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“आप ईश्वर पर तब तक विश्वास नहीं कर सकते, जब तक कि आप स्वयं पर विश्वास ना करें”, युगपुरुष स्वामी विवेकानन्द का यह कथन मानो प्रेरणा दे रहा है कि हम अपने आप को भगवान से अलग समझने की बजाय उनके साथ अपने संबंध को ह्रदय से स्वीकार करेंI जब मन स्वयं को स्वयं-भू से एकाकार कर लेता है तब एक अलग ही ऊर्जा काम करती है और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है और शुरु होता है सफर मुश्किलों से लोहा लेने का, उनका सामना करने का। एक छोटी सी बाधा पर मिलने वाली विजय आत्मविश्वास में कई गुना बढ़ोतरी कर देती है, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू अलग है, जहाँ जीत होंसला बढ़ाती है, वहीं एक हार निराशा को बढ़ाने के साथ-साथ कई बार आत्मविश्वास को भी कमजोर कर देती हैं I कुछ लोग किसी अदृश्य शक्ति के अस्तित्व पर विश्वास ही नहीं करते, उनके अनुसार आदमी अपनी तकदीर खुद लिख सकता हैI सफलता और असफलता उसके अपने प्रयासों का परिणाम है I

आस्तिक-नास्तिक, अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित हर वर्ग के लोगों के अपने- अपने अलग संघर्ष हैI महंगाई, गरीबी, स्वास्थ्य से जुड़ी दिक्कतें, पारिवारिक उलझने, सामाजिक मुद्दों से जुड़े संघर्ष ये सब तो हर दौर में उपस्थित रहे है पर सूचना- प्रौद्योगिकी का ये समय कई नवीन चुनौतियाँ भी खड़ी कर रहा है,। एक ओर निजता से जुड़े ख़तरों में व्यक्तिगत जानकारियों के चोरी हों जाने का डर है, वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया के जरिए अपनी नकली पहचान को बनाये रखने का आभासी संघर्ष जारी है, लोगों की असली-नकली का फर्क करने की समझ में कमी आई है और भी कई नए रोग पैदा हुए है जो मनोविकारों की श्रेणी में आते है जैसे तनाव, अवसाद और आत्मघाती प्रवृतियों का सामना , और भी बहुत कुछ है, जो सभी की जिंदगी में कुछ ना कुछ मात्रा में, एक खालीपन या एक चुनौती या एक परेशानी के रूप में मौजूद हैं,I हर किसी के जीवन में एक ना एक लड़ाई निश्चित रूप से जारी है, जिसके सामने कोशिशें कभी जीती है और कभी हारी है I जहाँ कहीं भी हार है , डर है, असुरक्षा है, उसी स्थान पर, एक अवसर, एक जरूरत भी मौजूद है, वह है जरूरत आत्म-साक्षात्कार ,आत्म- अवलोकन और आत्म सुधार करने की I

आत्म-सुधार, अपने आप को बेहतर बनाने की एक कोशिश हैं, और अगर ये कोशिश एक बार भी ईमानदारी से की जाती है तो असर निश्चित रूप से दिखाई देता है। मन में एक उम्मीद जागती हैं कि सब सही हो जाएगा, पर इस बार किसी मसीहा के आकर चमत्कार करने का इंतजार करने के बजाय, व्यक्ति खुद पर भरोसा करता है, और दुगने जोश से अपने काम में जुट जाता है। इस दूसरी बार के प्रयास में एक निडरता होती है, क्योंकि असफलता के परिणाम तो वह पहले से देख और अनुभव कर चुका होता है। भविष्य का डर छोडकर, अपने वर्तमान प्रयासों के प्रति ज्यादा सजग और निष्ठावान होने की, खुद को सुधारने की मानसिकता उसी कोशिश का ही परिणाम होती है, जो आत्म- सुधार की प्रकिया का हिस्सा होती है। जीवन किसी सिनेमा का पूर्व निर्धारित कथानक तो नहीं होता जहाँ सफलता सुनिश्चित हो, पर एक बात निश्चित हो जाती है, विपरीत परिणाम व्यक्ति के मनोबलको नहीं तोड़ पाता।

अगर हम अपने जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाना चाहते है तो आत्म-सुधार के तकनीकों को जानने और अपनाने की आवश्यकता होती हैं। इसमें कुछ ध्यान देने योग्य विषय है, जिनसे परिचय जरूरी है:-

