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जीवन में शिक्षा का महत्व बहुत अधिक है, उम्र, अनुभव और ओहदे में हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते है, जिंदगी एक नया पाठ्यक्रम तैयार करती जाती है, जहाँ विद्यालय में पढ़ी पुस्तकों के साथ-साथ , हम व्यवहारिक जीवन के नए सबक सीखते है और जब अध्यापिका जिंदगी खुद ही बन जाए, तो सिखाई गई हर बात समझ में आने के साथ-साथ आचरण का हिस्सा भी बन जाती है। एक अभिभावक के रूप में अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करके लोग उन्हें अच्छे विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में दाखिल कराते है। किताबी ज्ञान के साथ-साथ अगर क्रियात्मक और व्यवहारिक प्रशिक्षण भी दिया जाये तो भविष्य तो सुरक्षित होता ही है, आत्मविश्वास भी बढ़ता है। आर्थिक साक्षरता, वित्तीय समझदारी उसी व्यवहारिक ज्ञान का हिस्सा है। आजादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में अतुलनीय प्रयास हुए है, शिक्षा का अधिकार एक अमूल्य नगीना है, और जीवन को बेहतर बनाने में विद्या का अनुप्रयोग उस जेवर की तरह है जो उस नगीने की चमक में चार चाँद लगा देता है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बाद उच्च माध्यमिक, स्नातक पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को अपनी पसंद का विषय चुनने और उसमें विशेषज्ञता प्राप्त करने का अवसर मिलता है। शैक्षणिक विषय कला, वाणिज्य, विज्ञान, गृह- विज्ञान से जुड़े होते है, जो उनकी अपनी अलग- अलग शाखाओं में और गहन होते जाते हैं। पढ़ाई का यह भाग साक्षर तो बना देता है, पर व्यक्ति शिक्षित हुआ है या नहीं इसका प्रमाण- पत्र तो जिंदगी स्वयं देती हैं, अगर वह खुद अपनी और अपने आसपास के लोगों की जीवन-शैली में एक भी सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम हुआ तो वह सही मायने में शिक्षित माना जाएगा अन्यथा उसने मात्र अक्षर ज्ञान ही प्राप्त किया है। वह साक्षर तो है, पर शिक्षित नहीं। रोटी, कपड़ा और मकान के रूप में परिभाषित आधारभूत जरूरतों का पूरा होना, सुरक्षित और सभ्य जीवन स्तर को सुनिश्चित करता है। मानवीय जीवन के इस संतोषजनक स्तर को जुटाने के लिए जो पहला साधन चाहिए वह है "धन " । इसी आर्थिक साधन का सदुपयोग जिंदगी को बेहतर और सुविधाजनक बना सकता है, अभिभावक अगर अपने मार्गदर्शन से बच्चों का सहयोग करें, तो आर्थिक अनुशासन स्वतः उनके आचरण का भाग बन जाता है ।
सर्वप्रथम तो माता-पिता को स्वयं को अनुशासित करना चाहिए की सन्तान की निजता का अतिक्रमण करने से बचें। जिम्मेदार अभिभावक बनने की प्रक्रिया में कई लोग बच्चों के निर्णय स्वयं लेने लगते है, उन्हें मुश्किलों से बचाने का ये प्रयास ही उनके बच्चों की सबसे बड़ी परेशानी बन जाता है। निःसंदेह सन्तान पर उनका अधिकार होता है, पर बच्चों की इच्छा, उनकी रुचि, उनके डर, उनकी समस्याओं, उनके सपनों, उनके मित्रों के बारे में जानकारी प्राप्त करना भी उनका कर्तव्य है जिसका पालन बहुतायत घरों में नहीं किया जाता। समय के साथ रहन सहन और मकान के शिल्प, दीवार के रंग बदल जाते हैं, पर सोच वहीं पुरानी रहती है। जिस परवरिश में 'भय' का शासन होता है, 'विद्रोह' की संभावना भी वहीं सर्वाधिक होती हैं। "कहीं कुछ गलत ना कर बैठे", इस डर से बच्चों पर कठोर नियमों की लगाम लगा दी जाती हैं, पहरे में पलते मासूम अपने परिवार के नजरिए का चश्मा पहन कर बड़े होते हैं, उन्हीं की नजर से खुद को और दुनिया को देखते हैं। सही और गलत की जो परम्परागत परिभाषा उन्हें बचपन से ही सिखा दी जाती है, उनके लिए वह "ब्रह्म वाक्य" बन जाती