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उस समय पुन्नू की उम्र वही कोई 8-9 साल की रही होगी जब वह शिवहर गांव में अपने चाचा-चाची के साथ रहता था। चाचा-चाची के साथ उसका एक अलग ही रिश्ता था क्योंकि उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। अपने जीवन का सारा प्रेम उन्होंने पुन्नू में ही उड़ेल दिया था – पुन्नू यानी पूर्णेन्दु। प्यार से सब उसे पुन्नू ही कहते थे। पुन्नू के पिता नहीं थे और मां शहर में काम करती थीं। उसकी पढ़ाई-लिखाई ठीक से हो सके, इसलिए हेडमास्टर चाचा उसे दरभंगा से शिवहर ले आए।
चाची थीं धार्मिक स्वभाव की महिला। ऐसा कोई दिन नहीं था जब उनका कोई व्रत, तीज या उपवास न हो। रविवार को निर्जला व्रत, सोमवार को नमक का त्याग, मंगल को हनुमान जी का भोग, और ऐसे ही हर दिन कोई न कोई धार्मिक आयोजन! लेकिन मंगलवार की बात ही अलग थी। उस दिन चाची हनुमान जी के लिए विशेष प्रकार के लड्डू बनातीं – धीमी-धीमी आंच पर आटे को गुड़ में पकाकर! जब भी ये लड्डू बनते, पुन्नू के नथुने भीनी-भीनी सुगंध से भर जाते। फिर चाची पीतल की एक छोटी-सी बाल्टी में लड्डू भर देतीं और पुन्नू से कहतीं: “जाओ, हनुमान जी को भोग लगा आओ।”
तब शिवहर एक बड़ा-सा, सुन्दर-सा, प्राकृतिक हरियाली से भरा गांव हुआ करता था। ज्यादातर लोगों के कच्चे मकान थे, लेकिन पुन्नू और उसके गांव के कई सगे-सम्बंधी पक्के मकानों में रहा करते थे। भोला बाबू का बड़ा-सा खेत था। खेत में जाड़े में मटर की खूब सारी फलियां और टमाटर उगते थे। पुन्नू और उसके साथ कपिला, भुइला और अनगिनत बालकों की टोली न जाने कितने खेतों में घुसकर टमाटर और मटर की फलियां तोड़कर खाया करते थे। उन दिनों लोगों के दिल बड़े होते थे। भोला बाबू हों या उनके छोटे भाई, लाल-लाल गाल वाले बजरंगी बाबू, कोई इन बच्चों को नहीं डांटता था कि “क्यों घुसे मेरे खेत में? क्यों चुराए हमारे टमाटर?” खेत के उस पार एक धोबिया घाट तालाब था जिसके किनारे हाथीपांव की बीमारी से ग्रस्त भिखारीराम धोबी गांव भर के कपड़े धोया करता था। चारों ओर हरी-हरी दूबों या फिर सरसों के पीले फूलों से लहलहाते मैदान थे और उन दूबों और फूलों पर कोमलता के स्वप्न की तरह उनींदे ओस के कण! और उन खेतों से कहीं आगे, लगभग एक-डेढ़ किलोमीटर दूर हनुमान जी का एक मंदिर!
पीतल की छोटी बाल्टी लिए दौड़ता, इठलाता, कभी तेज कदमों से चलता, पुन्नू हनुमान मंदिर की ओर चला जाता था। एक बड़े से टीले पर एक छोटा-सा मंदिर! शांत, सुरम्य वातावरण! मंदिर के नीचे भी एक बड़ा-सा तालाब जिसमें कमल के अनगिनत फूल खिला करते थे। टीले के नीचे से एक कच्चा रास्ता शिवहर से कहीं दूर सीतामढ़ी की ओर चला जाता था। और तलाब के किनारे शिवहर के बहुत बड़े जमींदार जगदीश बाबू का उजला, धपधपाता, महल-जैसा आलीशान घर!
