवार सबसे खतरनाक परिवार है विगत दिनों से देखने में आ रहा है कि उनके बच्चे दूर विदेश में काम करते हैं। अपने बुजुर्गों के प्रति उनके दिल में कोई रहम नहीं हैं। वे बुजुर्ग रो-रो कर मर जाते हैं परंतु उनकी देखरेख कभी नहीं होती। ऐसे बुजुर्गों के प्रति सहानुभूति भी होती है। ऐसे में एकल परिवार फिर से मांग बढ़ती जा रही है।

याद आती हैं दादा दादी की कहानियां-

एक जमाने में जब संयुक्त परिवार होते थे घरों में बूढ़े-बड़े लोग जिन्हें दादा-दादी नाम से जाना जाता है, की मदद से बच्चों का न केवल भरपूर मनोरंजन होता था अपितु उन्हें कहानियां सुनाकर उनका मनोबल बढ़ाया जाता था। बच्चे के विकास में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है किंतु जब से परिवार में विघटन होने लगा है तभी से न तो दादा-दादी का समय सही तरीके से बीत पाता है और नही बच्चों का सही ढंग से विकास होता है। महज टीवी एवं मोबाइल द्वारा ही मन बहलाने की प्रक्रिया चलती है जो अधिक टिकाऊ नहीं है और सभ्य जन बनने की बजाए टीवी/मोबाइल संस्कृति वाला मानव बनता जा रहा है।

एक जमाना था जब बड़े-बूढ़ों की उनके बच्चे कहना मानते थे और पूरे-पूरे जीवन एकल परिवार के रूप में बीता देते थे। सारे सदस्य एकसाथ मिलकर काम करते थे। परिवार के छोटे बच्चों को सही दिशा देने का काम अक्सर बूढ़े-बड़ों का होता था। वे बच्चों को देशभक्ति की कहानियां सुनाते थे और उन्हें महान बनने में कसर नहीं छोड़ते थे। उस जमाने में टीवी/मोबाइल जैसी कोई वस्तु घर में नहीं होती थी जिसके चलते शिक्षाप्रद कहानियां और उच्चकोटि के ज्ञान का स्रोत बूढ़े-बड़े ही होते थे।

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