हैं, जिसके परे उनके विचार कभी जाते ही नहीं । उनकी स्वतंत्र चिंतन और विश्लेषण की नैसर्गिक क्षमता, कब समाप्त हो जाती है, उन्हें पता ही नहीं चलता। वास्तविक दुनिया से जब उनका साक्षात्कार होता है, तो उन्हें तालमेल बनाने में कठिनाई होती है। समाज में हुए परिवर्तनों से अनजान उन बच्चों को दुनिया काफी अलग लगती है। तकनीक, नवाचार, सामयिक लोक व्यवहार सीखने में, उसे स्वीकार करने में उन्हें थोड़ा समय लगता है। अन्य बच्चों की तुलना में पीछे रह जाने का डर, परिजनों की आलोचना का डर, उनके मन में अवसाद और नकारात्मक प्रवृतियों को जगह बनाने का अवसर दे देता है। कुछ उदारवादी परिजनों के अनुसार व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना चाहिए और इसके लिए उसे पूरी 'आजादी' भी मिलनी चाहिए I "अपने निर्णय खुद लेने चाहिए" अथवा "अपने विकल्प खुद चुनो और उसे सही साबित करो " इस परवरिश के आदर्श-वाक्य होते है। स्वावलंबन की इस सराहनीय विचारधारा में भी कई बार बच्चे खुद को अकेला महसूस करते हैं, स्वतंत्रता के नाम पर स्वछंद आचरण और मार्गदर्शन का अभाव उनको लापरवाह और अनुशासनहीन बना देता है। दिशाहीन व्यक्ति भ्रम, संशय और अनिश्चितता के कुचक्र में उलझ कर या तो गलत निर्णय लेता है, या निर्णय लेने से बचना शुरू कर देता है । गलती का सुधार सही मार्गदर्शन से सम्भव है, परंतु अनिर्णय की स्थिति तो बच्चों के विकास को ही अवरुद्ध कर देती है। संतुलित और क्रियात्मक मार्गदर्शन बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक सिद्ध होता है। हर पहलू की पूरी और स्पष्ट जानकारी चरण-बद्ध तरीके से दी जाये तो उन्हें उचित दिशा मिल जाती है और अपने हिस्से की आजादी का सदुपयोग करने से उनका मनोबल भी मजबूत होता है I धन का सृजन, उसका सदुपयोग, उसकी सुरक्षा और समृद्ध होने की तकनीक जीवन की आर्थिक सुरक्षा के लिए दी जाने वाली महत्वपूर्ण शिक्षा है, जिसके लिए विभिन्न विधियाँ उपयोग में आ सकती हैं ।
महालक्ष्मी की पूजा में गुल्लक, बही- खाते, कलम और दवात को परंपरागत रूप से शामिल किया जाता है, हर बच्चे को अलग गुल्लक दीपावली पूजन के बाद उपहार में मिलता है। जहाँ घर के बड़े बुजुर्ग उनको शगुन के रूप में कुछ पैसे देते है, उन्हीं को गुल्लक में डालने के साथ शुरू होता है बच्चों का आर्थिक ज्ञान- अर्जन। साल-भर अपनी जेब खर्च में से कुछ ना कुछ बचा कर अपनी गुल्लक को भरने का प्रयास जारी रहता है, अगली दीवाली तक चंद कागज़ी नोट और ढेर सारे सिक्कों का खजाना उस गुल्लक के टूटने के साथ खुलता है । उस सिक्कों के ढेर में बाल-मन अपने कई सपनों को जी लेता है और अंततः किसी एक फरमाइश के पूरे होने पर उसे समझ आ जाता है कि अगर मनचाही वस्तु लेनी है तो धन का संचय करना पड़ेगा। गुल्लकनुमा बचत का सबक आगे के जीवन में मजबूत सहारे का काम करता है ।
एक उम्र के बाद जब माता-पिता को बच्चों के जेब-खर्च की राशि बढ़ानी पड़ती हैं तो जरूरत होती हैं कि उनके गुल्लक का आकार भी बढ़ा दिया जाये और उसे बैंक खाते का रूप दे दिया जाए। अवयस्क के लिए दो प्रकार के बैंक खाते खोले जा सकते है। किसी भी आयु के अवयस्क व्यक्ति अपने माता-पिता अथवा अभिभावक के साथ संयुक्त रूप से बचत खाता खोल सकते है, जिसका परिचालन संयुक्त रूप से ही किया जा सकता है।दस वर्ष से अधिक आयु के अवयस्क व्यक्ति का निजी बचत बैंक खाता खोला भी खोला जा सकता है ,जिसका परिचालन एकल रूप से वे स्वयं कर सकते है। इनके लिए अवयस्क के जन्म प्रमाण-पत्र तथा माता- पिता या अभिभावक के केवाईसी प्रमाणपत्रों की आवश्यकता होती है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अवयस्क बचत खाते के लिए न्यूनतम औसत अधिशेष की कोई भी आवश्यकता नहीं है तथा चैक-बुक और डेबिट कार्ड सुविधा भी मिलती है। दो हजार रुपये की दैनिक लेनदेन सीमा के साथ मोबाइल बैंकिंग सुविधा भी उपलब्ध कराई गई है। इससे बच्चों को बचत का महत्व समझाने के साथ- साथ उनका बैंकिंग के आधुनिक रूप से भी परिचय कराया जा सकता हैं ।