पुन्नू जब भी जाता, मंदिर अक्सर खाली ही रहा करता था। यह वह दौर था जब ईश्वर अनायास ही लोगों के दिलों में रहा करते थे, उनके विचारों में रमते थे, ईश्वर के प्रति अपना प्रेम अभिव्यक्त करने के लिए बहुत ज्यादा आडंबर की जरूरत नहीं पड़ती थी। लेकिन जो भी हो, हनुमान जी का यह मंदिर “इच्छापूरण मंदिर” यूं ही नहीं कहा जाता था। कहते हैं, जो कोई अपने हृदय में कोई सच्ची और गहरी इच्छा संजोये, हनुमान जी पर आटे और गुड़ के लड्डू चढ़ाता था, उसकी मनोकामनाएं जरूर पूरी होती थीं। पता नहीं, चाची भी अपने घर-परिवार के लिए ऐसी ही कोई मनोकामना लिए ये लड्डू हनुमान जी के दरबार में भेजती होंगी।
लेकिन पुन्नू आखिर पुन्नू ठहरा। आठ-नौ साल का बच्चा आध्यात्मिक बातों में ज्यादा नहीं उलझता। वह तो न जाने कब से गुड़ में पगे लड्डुओं की भीनी-भीनी गंध से व्याकुल हुआ जा रहा था। हनुमान जी पर चढ़ाने के बाद चाची दो लड्डू उसे भी देंगी, पता है। बाकी लड्डू अड़ोस-पड़ोस में बांट देंगी। लेकिन सिर्फ दो ही लड्डू? मंदिर अभी थोड़ा ही दूर रहता कि पुन्नू बाल्टी में से एक लड्डू निकालकर अपनी हाफ पैंट की जेब में रख लेता कि अब उसके पास तीन लड्डू होंगे। वह मन ही मन खुश होता। थोड़ी दूर और चलकर वह एक लड्डू और निकाल कर अपनी दूसरी जेब में रख लेता। अब उसके पास चार लड्डू होंगे। खुशी इतनी बढ़ती कि एकान्त रास्ते पर चलते-चलते वह खुलकर मुस्कुरा देता। “लेकिन अगर चाची ने ये ‘फूली हुई’ जेबें देख लीं तो?” यह विचार घबड़ाहट देता था। फिर कुछ सोचकर, कुछ डरते-डरते कि कहीं हनुमान जी नाराज न हो जाएं, पुन्नू एक जेब से लड्डू निकालकर गड़ाप से खा जाता। आह, क्या मिठास! क्या सोंधापन! एक लड्डू से काम नहीं चलेगा। पुन्नू दूसरी जेब का लड्डू निकालकर भी खा जाता। कितने स्वदिष्ट लड्डू! धीरे-धीरे हनुमान जी का डर कम होता जाता और लड्डू का लोभ बढ़ता जाता। पुन्नू पीतल की बाल्टी से निकालकर कम से कम दो लड्डू तो और खा ही जाता। अब बच्चा तो बच्चा ही है। इससे ज्यादा लड्डू खाए नहीं जाएंगे।
बाकी लड्डू से भरी बाल्टी लिए पुन्नू उस ऊंचे टीले पर जाता। लाल देह वाले हनुमान जी की आदमकद मूर्ति के सामने खड़ा होकर, थोड़ा उछलकर घंटी बजाता। ज्यादा लोग नहीं होते थे, लेकिन हर वक्त इक्के-दुक्के भक्त उस सूने मंदिर में जरूर मिल जाते थे। पुजारी नन्हे से पुन्नू के हाथ से बाल्टी लेकर दो-चार लड्डू हनुमान जी पर चढ़ाता और बाकी पुन्नू को लौटा देता। पुन्नू एक बार गौर से हनुमान जी की ओर निहारता – कहीं वे गुस्सा तो नहीं! हनुमान जी ने एक हाथ में गदा बड़ी दृढ़ता से पकड़ रखा था। उनकी मुखमुद्रा कठोर थी। पुन्नू डरे-सहमे कदमों से टीले से नीचे उतर जाता। लेकिन अगले मंगलवार को भी लड्डू का लोभ उसके मन से जाता नहीं।
टीले के नीचे गरीबों की दो-चार झुग्गियां थीं। उनके पास गुजारे का और कोई चारा नहीं था। लोग जो चढ़ावा चढ़ाते उसी का एक हिस्सा पाकर वे अपना पेट पाल लेते थे। उन्हीं गरीबों के बीच एक काला-सा, छोटा-सा, लगभग पुन्नू की ही उम्र का एक बच्चा उसे हर बार मिला करता। और गरीबों की तरह वह पुन्नू से लड्डू कभी नहीं मांगता। चुपचाप टीले के नीचे एक सीढ़ी के पास खड़ा रहता। पता नहीं क्या आकर्षण था उसमें। जैसे अपना ही कोई प्राण हो, अपना ही कोई आत्मा का अंश! पुन्नू धीरे-धीरे चलकर उसके पास जाता और एक लड्डू उसके हाथ पर रख देता। बच्चा हल्की-सी मुस्कान बिखेरता ... वह मुस्कान जिसमें खुशी के साथ न जाने कितने दुख थे, और कृतज्ञता का एक भाव भी। धीरे से उसके ओंठ बुदबुदाते, “नीके रहो, बाबू!”
