Image by CS Rashmi Ranga

“अग्नि” संसार के पवित्र तम तत्वों में से एक है, जो अपने स्पर्श मात्र से दूसरों भी को शुद्ध कर देती है, चाहे वस्तु हो या व्यक्ति | अग्नि की दाहकता हर नकारात्मकता और अशुद्धि को मिटा देती है | यज्ञकुंड की अग्नि पीछे छोड़ जाती है "भभूत" जो उस हवन की ऊर्जा को अपने भीतर व्याप्त रखती है, "भभूत" का तिलक लगा कर सनातनी अपने विचारों को तथा औषद्यि के रूप में उसका सेवन कर अपनी देह को पवित्र बना लेते है | एक अग्नि स्नान जो इतिहास में अमर है, शरणागत वत्सल हरि के परम भक्त प्रह्लाद को जला कर मारने का षड्यंत्र रचने वाली हिरण्यकशयपु की बहन "होलिका", जिसकी नकारात्मक माया को दहन कर, भक्त के विश्वास को पुष्ट करते हुए परमात्मा ने प्रह्लाद की भक्ति के शुद्ध स्वरूप से परिचित करवा कर संसार को अपनी भक्त वत्सलता का प्रमाण दिया | अग्नि से अप्रभावित रहने का होलिका का कवच उसके भतीजे प्रह्लाद का रक्षक बन गया, क्योंकि उस बालक की भक्ति शुद्ध थी और माया के बल से किया गया होलिका का छल अशुद्ध था और “अग्नि तो अग्नि है उसका सिर्फ एक ही स्वभाव है अशुद्धि का दहन”, पीछे वही बचता है जो निष्कलंक और खरा हो | बुराइयों के दहन की प्रतीक होलिका हर साल भारत भूमि के विभिन्न स्थानों पर जलाई जाती है, लेकिन इसी होली की 'पवित्र राख' राजस्थान के विभिन्न अंचलों में "प्रेम" की पवित्र भावना और संस्कारों की शुद्ध शिक्षा का आधार बन कर परिलक्षित होती है महा पर्व "गणगौर" के रूप में |

