सुबह की पहली किरण आँखों में नहीं, दिल में सवाल जगाती है,
वही संघर्ष, वही कहानी, क्या माँ फिर दोहराती है?
ऑफिस के झंझट में उलझा मैं, पर माँ की थकान नहीं दिखती,
चाय की प्याली में ताजगी खोजूँ, पर माँ की आँखों में नमी क्यों दिखती?
बर्तन चमकते हैं, कपड़े धुलते हैं, पर माँ का सपना कहाँ धुल गया?
मेरी हर ख्वाहिश के लिए दौड़ने वाली माँ, अपनी ख्वाहिशों के लिए क्यों रुक गई?
पिताजी का थैला, मेरी जरूरतें, घर की हर छोटी-बड़ी चीज़ का ख्याल,
क्या माँ का जीवन बस इन्हीं जिम्मेदारियों में सिमट गया?
ऑफिस से लौटता हूँ तो माँ मुस्कुरा देती है,
पर उस हँसी के पीछे छुपा दर्द कोई नहीं देखता।
बातें कम हो गई हैं, थकान ज्यादा,
क्या माँ सिर्फ घर चलाने वाली मशीन बन गई है?
दूध उबलता, रोटी सिकती, पर स्वाद कहाँ वो पहले सा?
हर निवाले में छुपा है, एक अधूरा सा किस्सा।
आज सोचता हूँ, माँ को सिर्फ "त्याग की मूर्ति" कहकर भूल जाऊँ,
या उसके अस्तित्व को पहचान दूँ?
उसके सपनों को फिर से जीने का मौका दूँ?
माँ सिर्फ रसोई में जलने के लिए नहीं बनी,
उसका जीवन सिर्फ परिवार के लिए नहीं बना,
अब समय है कि हम समझें,
माँ का भी एक अस्तित्व है, बस ममता की परछाईं में खो गया।