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जय गणेश जी महाराज! जय हो आस माता की!
जयकार से गुंजायमान विप्रा के घर में श्रद्धा-भक्ति और चहल-पहल का माहौल था, सभी महिलाओं ने सुंदर से वस्त्र और मोतियों की माला पहन रखी थी, थाल में आटे और गुड के चूरमे से बने लड्डू और कई तरह की मिठाइयां, गेहूँ के दाने, रोली-चावल, काजल की डिबिया और “मौली” यानी कलावा के धागे और धूप-दीप रखे थे । बड़ी दादी खाट पर बैठे सब को निर्देश दे रही थी । मुहल्ले की औरते आती, दीवार पर बनी देवी की पूजा करती और बड़ी दादी के चरणस्पर्श करती । दुधो नहाओ! पूतो फलो! का आशीर्वाद लगातार उनके द्वारा दिया जा रहा था। एक अघोषित सा अनुशासन था वहाँ, जिसमें बड़ी से छोटी बहू के क्रम में पूजा का अवसर मिलता, उनमें कुछ नवविवाहित थी जो अपने साज श्रृंगार और विनम्र व्यवहार से भीड़ में अलग ही नजर आ रहीं थी । “कितनी देर है शांति ?” बस हो ही गया अम्मा, कावेरी चाची के बाद मैं पूजा कर लूँ, फिर आप कथा शुरु कर दीजिए । शांति यानी नन्ही विप्रा की दादी जो हर त्यौहार पर उसे अपने साथ पूजा में ले जाती और उनसे जुड़ी रोचक बातें बताती, सात साल की विप्रा को ये सब बड़ा अच्छा लगता था । सिक्के का दूसरा पहलू यह भी था कि घर में एक “शांति” ही थी जो उसके अनगिनत सवालों को ना सिर्फ सुनती थी, बल्कि उनका जवाब भी देती थी ।
आज “आस चौथ का पर्व” है । आशा-मंशा पूरी करने वाली आस माता । दादी ये तो पाँच देवियाँ है ! हाँ लाडो! पहले पूजा कर ले फिर सब के बारे में जानकारी मिल जाएगी तुझे, बोलते हुए दादी ने उसे प्यार से चूम लिया । विप्रा बड़े कौतूहल से देखने लगी, उसकी दादी ने सबसे पहले बाये हाथ में जल ले कर दायें हाथ से पूरे शरीर पर जल के छीटें दिए, मुस्कराहट के साथ चंद बूंदें विप्रा की ओर उछाल दी । जल-रोली के छींटे दीवार पर बनी देवियों की ओर उछाल दिए, दाएं हाथ कि अनामिका से पाँच बिंदियाँ रोली की, पाँच बिंदियाँ काजल से दीवार पर बनायी । कलावे के धागे को हाथ में ले कर उसमें पाँच गांठें बांधी और हार की तरह उसे उन बिंदियाँ के रूप में बनी देवियों को पहना दिया, कुछ दाने गेहूं के देवियों को समर्पित किए और बाकी दाने हाथ में ले कर मन ही मन कुछ प्रार्थना करके उन्हें अलग से एक कटोरी में रख दिया, धूप-दीप से अर्चना करने के बाद दक्षिणा के लिए रुपये चढ़ाए और सिर को जमीन से स्पर्श करा कर “ढोक ”दी और उसका अनुकरण विप्रा ने भी किया । दोनों दादी पोती आँगन में बैठी बड़ी दादी की खाट के पास बिछे कालीन पर पहले से बैठी अन्य स्त्रियों के साथ बैठ गई। विप्रा की माँ और चाची ने सब स्त्रियों के हाथ में गेहूं के कुछ दाने यानी “आखे” दिए, जो व्रत-कथाओं के ध्यानपूर्वक सुने जाने के परम्परागत साक्षी थे ।
बड़ी दादी ने कथा आरम्भ की, एक संपन्न साहूकार के परिवार में उसके सात पुत्रों में से सबसे छोटा पुत्र आलसी था, जहाँ घर के सभी पुरुष दिन भर मेहनत करके धन का अर्जन करते, वह आवारागर्दी करता, उसकी पत्नी घर में नौकरानी की तरह काम करती थी और अपने पति को मेहनत करने के लिए प्रोत्साहित करती किन्तु वह उसकी एक ना सुनता । माँ का लाडला भी भला काम करेगा ! कितना ख्याल रखती है माँ मेरा, रोज अलग-अलग तरह के व्यंजन बना कर मुझे खिलाती हैं, मेरे बिना भोजन तक नहीं करती, उनके होते कैसी चिन्ता ? लापरवाही से जीवन चल रहा था उसका, एक दिन जब कोई मित्र नहीं मिला तो वह जल्दी घर आ गया और बोला “आओ माँ! भोजन करें” ।