बरसों बीतते गए। पुन्नू बड़ा होता गया और वह काला-कलूटा बच्चा भी। पुन्नू अब उसका नाम जान गया था – देबुआ। उसका कोई नहीं था। कोई नहीं जानता था कि उसके मां-बाप कौन थे। वह कैसे इस मंदिर के पास आकर रहने लगा था। कई बार जाड़े की भोर में, जब पुन्नू चाची की दी हुई सुनहरी शॉल ओढ़े, पीतल की बाल्टी में आटे और गुड़ के लड्डू लिए मंदिर पहुंचता तो देबुआ ढंड में ठिठुरता टीले के नीचे सीढ़ी के एक कोने में दुबका बैठा रहता। लेकिन पुन्नू के आते ही उसकी आंखों में मुस्कान आ जाती। पुन्नू भी उसे देखकर ठिठक जाता। लगता था, अपना ही कोई भाई है। वह चाहता कि उसे गले लगा ले। अपनी शॉल उसे ओढ़ाकर उसे अपनी बांहों में भींच ले। लेकिन चाची पूछेंगी कि शॉल कहां है तो क्या कहेगा? हर बार की तरह, पुन्नू उसके हाथ में एक लड्डू थमाता और भरी आंखों से उसे देखते हुए लौट जाता। और देबुआ कहता: “नीके रहो, बाबू!”
कई वर्ष बीत गए। शिवहर में अभी भी गरीबों के कच्चे मकान थे, वही धूल भरी पगडंडियां थीं, वही खेत और खलिहान थे। लेकिन इस बीच नेताओं की एक नई नस्ल उग चुकी थी जिसमें जमींदार जगदीश बाबू और उनके बेटे-भतीजे भी शामिल थे। वे इस अर्धविकसित शिवहर को जिला बना देना चाहते थे ताकि उन नेताओं की चांदी हो सके। ताकि जगदीश बाबू को सड़क और पुल-निर्माण का ठेका मिल सके और कमीशनखोरी संभव हो। ताकि नए-नए विभाग खुलें और करोड़ों के घोटाले हों। ताकि थोथे विकास के नाम पर मूढ़ जनता को दिग्भ्रमित कर वोट मांगे जा सकें।
शिवहर बदल गया। शहर बन गया। हरियालियां खो गईं, कंक्रीट के मकान और दफ़्तर बन गए। सरकारी महकमे और दलालों के ठिकाने बन गए। कई साल बीते। जगदीश बाबू ने उस “इच्छापूरण हनुमान मंदिर” को अत्याधुनिक बनवा दिया। टीले तक पहुंचाने के लिए संगमर्मर की सीढ़ियां बन गईं। जंग लगे लोहे के पुराने घंटे की जगह चांदी का घंटा लग गया। चारों ओर दीवारें हो गईं। उन दीवारों के पार बड़े-बड़े होटल खुल गए। गरीबों की झुग्गियां उजाड़ दी गईं, चढ़ावों की दुकानें खुल गईं। कमल से भरा रहने वाला स्वच्छ जलाशय अतिक्रमण का शिकार हो गया। सीतामढ़ी की ओर जाने वाली धूल भरी सड़क को कोलतार से संवार दिया गया, उस पर महंगी कारें और टैक्सियां दौड़ने लगीं। ज्यादातर सुनसान पड़ा रहने वाला मंदिर लोगों की भीड़ से पट गया। मंदिर के बरामदे पर लालटेन की हल्की रोशनी में रामचरितमानस पढ़ने वाला वह पुजारी मर गया। अब बिजली की चकाचौंध में सफेद धोती और रेशम की चकमक रामनामी पहने मोटा पंडा चहलकदमी करने लगा।
सचमुच बहुत दिन बीत गए। पुन्नू भी डॉक्टर पूर्णेन्दु बन गया – इतना बड़ा डॉक्टर कि पटना जैसे बड़े शहर में उसका नाम सुनकर ही कोई आपको उसके क्लीनिक का रास्ता बता दे। आलीशान बंगला, लकदक कार, अपार दौलत और नाम – क्या नहीं था पुन्नू .. ओह .. डॉ. पूर्णेन्दु के पास!