स्वयं के प्रति उत्तरदायी बनना-

अपने व्यक्तित्व को तराशने की पहली शर्त होती है कि हम अपने प्रति जवाबदेह बने। अपनी सफलता-असफलता की जिम्मेदारी खुद उठाए। परिवार, समाज, परिस्थिति को दोष देने की प्रवृत्ति को छोड़ कर, परिणाम को स्वीकार करें, क्योंकि ज्यादातर लोग ये स्वीकार ही नहीं कर पाते कि उनके प्रयासों में कोई कमी है। दूसरों की कमजोरियों को गिनने की बजाय अपने व्यवहार का आकलन करें। अपने आप पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। अपना उतरदायित्व स्वयं उठाना आत्म सुधार का पहला चरण है।

आत्म-अवलोकन-

जब आत्म-अवलोकन किया जाता है तो हम अपने व्यक्तित्व के उन क्षेत्रों को खुद से अलग कर के देख और समझ पाते है, जिनमें हम या तो बहुत श्रेष्ठ होते है, या फिर बहुत कमजोर, कुछ पक्ष संतुलित होते है जहां हम खुद को पर्याप्त रूप से सक्षम पाते है। आत्मावलोकन की इस प्रक्रिया के बाद, असहज महसूस करना स्वाभाविक होता है, क्योंकि अपनी खूबियों को जान कर मिलने वाली खुशी पर अपनी कमजोरी के कारण जन्मा डर हावी हो जाता हैं। यह इस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण चरण है, क्योंकि अपनी कमजोरी को दूर करने की कोशिश करने के लिए जिस भावनात्मक दृढ़ता की आवश्यकता होती हैं, वो इसी चरण का परिणाम और अगले चरण का आरम्भ बिंदु होती है।

सूचीयन-

एक कहावत है कि रोग का मूल कारण यदि ज्ञात हो तो मानो आधा उपचार हो गया,तो बस अपने बेहतर स्वरूप से मिलने का हमारा आधा सफर तो आत्मावलोकन के अंत में मिले उन बिंदुओं पर आ कर समाप्त हो जाता है जिन पर हमें मेहनत करनी है, ये अलग- अलग लोगों के लिए अलग-अलग विषय हो सकते है। किसी को अपने शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारने का काम करना होता है, कुछ लोगों को अपने अंतर्मन में घर बना चुके डर से लड़ना होता है, किसी को अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत बनाने के लिए मेहनत करनी होती है तो कोई सामाजिक छवि को सुधारने की जरूरत महसूस करता है। लिंग, आयु, सामाजिक आर्थिक स्तर पर हर व्यक्ति भिन्न होता है तो उनके लिए आत्म- सुधार की तकनीकें भी भिन्न-भिन्न होगी। यहीं वह तथ्य हैं जिसके आधार पर हम कह सकते है कि आत्म सुधार एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है। इसलिए जरूरी है कि एकाग्रता बनाये रखने हेतु हम अपने कार्यक्षेत्र की विषय-सूची बना ले, उसी के अनुरूप कार्य करें।

अनुशासन-

इस परिस्थिति के अनुरूप बदलने वाली प्रक्रिया में कुछ सार्वभौम पड़ाव है, जिनमें से एक है अनुशासन। जब हम अपने आप को सुधारने का काम कर रहे होते है तो ये बन जाता है आत्म-अनुशासन। उठने-सोने का समय निश्चित करना, काम के लिए निश्चित समय देना, शारीरिक-मानसिक व्यायाम, समय की पाबंदी, घर, कार्यालय के नियमों का पालन करना, ये सब वो बातें है जो हमें बचपन से सिखाई जाती है, पर अपनी व्यक्तिगत आजादी के बहाने हम इनका पालन करने से बचते है। लेकिन जब खुद पर काम करना हो और कम समय में ज्यादा सफलता प्राप्त करने की अभिलाषा हो तो अनुशासन अनिवार्य हैं। नियम- पालन करने की प्रवृत्ति हमारी स्वयं अपने प्रति और समाज के प्रति जवाबदेही को बढ़ाती है और उन अनावश्यक उलझनों से भी बचाती है जिनमें नियमों को तोड़ने के कारण दूसरों के सामने स्पष्टीकरण देना पड़ता है। बेवजह दूसरी मुश्किलों को सुलझाने में अपनी ऊर्जा खर्च करने से बेहतर है नियम पालन के प्रति सतर्क रहे, और अपने काम पर ज्यादा समय दे, ये आदत एकाग्रता को बढ़ाने में भी सहायक है ।