अभी ?... नहीं बेटा ! अभी तो बहुत काम है, थोड़ी देर रुक जा, सकपका कर उसकी माता बोली । माँ के लहजे में परिवर्तन देखा तो उसे संदेह हुआ कि कुछ तो गडबड है । झीना चादर ओढ़ कर वह रसोई के पास ही सो गया, आंखे मूँदे झूठमूठ लेटा रहा । उसने देखा कि एक-एक कर के सभी भाई और पिताजी भोजन कर के चले गए, सब के लिए एक अलग व्यंजन विशेष रूप से बनाया गया था, जब सब चले गए तो उनकी थालियों में बची हुई जूठन को, एक अलग थाली में परोस कर उसकी माता जी ने उसे आवाज लगाई,” आ जा बेटा ! उठ भी जा, परोसी गई थाली को तरसाया नहीं करते, आ लाला थाल अरोग” ! “थाल अरोग ? अरे अम्मा ! सच क्यों नहीं बोल देती की आ जा निकम्मे ! जूठन चाट । गुस्से में तमतमाते हुए वह घर से बाहर निकला । पीछे-पीछे उसकी पत्नी उसे समझाने के लिए दौड़ी । स्वामी जरा रुकिए ! अपनी माता को गलत मत समझिए । शांत हो जाइए । पत्नी से क्षमा मांगते हुए साहूकार का पुत्र बोला, “मेरे बेरोजगार होने के कारण तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ा, तुमने मुझे कितना समझाया परंतु मैंने तुम्हें ही गलत समझा ” ।
“कोई गलत या सही नहीं होता स्वामी! नियति अपना मार्ग खुद ही बना लेती है, आपके भाई आपके बुजुर्ग माता-पिता के प्रति अपना कर्तव्य निभा तो रहे हैं ना, बस आप और मैं ही उनके लिए आर्थिक बोझ बने हुए थे । जो आपको जूठन नजर आई, वह आपकी माता के लिए तसल्ली थी कि उनके बच्चे का पेट भर गया। संसार में मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता, मेरे रूप में चौबीस घंटे बेगार में मिली नौकरानी के लिए, उन्होंने हमें घर में रहने की अनुमति दे दी । मुझे काम करना बुरा नहीं लगता क्योंकि जगत की रीत ही है कि ‘जाकि खाई बाजरी, ताकि भरनी हाजिरी ‘। जब जागो तब ही सबेरा । अब जब स्वाभिमान जग ही गया है, तो आप परिश्रम करिए । ईश्वर आपको सफलता अवश्य प्रदान करेंगे । नाराज हो कर नहीं, अपनी माता का आशीर्वाद ले कर काम की तलाश में जाइए।“ उसकी पत्नी बोली। साहूकार के पुत्र ने अपनी माँ से क्षमा माँगी और काम की तलाश में रवाना होने लगा। जाते समय उसकी पत्नी ने एक चांदी का ‘छल्ला’ जो उसे विवाह के अवसर पर उपहार के रूप में मिला था, उसके बालों में बाँध दिया और कहा कि यह आपको मेरी याद दिलाता रहेगा । उसने अपने पति को सतीत्व पर अटल रहने का वचन दिया और एक पोटली में भोजन और ‘छागल’ (विशेष प्रकार के मोटे कपड़े से बनी ढक्कन युक्त पानी की थैली) जल से भर कर दे दी । आशा की डोर थामे आगे बढ़ जाइए नाथ ! “आस माता” आपकी मनोकामना पूरी करें, आप भी ‘आस’ ले कर आए अतिथि की यथा शक्ति मदद करना । धन्यवाद “जसमा दे”.. ! पत्नी से विदा ले कर वह आगे बढ़ा और काम की तलाश करने लगा ।