लेकिन कुछ लोग केवल ब्रेड और बटर के सहारे नहीं जीते, उन्हें अतीत के अमूल्य क्षण भी याद आते हैं। डॉ. पूर्णेन्दु को भी वह बचपन कभी भुलाए नहीं भूला। शिवहर ... टीले पर बना वह मंदिर ... हनुमान जी का वह कठोर चेहरा .. वह छोटा-सा अनाथ बच्चा देबुआ ... उसकी आंखों की वेदना ... उसके चेहरे की कशिश!
पूरे पैंतीस सालों के बाद पुन्नू आज बड़ा होकर फिर अपने गांव शिवहर आया ... अपनी काली चमचमाती कार में! चाची अब देवलोक को जा चुकी थीं। पीतल की वह छोटी-सी बाल्टी, उसमें गुड़ में पगे आटे से बने सोंधे-सोंधे लड्डू, वह निर्दोष बचपन – सब जा चुके थे। लेकिन सबकुछ पाकर भी वह डॉक्टर अपने उसी बचपन को खोज रहा था। डॉ. पूर्णेन्दु ने अपनी कार उसी इच्छापूरण हनुमान मंदिर की ओर मोड़ दी। सबकुछ बदल चुका था – निर्जनता से भीड़ की ओर, सरलता से जटिलता की ओर, प्रकृति से पदार्थ की ओर!
लेकिन मंदिर की उस भीड़ में वह देबुआ नहीं मिला। टीले के नीचे की उस सीढ़ी के पास, इधर-उधर निहारते, डॉ. पूर्णेन्दु बहुत देर तक खड़े रहे – वह सीढ़ी जो अब संगमर्मर की हो चुकी थी। लेकिन देबुआ नहीं मिला। यूं ही चलते-चलते डॉ. पूर्णेन्दु उस कमल भरे तालाब के किनारे-किनारे भ्रमण करने लगे जिसमें अब कमल नहीं सिर्फ कीचड़ था। डॉ. पूर्णेन्दु को अचानक तालाब के एक घाट के पास खड़ा एक छोटा-सा बच्चा दिख गया जो आने-जाने वालों के सामने हाथ पसारता और लोग उसे कुछ सिक्के दे देते। वही काला-कलूटा नाक-नक्श! वही कशिश! वही वेदना! वही आकर्षण! “देबुआ!” डॉ. पूर्णेन्दु चिल्लाते हुए उसकी ओर दौड़े। “देबुआ!” यह आवाज गूंजी और सामने की झोपड़ी से निकलकर 40-45 साल का एक अधेड़ भिखारी बैसाखी के सहारे लंगड़ाता हुआ दौड़ पड़ा, “किसने पुकारा?”