फाल्गुन पूर्णिमा की रात्रि को हुए होलिका दहन के पश्चात अगले दिन की भोर का इंतज़ार करती राजस्थानी युवतियां होलिका की राख को एकत्र कर अपने घर लाती है और उसमें पानी मिला कर उसकी सोलह पिण्डी बना कर मिट्टी के खुले बर्तन जिसे जिसे स्थानीय भाषा में "पाळसिया" कहा जाता है में रख देती है | उसे माता पार्वती मान कर, उस मृणमय स्वरूप की पूजा करती है , इस विश्वास के साथ की देवी उन्हें मनोवांछित "वर" और अखंड सुहाग का वरदान प्रदान करेगी | आराधना के इस स्वरूप में जो अनूठी और अनुपम पद्धति है उसमें माता पार्वती को गणगौर नाम से अपनी बहन, पुत्री, और ननद के रूप में आमंत्रित किया जाता है और फिर चैत्र शुक्ल तृतीया और चतुर्थी को भव्य पूजन के बाद जमाता शिव के "ईसर" स्वरूप के साथ विदा कर दिया जाता है | अविवाहित कन्या तथा विवाहित महिलाये जो गणगौर पूजती है उन्हें "तीजणी" कह कर बुलाया जाता है | विवाह होने के बाद प्रथम वर्ष और उद्यापन किये जाने तक विवाहित स्त्रियों को भी प्रतिदिन पूजन में शामिल होना अनिवार्य माना जाता है, उद्यापन पूर्ण करने के बाद सिर्फ चैत्र शुक्ल तृतीया जिसे “गणगौर तीज” के नाम से जाना जाता है, उसी दिन व्रत एवं पूजन करती है | माटी, चित्र और लकड़ी तथा धातुओं से माता गणगौर की प्रतिमा और स्वरूप बनाए जाते है | राजस्थान के हर अंचल में गणगौर पर्व धूमधाम से मनाया जाता है | जहाँ प्रकृति के स्त्री तत्व को पूजा जाये वहाँ अपूर्ण तो कुछ रह ही नहीं सकता शायद इसीलिए माता गणगौर के पूरे परिवार को सादर पूजा जाता है | पर्वत राज हिमालय की पुत्री गौरी , राजस्थान में क्षत्रिय हेमाचल जी की “कुँवरि गणगौर बाईसा” और उनके पति यानि भरतार “ ईसर” और दो भाई “बरमल {ब्रह्मा} और कानीराम {कन्हैया यानि श्री कृष्ण}”, उनके पुत्र भाइये के रूप में पूजे जाते है | चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से लेकर चैत्र शुक्ल तृतीया तक प्रतिदिन सुबह सूर्योदय से पूर्व गणगौर माता की पूजा की जाती है | मधुर लोकगीतों के माध्य्म से माता को उठाया जाता है , भूमि पर सफ़ेद मिट्टी और गेरू से रंगोली बना कर उसमे "गणगौर, ईसर और भाइये" की आकृतियाँ उकेरी जाती है और रंगबिरंगी गुलाल से उन रंगोलियो को सजाया जाता है | पाळसिये में माता के पिंडी स्वरूप को दूब और जल, रोली, गुलाल से छींटे दिए जाते है, जिसे "केसर कुमकुम करना" या "टीकी देना" कहा जाता है | पिंडी स्वरूप गणगौर पर गुलाल से रंगबिरंगी "चुनरी" बनाई जाती है, जिसे चुँदरी ओढ़ाना कहा जाता है | पाळसिये को सामूहिक रूप से पूजन करती हुई तीजणिया झूला झूलाती है, जिसे लोक भाषा में "हींडा हिन्डाना" कहा जाता है | माता को जगाने, स्नान करवाने, चुनरी ओढ़ाने और सोलह सिंगार कराने से लेकर झूला झुलाने तक की हर प्रकिया के लिए रोचक और भावपूर्ण लोकगीत रचे गए है, जिसका स्वर सुनकर आस पास के लोगो के कानो में मिश्री सी घुल जाती है, ये प्रातःकालीन पूजा सूरज उगने से पहले की जाती है क्योंकि मान्यता अनुसार सूरज जी गणगौर के श्वसुर कुल के सम्बन्धी है, इसलिए गणगौर उन्हें अपनी राजपूत मर्यादा का पालन करते हुए मुख नहीं दिखाती उनके सामने घूंघट रखती है | घूंघट स्वरूप एक चुनरी से पाळसिये को ढक कर उसे बाहर निकाला जाता है | पत्थर के टुकड़े पर रोली, जल, मौली , भोग अर्पित कर "पंथवारी देवी" जो भूले हुए को सही राह दिखती है उनको पूजा जाता है | अपने परिवार की मंगलकामना के "बधावा" गीत के साथ सुबह का पूजन पूर्ण होता है |

कुछ स्थानों पर सुबह- सुबह दूब चुनने के लिए जाने का रिवाज है , हरी घास से भरे बगीचे गणगौर में रौनक से भरे रहते है | सोलह बार गणगौर और ईसर जी को दूब की सहायता से जल और रोली से छींटे दिए जाते है | गौर गौर गोमती ईसर पूजे पारवती , राणी पूजे राज ने म्हे माके सुहाग ने... इस गीत के जरिये अन्न-धन, लाछ-लक्ष्मी, ऊँचा मौड़ा अर्थात विशाल दरवाजे वाला घर , माँ-बाप, भाई-भतीजों, सास-ससुर का जोड़ा यानी भरा-पूरा परिवार, पूत धणी का राज यानि पुत्र और पति के राजसी वैभव के लिए प्रार्थना करती कुंवारी कन्याए और नवविवाहिता स्त्रियाँ अपनी खुशियों के रूप में अपने पूरे परिवार के लिए मङ्गलकामना करती है |