रास्ते में घनघोर जंगल आया, थकान मिटाने वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया, तभी उसने एक स्त्री को देखा । जब वह उसके निकट आयी तो साहूकार- पुत्र ने कहा, “प्रणाम देवी ! कौन है आप… क्या आप मार्ग भटक गई हैं, मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ ?” स्त्री ने उतर दिया, “ मैं ‘भूख’ हूँ ” । ‘भूख’…! ठंडा श्वास लेते हुए वह बोला मैं भी अन्न-धन की भूख मिटाने के लिए ही घर से निकला हूँ । अपनी भोजन की पोटली उस स्त्री को दे कर, उस से विदा ले वह आगे बढ़ा । थोड़ी दूर चलने के बाद उसे एक और स्त्री मिली जिसको प्रणाम करने के बाद उसे ज्ञात हुआ कि उसका नाम ‘प्यास’ है । जल की थैली उसे दे कर उसने वहाँ से भी विदा ली और अपने पथ पर आगे बढ़ा । आगे चलते हुए मार्ग में उसे फिर से एक और स्त्री मिली, जिसने अपना परिचय “नींद” के रूप में दिया । जब उसने उस स्त्री को प्रणाम किया तो अचानक उसे गहरी नींद आ गई, घंटों सोते रहने के बाद जब उसकी आँख खुली उसने अपने समक्ष एक और स्त्री को खड़े देखा, प्रणाम करने पर उस स्त्री ने अपना परिचय ‘आलस्य’ के रूप दिया । आलस्य…..इसी आलस्य के चलते अपना इतना कीमती समय नष्ट कर दिया मैंने, देवी! आप मुझे क्षमा करें । अंगड़ाई मरोड़ कर उसने आलस्य दूर भगाया और विनम्रतापूर्ण विदाई ले कर वह आगे बढ़ा । आगे की राह जाने कैसी होगी, वह सोच ही रहा था कि उसने अपने समक्ष एक और स्त्री को खड़े देखा, एक अलग ही दिव्यता की अनुभूति हुई उसे देखते ही।
आप कौन है देवी ?
“मैं आशा हूँ!” आशा………एक सुकून भरी मुस्कराहट के साथ उसने उस स्त्री को प्रणाम किया और कहा “माता! मैं मूढ़ आप ही के भरोसे घर से निकला हूँ, कुछ करना चाहता हूं, आशीर्वाद दीजिए । “अपनी अकर्मण्यता से बाहर निकलने के तुम्हारे इस प्रयास से मैं बहुत प्रसन्न हूँ वत्स ! तुम्हें मेरा आशीर्वाद है, शीघ्र ही तुम्हें उज्जैन नगरी का राज्य मिलेगा” यह कह कर वह देवी अदृश्य हो गई । कुछ समझ आता इससे पूर्व बेहोशी ने उसे घेर लिया, जब होश आया तो देखा आसपास काफी भीड़ और कोलाहल का वातावरण है । खुद को संयत कर वह उठा और राह चलते एक व्यक्ति से पूछा, कौन सा गांव है यह भाई ? नए आए हों क्या ? यह कोई गांव नहीं, नगरी है नगरी.. उज्जैन नगरी, बड़े भाग्यशाली हो जो आज के दिन यहाँ मौजूद हो, राजा जी की पवित्र हथिनी भावी राजा का चयन करेगी । उज्जैन नगरी..भावी राजा…यानी आस माता सत्य कह रही थी पर यह कैसे सम्भव होगा ? वह मन ही मन विचार कर रहा था कि राजकीय घोषणा करने आए सैनिकों को उस ने देखा । “सभी को यह सूचित किया जाता है कि आज दोपहर नगर-मैदान में उपस्थित हो, पवित्र हथिनी जिसके भी गले में माला पहनाएगी वहीं भावी राजा बनेगा” । नगाड़े के साथ उद्घोषणा को करने आए सैनिक आगे चले गए ।
अपने भाग्य को आजमाने और आस माता के आशीर्वाद पर विश्वास करके साहूकार का पुत्र दोपहर को नगर-मैदान में पहुँचा, सारी भीड़ को दरकिनार कर हथिनी ने उसके गले में जय माला पहनाई । उसे बाहरी व्यक्ति और साधारण मनुष्य मान कर अयोग्य जान कर,‘हथिनी से भूल हो गई’, यह कह कर दुबारा हथिनी को माला दी गई परंतु इस बार साहूकार-पुत्र को नगर परकोटे से बाहर कर दिया गया । हथिनी उसे ढूँढती हुई उस स्थान पर पहुंच गई, और फिर से उसी के गले में माला डाल दी । “लगता है हथिनी इस से परिचित हो गई है” यह कह कर इस निर्णय को भी नकार दिया गया । सैनिकों ने साहूकार-पुत्र को गोबर के टीले में छिपा दिया, तीसरी बार फिर से हथिनी को माला दी गई, राजा ने उसके चरणों में प्रणाम कर के कहा, नगर का भविष्य आपके हाथ में है, सही व्यक्ति का चयन करना राजा ने घोषणा करी कि इस बार का निर्णय अंतिम होगा । हथिनी उस गोबर के टीले