बैंकिंग तंत्र से व्यवहारिक और विस्तृत परिचय के लिए तरुणावस्था से ही बच्चों को अपने साथ बैंक ले जाना, उपलब्ध विभिन्न फार्म और बैंकिंग मशीनों को उपयोग में लेने की क्रिया विधि समझाना, पासबुक में प्रविष्टि करवाना उनकी खुद जाँच करना, विविध बैंकिंग कार्ड यथा एटीएम कार्ड, क्रेडिट कार्ड का अर्थ समझाना और उनके उपयोग की विधि समझाना बेहद जरूरी है । बैंकिंग तकनीक से जुड़ाव उनको आर्थिक रूप से सजग और आत्मनिर्भर बनाने में मददगार साबित होता है। व्यापारिक पृष्ठभूमि से जुड़े परिवार व्यापार संबंधी कार्य सौंप कर उनको अपने व्यापार से जोड़ सकते है, विनिमय बिल, कार्यालय संबंधित दस्तावेजों का रखरखाव और संरक्षण, इन्टरनेट आधारित सम्प्रेषण कार्य रुचि से सीख सकते है ।
बच्चों की असीमित ऊर्जा को यदि सही दिशा में स्थानान्तरित कर दिया जाए तो खेल-खेल में उचित शिक्षा दी जा सकती है। बच्चों को घर के कार्यों में शामिल करें और उनके हर सफल प्रयास अथवा पर्याप्त योगदान के लिए मौद्रिक पुरस्कार के रूप में कुछ पैसे दिए जाए तो घरेलू कार्यों के लिए उनका सहयोग भी मिलेगा, उनकी कार्यकुशलता में वृद्धि भी होगी साथ ही उनको परिश्रम से प्राप्त कमाई का महत्व भी समझ आएगा। कार्यों का स्तर उनकी उम्र के अनुसार तय किया जा सकता है, सब्जियां और राशन लाना, समाचार-पत्र, बिजली, पानी, मोबाइल बिलों का भुगतान, दूध का हिसाब-किताब, रद्दी-कबाड़ का निस्तारण, घर-बगीचे की साप्ताहिक रूप से साफ- सफाई, बड़े-बुजुर्गों की नियमित स्वास्थ्य-जाँच, रोजमर्रा का हर काम उनके लिए एक परियोजना बन सकता है, जिसकी सफलता उनको एक अवसर देगी की उनके जेब-खर्च की राशि में इजाफ़ा हो जाए।
शैक्षिक माध्यमों की बढ़ती लागत बच्चों के विकास में बाधा नहीं बन जाए, इसलिए छात्रवृत्ति के रूप में केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा आर्थिक सहायता दी जाती है । विभिन्न छात्रवृत्ति योजनाओं की जानकारी तथा उनकी पात्रता, आवेदन संबंधित जानकारी "राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल" से प्राप्त हो सकती है ।
युवावस्था की ओर बढ़ रहे बच्चों की ऊर्जा और रचनात्मकता को शिल्प, कला, और कौशल प्रबंधन से निखारा जा सकता है। चित्रकला, शिल्प, नृत्य, संगीत, मिट्टी का समान बनाना, सिलाई- बुनाई, कम्प्यूटर, ग्राफिक डिज़ाइन, लेखांकन ,खेल, आत्मरक्षा, योग जैसे क्षेत्रों प्रशिक्षण प्राप्त कर, अपने खाली समय में बच्चे इनके माध्यम से आय अर्जित कर अपने अवकाश का सदुपयोग कर सकते हैं । अपनी पढ़ाई के साथ-साथ ट्यूशन देकर अपनी आर्थिक यात्रा शुरू कर सकते हैं ।
जब भी किसी लोकहित अथवा समाज सेवा के कार्यों में सम्मिलित होने का अवसर मिले तो बच्चों को उसमें भागीदारी करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए । आधारभूत सुविधाओं से वंचित लोगों की मदद में आर्थिक संसाधनों का योगदान करना हमारा उतरदायित्व है, इसकी समझ और इसका निर्वहन करने की प्रवृत्ति उनको अपने माता-पिता को खुद यह कार्य करते देख कर ही मिलेगी ।
उपवन की सुंदरता में माली के ईमानदार प्रयास सिर्फ नज़र ही नहीं आते बल्कि ठंडी छाया और वातावरण में महकती खुशबू के माध्यम से महसूस भी किए जाते है, बस कुछ इसी तरह की बागवानी है "परवरिश "।
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