मारवाड़ अंचल में सुबह सवेरे उठकर तीजणिया "गवर गणगौर माता खोल किवाड़ी, बाहर उभी थारी पूजन वाली " इस गीत के जरिये देवी को अपने पिता दादा का नाम बता कर मानो अपनी कुल-परम्परा का परिचय दे रही होती हैं | वैदिक रीति की अर्चना पद्धति में पूजन की शुरुआत में संकल्प के जरिये अपने नाम और गोत्र को बता देने के चरण को मानो हमारे पुरखों ने अबोध बालाओ के लिए गीतमय बना कर सरल कर हो दिया हो | अगले चरण में सामूहिक अथवा अकेले वें भूमि को गोबर से लीप कर पवित्र करती है | " म्हे हरिया गोबर गोली दो.. म्हे चन्दन चौक पुरायासा, म्हे बरमल ने परनायसा, म्हे कानीराम ने परनायसा म्हे फूटरी लाड़ी लायसा" , हास परिहास से भरपूर इस गीत के जरिये अपने भाइयो के लिए सुन्दर वधू की कामना करती युवतिया गणगौर की पूजा में तन्मय रहती है | फिर सफ़ेद मिट्टी से अलग अलग आकार की आकृतियाँ बनाई जाती है जिसे "मांडना" कहा जाता है, इन आकृतियों के विषय भी गृहस्थ धर्म से जुड़े होते है यथा स्वस्तिक, घर, तोता { गणगौर माता के कई गीत तोता-मैना से जुड़े होते है, इन्हे प्रेम-पंछी माना जाता है}, महादेव का डमरू , त्रिशूल, दर्पण-कंघी , मयूर , चाँद -तारे इत्यादि | सोलह से अठारह दिनों तक की जाने वाली इसी पूजा के दौरान कई व्रत-त्यौहार मनाये जाते है, उस दिन उस त्यौहार विशेष से जुड़ा मांडना बनाया जाता है |होलिका दहन के बाद के रविवार के दिन बहने अपने भाइयों के अच्छे स्वास्थ्य और लम्बी आयु के लिए व्रत रखती है , जिसे “सूरज -रोटा” कहा जाता है , उस दिन सूर्य देव की आकृति का मांडणा बनाया जाता है | शीतला अष्ट्मी के दिन घड़े की आकृति उकेरी जाती है | अंतिम दिन की पूजा में पालकी, नौका, गाडी, या किसी भी पसंदीदा वाहन की आकृति उकेर कर माता के लिए सुविधापूर्ण और शुभ यात्रा की कामना की जाती है |

मान्यता अनुसार चैत्र कृष्ण अष्टमी को शिव भोले अपनी भार्या को वापस लाने के लिए “ईसर” रूप में धरती पर आते है , ऐसे में देवी के लिए पुत्री भाव रखने वाले श्रद्धालु भोलेनाथ का स्वागत दामाद के रूप में करते है इसीलिए शीतला अष्टमी के दिन से पूजन की प्रक्रिया दिन में तीन बार की जाती है | प्रथम सुबह का पूजन , मध्याह्न काल में गीली गुलाल से मंदिर, चबूतरों अथवा घर के भीतर शुद्ध स्थान अथवा लकड़ी के पाट पर रंगोली आकृतियाँ बनायीं जाती है, उनमे भी गणगौर, ईसर और भाइये को स्थान दिया जाता है पर इन मांडनो का आकर अपेक्षाकृत छोटा होता है, इस विधि को "दांतानिया" कहा जाता है | गीतों का स्वरूप थोड़ा बदल जाता है, अब प्रार्थनाओं के स्थान पर श्रृंगार रस के भाव शामिल हो जाते है, कुछ गीत बहन-बेटी की विदाई के बाद पीहर वालो की मनः स्थिति और उसका गणगौर के त्यौहार पर माइके आने का विवरण देने वाले होते है बाकी के गीतों में दामाद और बेटी के युगल स्वरूप के लिए मंगलकामना की जाती है | "टीकी" यानी बिंदिया "हिंगलू" यानि सिन्दूर और "चुड़ला" यानि चूड़ियाँ खरीद कर लाने वाले गौरा-पति महादेव अपने दाम्पत्य-कर्तव्यों का निर्वाह कर अच्छे पति होने का कर्तव्य निभाते है | "कांगसियो" "इण्डाणी" इस समय पर गाये जाने वाले लोकगीत है | कांगसियो राजस्थानी भाषा में कंघे को कहा जाता है जहाँ गणगौर की सखियाँ उनसे उनका कंघा माँग कर विनोद करती है, वही "इण्डोनी " एक कपडे अथवा रस्सी से बना एक आधार होता है जिस को सिर पर धारण करके पणिहारी घड़े को उठाती है | लोककथाओं के अनुसार बालिका गणगौर को ईसर रुपी शिव पनघट पर छदम वेश में मिलकर उसकी प्रेम निष्ठा की परीक्षा लेते है |