के निकट पहुँच गई, अपने शरीर से उसे गिराया और उसमें छिपाए गए साहूकार-पुत्र के गले में माला डाल दी । ईश्वर का निर्णय मान कर उसे भावी राजा घोषित किया गया । शुभ तिथि देख कर उसका राज्याभिषेक किया गया । राजा बनने के पश्चात उसने बहुत अच्छे से शासन-कार्य संभाला, बहुत से पुण्यार्थ कार्य किए । नए राजमार्ग, उनके दोनों तरफ उद्यान विकसित कराए, विश्राम शालाओं का निर्माण कराया, स्थान-स्थान पर पेय जल की प्याऊ बनवाई । हर नवनिर्माण के अवसर पर वह एक शिलालेख बनवाता जिस पर अंकित होता “ जसमा दे रानी “, उसके राज्य में प्रजा बहुत सुखी-समृद्ध थी ।
वहीं दूसरी ओर उसके घर छोडकर जाने के पश्चात उसके परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी, कारोबार बैठ गया । एक दिन उसके पिता जी को उज्जैन के राजा की दयालुता और करुणा की चर्चा सुनने को मिली कि राजा ने वृद्ध लोगों के लिए विशेष सहायता और सुविधाओं की व्यवस्था की है, युवाओं के लिए काम और पर्याप्त वेतन और मजदूरी उपलब्ध कराने के आदेश दिए हैं । उन्होंने परिजनों के समक्ष उज्जैन जा कर बस जाने का प्रस्ताव रखा, जिसे सब ने स्वीकार कर लिया । सब अपनी यात्रा की तैयारी करने लगे, पीछे सिर्फ छोटी पुत्र--वधू रह गई क्योंकि ख़राब माली हालत में उसके भरण पोषण की जिम्मेदारी कोई भी उठाना नहीं चाहता था । सास-ससुर के द्वारा समाज में बदनामी से बचने के तर्क से सहमत हो कर उसे भी साथ चलने की तैयारी करने को कहा । पूरा परिवार उज्जैन की ओर निकला । लंबा रास्ता उसी जंगल से गुजरता था जिस को साहूकार के छोटे पुत्र ने पार किया था लेकिन अब उस मार्ग की स्थिति बहुत बेहतर हो गई थी। अच्छी सड़क, दोनों तरफ छायादार, फल देने वाले वृक्ष, सुंदर पुष्पों से सजे बगीचे, हर थोड़ी दूर पर पथिकों के विश्राम हेतु विश्रामालय और प्याऊ बने हुए थे । एक पड़ाव पर जब पानी पीने के लिए पूरा परिवार रुका तब शिलालेख को देखते हुए छोटी पुत्र-वधू ने विस्मित होते हुए कहा कि इस पर “जसमा दे” लिखा है मेरा नाम!.. हाँ और उसके पीछे ‘रानी’ भी लिखा है, वह दिखाई नहीं दिया तुम्हें ? कटाक्ष करके बड़ी जेठानी बोली और सब जोर-जोर से हँसने लगे । आगे की यात्रा पूरी करके पूरा परिवार उज्जैन पहुँचा, नगर की शोभा देख कर सब बहुत खुश हुए, काम की उम्मीद में राजमहल पहुँचे । महल के झरोखे से राजा ने अपने भाइयों और पिता को देखा ।मंत्री को आदेश दिया कि आगंतुकों के विश्राम और भोजन की व्यवस्था की जाए, उन्हें बताइए कि कल से उन्हें कार्यभार दिया जाएगा, किस को क्या काम करना है यह राजा स्वयं तय करेंगे, मंत्री ने आदेश की अनुपालना की ।
अगले दिन उनके पास राजकीय आदेश पहुँचा जिसके अनुसार बुजुर्ग दंपति को महल के भीतर बने प्याऊ पर बैठकर आगंतुकों को शीतल जल और पेय पदार्थों की मनुहार करनी थी, अन्य पुरुष महल के विभिन्न विभागों में नियुक्त किए गए, स्त्रियों को भोजन बनाने का कार्य दिया गया, परंतु छोटी पुत्र-वधू के लिए राजा ने आदेश दिया कि वह सप्ताह के अंतिम दिन राजा के बाल धोने का कार्य करेगी, राजा साप्ताहिक रूप से अपने बाल धुलवाएंगे । पराये पुरुष के इतने निकट जाने के विचार से ही छोटी पुत्र-वधू भयभीत हो गई, उसने यह कार्य करने से स्पष्ट मना कर दिया । उसके ससुर जी ने समझाया कि उसके इनकार की कीमत पूरे