तेरे घर को सजाया, सवारा मैंने,
पर फिर भी तुमने पूछा, क्या किया तुने,
सख़्त अल्फ़ाज़ में कह गया वो,
ज़िम्मेदारी ही निभाई है, कोई तीर नहीं मारा तुने!
मैं देर तक सोंचती रही तेरे लहजे,
मेरे आँसू निकल पड़े और लग गए बहने!
माना मेरी ज़िम्मेदारी है,
पर लफ़ज़ौ में शीरी नहीं घोली तुने!
बहुत तेज़ी से वार कर गया वो,
मैं शायराना अंदाज़ में सोंचती रही, क्या खूब कहने!
लहजे की गर्मी शोर मचाती है,
मैं जब भी सोंचु तेरी बोली, क्या किया तुने!
मैं औरत हूँ, बेटी हूँ, माँ हूँ,
इज़्ज़त की हक़दार हूँ,
मैं नहीं हूँ तुम्हारी ज़िल्लत को सहने!!