पूजन के तीसरे चरण में सूर्य ढलने से पहले गणगौर और ईसर जी को विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है जिसे "बासा" कहा जाता है, कुछ स्थानों पर सामूहिक गोष्ठियों से उत्सव मनाये जाते है जिसे "बन्दोली" कहा जाता है | इस समय गणगौर और ईसर की मूर्तियों का पूजन किया जाता है |बासे के समय गाये जाने वाले गीत थाल आरोगने यानी भोजन करने की विनती करने, पंखा झलने, जलपान करने, मुखवास के रूप में ताम्बूल और लौंग इलाईची खाने के अनुरोध की विषय वस्तु से जुड़े होते है | किसी गीत का भाव दास्य तो कही सख्य भाव की ठिठोली और कही सालियो द्वारा जीजा से गोष्ठी यानी दावत देने की जिरह और कही जुगल जोड़ी के सौन्दर्य का वर्णन किया जाता है | कुछ गीत अनुभवी स्त्रियों द्वारा गणगौर को पतिगृह में अपने कर्तव्य का पालन करने की सीख देने से जुड़े होते है तो कुछ में जामाता ईसर को अपनी कोमलांगी गणगौर का ख्याल रखने की हिदायत देने और तीज और चौथ के मेले में जरूर आनेका निमंत्रण देने से जुड़े होते है |" भांग" श्रेणी के लोकगीत दामाद को विनोदपूर्ण कटाक्ष करने से जुड़े होते है |” गणगौर” , “मूमल”, “काजळियो”,” जल्ला-मारू”, “सुवटियो”, “लूनदारियो” लोकगीत राजस्थानी गायन शैली के आधार माने जाते है, जिनकी विषय वस्तु और शब्द रचना अद्भुत और प्रेरणादायी होती है | स्त्री के हर अंग की खूबसूरती का बखान वो भी बेहद दिव्य और मर्यादित शब्दों में , पवित्र और अद्भुत उपमा को सुन कर इन लोकगीतों की रचना करने वाले अज्ञात रचनाकारों को प्रणाम करने का मन करता है | नख-शिख प्रत्येक अंग का सौंदर्य विवरण स्पष्ट और शालीन शब्दों में किया गया है |

शीश जटा -दार नारियल, वेणी वासुकि नाग, हाथ में गुलाब का फूल लिए हुए गढ़ के ऊंचे महल से उतरती गणगौर,उनकी भोंहे भँवरे के समान, ललाट चार अंगुली जितना चौड़ा, आँखें रत्न जड़ित, नाक तोते की चोंच के सामान है, होंठ परेवा {कबूतर} के सामान , दाँत दाड़िम-बीज {अनारदाना }, मसूड़े चूने की दीवार जड़े और जीभ कमल पुष्प जैसी , ह्रदय सांचे में ढाला गया और छाती वज्र से बने किवाड़ जैसी जिसमें से पतली कमर बिजली जैसी और पेट पीपल के पत्ते जैसा है मूँगफली सी अंगुलियाँ, चम्पा की डाली सामान बाजू, अँगूठा रत्नों से ज्यादा हुआ है और बड़े थाल जितनी चौड़ी हथेलियाँ है, पैरो पिण्डलिया जैसे महल और जांघ मानो मंदिर का स्तम्भ हो जब गणगौर चलती है तो उसके नूपुर और पाजेब की झंकार गुंजायमान होती है, हिरण के खुरो जैसे तलवे पंजा सौंठ के जैसा , एड़ी दर्पण के सामान चमकती है और पैरो का टखना नाग के समान, जब महल के गवाक्ष में खड़ी गणगौर अपने गज गज लम्बे केशो को संवारती है तो बाग़ में घुमते ईसर को लगता है काले मेघ छाए हो। ...

कुछ गीत वर और वधू पक्ष के बीच, पति और पत्नी के बीच की शिकायतें और नोकझोंक का वर्णन करने वाले कटाक्ष पूर्ण लेकिन मीठी और रसमय वाणी में है , इन गीतों को सुनकर, समझकर लज्जा आती है की क्यों आज के समय सौन्दर्य- विवेचन इतना शालीन तरीके से नहीं किया जाता , हम अपनी जड़ो, अपनी संस्कृति, लोक भाषा और लोक साहित्य से दूर हो गए है शायद ये उसी का दुष्परिणाम हो |