परिवार को चुकानी होगी, एक तो सभी का रोजगार चला जाएगा दूसरी ओर राजाज्ञा उलंघन के अपराध में मृत्युदंड भी मिल सकता है, आखिरकार परिवार के हितार्थ उस कार्य को करना उसने स्वीकार कर लिया । सभी परिजन अपने काम में व्यस्त हो गए और सप्ताह के अंतिम दिन छोटी बहू को राजा के स्नानागार में उपस्थित होने का आदेश मिला । डरते-सकुचाते वह पहुंची, देखा कि राजा पहले ही वहाँ आ गए थे, उसकी ओर राजा की पीठ थी । राजा ने जलपात्र की ओर इशारा किया, खुद को संभाल कर वह राजा के निकट गई, राज-मुकुट को जैसे ही हटाया उसके नेत्रों से नीर बह चला जिसकी बूँद राजा की पीठ पर पड़ने लगी । “हमारे स्नान के लिए विशेष शीतल जल रखा गया है फिर भी ये गरम पानी की बूंदें कैसे आई”, राजा के स्वर को सुन कर वह और जोर से रोने लगी । घूंघट में उसे राजा का चेहरा तो नजर नहीं आया, पर उस आवाज से वह परिचित थी । “आप उज्जैन नरेश के संरक्षण में है देवी ! फिर कैसा भय ? आपको अभयदान दिया जाता है, अपनी समस्या बताइए” । राजा की बात सुनकर उसने उतर दिया, क्षमा कीजिए महाराज ! मैं स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाई, आप के बालों में जो चांदी का छल्ला गूंथा है कुछ इसी तरह का छल्ला वर्षों पूर्व मैंने भी अपने पति को निशानी के रूप में बांधा था, आपका स्वर भी उनसे बहुत मिलता है, उनकी स्मृति में बहे मेरे आँसू आप की पीठ पर गिर गए । अपने नेत्रों को खुशी के आँसू अनुभव करने का अवसर दो ‘जसमा दे’ तुम्हारा विरह समाप्त हुआ । तुम्हारी तपस्या ने नकारा बिगड़े लड़के को उज्जैन का राजा बना दिया । घूंघट हटाओ और देखो मुझे । राजा की बात सुनकर उसने घूंघट उठाया, पति को वर्षो बाद देखकर उसकी खुशी की कोई सीमा ना रही, पति के चरण-स्पर्श किए । राजा ने उसको ह्रदय से लगा लिया । पत्नी सहित वह अपने माता-पिता और परिजनों से मिलने पहुँचा, मिल कर अपनी पूरी कहानी सुनाई । उसके माता-पिता बहुत प्रसन्न हुए, सब परिजन अपने व्यवहार पर लज्जित थे, सब ने क्षमा मांगी, राजा ने सब को माफ दिया । राजा-रानी सपरिवार सुखमय जीवन बिताने लगे । रानी ने सन्तान की कामना की ‘आस’ माता की कृपा से उन्हें पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई।
होलिका-दहन के बाद चौथे दिन पूरा राज्य “आस-चौथ” का पर्व मनाए ऐसी घोषणा करवाई गई । स्वयं राजा-रानी ने भी व्रत किया। जब पूजा हो रही थी तब नन्हें राजकुमार ने अपनी माता के गले पहनी मोतियों की माला को जोर से खींचा, जिससे वह माला टूट गई और मोती बिखर गए । रानी जी आपका हार टूट गया, दासी ने चिंता में कहा । रानी ने विनम्रता से उत्तर दिया “बाई सा हार ना टूटा है, शीश रानी आस माता का आशीष टूठा (तुष्ट हुआ) है।“ हे आस माता जैसे साहूकार के छोटे पुत्र-पुत्रवधू को तुष्टमान हुई, वैसी सब को तुष्टमान होना..!
आस माता की जय बोलते हुए सब स्त्रियों ने गेहूं के दाने अपने नेत्रों से स्पर्श कराए और पास बने चबूतरे की तरफ उछाल दिया। भूख, प्यास, नींद और आलस्य से मुक्त हो कर जब उम्मीद का दामन थामे मनुष्य कर्तव्य-पथ पर जब आगे बढ़ता है तो सफलता अवश्य मिलती है, पाँच देवियों का अर्थ समझ आया मेरी लाडो ! विप्रा की दादी ने मुसकुराते हुए पूछा, हाँ समझ आया दादी !... खिलखिलाती विप्रा गेहूँ चुनने आए परिंदों संग खेलती हुई बोली।