डॉ. पूर्णेन्दु अवाक रह गए। उनके सामने दो “देबुआ” खड़े थे। वे समय के अंतराल को भूल गए। वह छोटा बच्चा देबुआ का बेटा बुधना था और देबुआ एक दुर्घटना में अपनी टांग गंवा चुका था। गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और निराशा से धुंधला चुकी अपनी आंखों को मलते हुए देबुआ ने डॉ. पूर्णेन्दु को देखा: “बाबू! तुम?” वह पहचान गया। पक्के मकान में पला हुआ पुन्नू तब मंदिर की सीढ़ी के पास खड़े उस काले-कलूटे देबुआ को चाहकर भी गले नही लगा पाया था, लेकिन आज वैभव के महल में रहने वाला डॉ. पूर्णेन्दु अपने आप को रोक नहीं सका। “देबुआ!” उसने जोर से उसे अपने आलिंगन में भींच लिया। देबुआ ने अपनी बैसाखी एक ओर धकेल दी और डॉ. पूर्णेन्दु के कंधे से टिक गया, सुबक-सुबक कर रोने लगा। “अब तुम आ गए हो, बाबू! अब मुझे इस बुधना की तनिक भी फिकर नहीं”, देबुआ ने आंसू के सैलाब से भरी आंखों और भर्राये हुए गले से पास ही खड़े अपने बेटे की ओर इशारा करके कहा। “शांत हो जाओ, देबुआ! अब मैं तुम्हें और बुधना दोनों को पटना ले चलूंगा। अब यह दर्द भरी ज़िन्दगी तुम्हें नहीं जीनी।”
देबुआ का शरीर निढाल हो गया। डॉ. पूर्णेन्दु ने उसे अपने हाथों का सहारा देना चाहा लेकिन देबुआ उसी तालाब के पास धम्म से धरती पर गिर गया। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए थे। तालाब के ऊपर से पंछियों का एक दल उड़ता चला गया। मंदिर की आरती की घंटी बज उठी। डॉ. पूर्णेन्दु चुपचाप खड़े उस बेजान देबुआ को देखते हुए अपने बचपन को याद करते रहे ... सदियों की दास्तान लम्हों में सिमट गई। बुधना फटी आंखों से सबकुछ देखता वहीं खड़ा था। डॉ. पूर्णेन्दु ने बुधना को अपनी गोद में उठाया और अपनी कार की ओर बढ़ने लगे। मन हुआ, यहां तो आ ही गए तो अन्दर जाकर हनुमान जी के दर्शन भी कर ही आवें। बुधना को गोद में उठाए डॉ. पूर्णेन्दु टीले के ऊपर मंदिर में आ गए। एक सम्पन्न, आधुनिक, सुशिक्षित, शालीन, चमचमाते कोट-पैंट पहने व्यक्ति की गोद में देबुआ भिखारी के बेटे बुधना को देखकर कुछ ने अपनी आंखें मलीं, कुछ ने दबी जुबान से मंदिर को अपवित्र करने का आरोप फुसफुसाया, कुछ हैरत से खड़े रहे। नमन करने के बाद, डॉ. पूर्णेन्दु ने हनुमान जी की प्रतिमा को आज फिर से वैसे ही देखा जैसे बचपन में देखते थे। वही एक हाथ में गदा बड़ी दृढ़ता से पकड़े हुए हनुमान! लेकिन आज उनकी मुखमुद्रा कठोर नहीं थी। उसमें वही कातरता थी जो बचपन में पुन्नू ने देबुआ में देखा था। वही दर्द, वही वेदना, वही कशिश ... और उन सबको अपने भीतर लील जाने के लिए ओढ़ी गई हल्की मुस्कान! वही मुद्रा थी हनुमान की, जैसे वे बोल रहे हों, “इन तमाम वर्षों में ये लोग मेरे मंदिर के कंगूरे पर सोने मढ़ते गए लेकिन मुझे तो इन सबने मंदिर से निर्वासित ही कर दिया।” यह देबुआ की आवाज थी या हनुमान जी की ... डॉ. पूर्णेन्दु पटना की क्लीनिक में बैठे आज भी इस पहेली को सुलझा रहे हैं। लेकिन बुधना अब वहां के सबसे महंगे स्कूल में पढ़ने जाता है।