मिट्टी से बनी मूर्तियों के अलावा बीकानेर में बनी लकड़ी की गणगौर की मूर्तियाँ विश्व प्रसिद्ध है| गणगौर की काष्ठ प्रतिमाओं पर के निर्माण और रंगाई की कला "मथेरन कला" के नाम से कला जगत में प्रसिद्ध है | काष्ठ की प्रतिमाये अपनी पुजारिन के सख्य भाव से मानो जीवंत हो जाती है | इन प्रतिमाओं को शृंगारित किया जाता है | माँग टीका, बोरला , नथ, गले में मोती और रत्नो के हार, बाजूबंद करधनी, पायल, बिछिया , लाल-केसरिया लहरिये और बंधेज की राजसी पोशाक, आभूषण और नख शिख शृंगार धारण कर गणगौर अपने नवरंगी स्वरूप में बेहद खूबसूरत नज़र आती है, साथ ही भी ईसर जी राजपूती वस्त्र जिसे "बागा" कहा जाता है धारण करते है | उनके सर पर पगड़ी, रत्न जड़ित कलँगी और गले में हार और कमर में क्षत्रिय कुल की "तलवार" और "कटार" शोभायमान होता है | ऊँचे सिंहासन पर विराजमान, गणगौर के ऊपर छत्र और दोनों तरफ चॅवर और पंखा झलने वाली सेविकाएं ,और शाही शानो शौकत के साथ हर राजपूत रियासत आज भी माता की सवारी और शोभा यात्रा निकालती है, जिसके माध्य्म से आम जनता " शाही गणगौर" के दर्शन करती है | जयपुर, बीकानेर, उदयपुर में गणगौर तीज का मेला धूमधाम से भरता है | अपने घर पर "पाळसिये" और प्रतिमा के रूप में पूजी गई गणगौर को तीज अथवा चौथ के दिन शुभ मुहूरत में उसी प्रकार विदा दी जाती है जिस प्रकार घर की बेटी को विदा किया जाता है | तीज के दिन महिलाये अखंड सुहाग की कामना से व्रत रखती है , लहरिया और बंधेज जैसे पारम्परिक छपाई वाले वस्त्र धारण करती है , सुहाग का सामान माता को अर्पित करती है और उन्हें नाना विधि के पकवानों का भोग लगाती है, साथ ही हरी दूब, गेहूँ के ज्वारों, और अपने आँचल की किनारी से गणगौर और ईसर तथा भाइये की प्रतिमाओं को जल पिलाती है , कुछ स्थानों पर गणगौर प्रतिमाओं को सपरिवार गाजे बाजे के साथ को सरोवर, झील, और कुँए तक पानी पिलाने के लिए ले जाये जाता है | फिर "पाळसिये" में पूजे गए देवी स्वरूप का जल में विसर्जन कर दिया जाता है | राजस्थान ही नहीं देश और विदेश में हर उस जगह जहाँ राजस्थानी रहते है, गणगौर पूजन की परम्परा निभाई जाती है | पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में गणगौर उत्सव धूम धाम से मनाया जाता है जहाँ मिट्टी से बनी गणगौर प्रतिमाओं का पूजन सामूहिक रूप से किया जाता है , सुन्दर और शाही रथों और सवारियों में शोभा यात्रा निकाली जाती है | कुछ परिवारों, व्यक्तियों को उनकी गणगौर के नाम से जाना जाता है | राजस्थान के बीकानेर शहर की "चाँदमल्ल ढढा की गणगौर" विश्व भर में प्रसिद्ध है , उनका अलग से मेला भरता है, प्राचीन शहर की गलियों में एक चौड़े चौक में मखमली शामियाने में मंच पर गणगौर माता अपने पुत्र भाइये के साथ विराजमान होती है | उनके समक्ष एक और ऊँचा मंच बनाया जाता है जिस पर एक ढोल- वादक गणगौर की सेवा में ढोल बजता है और मनोकामना मांगने वाली स्त्रियाँ , युवतियाँ गणगौर के सामने "घूमर " नृत्य करती है और अपनी इच्छा मन ही मन देवी को बताती है , कामना पूर्ण होने पर फिर से "घूमर " कर के देवी का आभार व्यक्त करती है | भादाणी समाज की गणगौर, और आलू जी की गणगौर भी प्रसिद्ध है | लोक संस्कृति की झलक इन मेलों में बखूबी देखने को मिलती है |

“जन्म दियो मारी मावड़ी, माने रूप दियो करतार , म्हें हेमाचल जी री डीकरी और पातलिया ईसर घर नार.... “अपने परिचय में गणगौर बताती है की उन्हें उनकी माता मैनावती ने जन्म दिया, रूप परम पिता परमात्मा ने और पिता हिमाचल की वह पुत्री है , जो ईसर रूप महादेव के घर की नारी यानी गृहलक्ष्मी है | फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर चैत्र शुक्ल चतुर्थी तक के इन दिनों में आदि शक्ति मानव रूप में मानो अपनी हर उम्र की पुजारिन के लिए उसी की हमउम्र पुत्री, सखी बन जाती है और फिर निकल पड़ती है अपने चिर-सखा के साथ अपनी दैवीय दुनिया में |

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