समय की पाबंदी-

हर कार्य के लिए निर्धारित समय-सीमा तय करने से, हम अपने प्रयासों का सही मूल्यांकन करने का एक निश्चित आधार प्राप्त कर सकते हैं। अपने पूर्व प्राप्त परिणामों की वर्तमान परिणाम से तुलना कर के यह निश्चित कर सकते है कि हमारे प्रयास सही दिशा और सही मात्रा में हो रहे है, अगर तुलनात्मक अध्ययन उत्साहवर्धक नहीं हो तो आत्मावलोकन के जरिए अपने कमजोर और मजबूत पक्षों की दुबारा जानकारी जुटा कर, तकनीक में बदलाव करने के साथ-साथ हमें अपने प्रयासों के प्रति ज्यादा निष्ठावान बनना होता हैं। मनोवांछित परिणाम जब तक नहीं मिले तब तक प्रयास रुकना नहीं चाहिये ।यह कार्य कठिन लगता है लेकिन धैर्य की परीक्षा हर हाल में उत्तीर्ण करने का जज्बा हमारी सफलता की नींव रखता है। समय-आधारित लक्ष्य ज्यादा सटीक होते है, क्योंकि हर निश्चित अन्तराल पर खुद को जाँच कर हम यह तय कर पाते है कि आगे बढ़ना है या फिर कुछ और नया सीख कर अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए एक नयी शुरुआत करनी है। यह चरण ये सिद्ध करता है कि आत्म सुधार एक सतत प्रकिया है ।

स्थिरता-

जब हमारे प्रयास सफल होने लगते है तो हम अपने व्यवहार, विचार में बदलाव देख और महसूस कर पाते है, मनोबल मजबूत होता है, आगे बढ़ने का साहस आता है। हम खुद पर भरोसा करना शुरू कर देते है क्योंकि हम जानते है कि हम सही दिशा में बढ़ रहे है। इस मोड़ पर जरूरी हैं कि एक परिवर्तन के साथ पूरी तरह सहज होने के बाद ही एक और नए बदलाव की तरफ़ कदम बढ़ाए जाये, क्योंकि परिस्थितियों में बदलाव तो आता ही रहता है इसलिये किसी माहौल में कुछ समय बिताने के बाद ही हम यह ठीक तौर पर यह तय कर पाते है कि हम उस परिवर्तन को पूरी तरह से समझ और स्वीकार कर पाए है या नहीं। खुद को बेहतर बनाने की ये प्रकिया एक सूक्ष्म और धीमी प्रकिया है, क्षणिक सफलता को स्थाई बनाने के लिए धैर्य जरूरी है।

आत्म-प्रोत्साहन-

अपनी छोटी से छोटी सफलता को सम्मानित करना जरूरी है, क्योंकि आदतों, प्रवृत्तियों और विचारधारा को बदलने में समय लगता है। आत्म प्रोत्साहन इस प्रकिया को सरल और रुचिकर बनाने में सहायता करता है। सामाजिक, पारिवारिक प्रेरणा मिले या ना मिले, प्रयास रुकने नहीं चाहिए क्योंकि प्रेरणा एक बाहरी तत्व है, और बाह्य वातावरण हमारे अनुकूल-प्रतिकूल दोनों ही प्रकार का हो सकता है। इसीलिए अपने आप को सुधारने का बीड़ा अगर हम खुद ही उठाएंगे, तो अनुकूल माहौल, सहयोग करने वाले लोग स्वतः ही मिलने लगेंगे । जब हम अपने डर का सामना करने के लिए खुद को तैयार कर के आगे बढ़ते है तो उसी समय डर की सत्ता खुद ही समाप्त हो जाती है, और हम अपने व्यक्तित्व के एक नए रूप से मिलने में कामयाब होते है, जो आत्म-गौरव का विषय बनता है ।आत्म-गौरव की कुंजी आत्म-सुधार ही हैं।

परिंदे को देख कर उड़ने की ख्वाहिश को जब परिश्रम और कर्मठता का साथ मिला, तो एक यांत्रिक आविष्कार ने मानव को पंख दे दिए, ये सिद्ध कर दिया कि असम्भव कुछ भी नहीं बशर्ते खुद काम करने के साथ-साथ खुद पर भी काम किया जाए।

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