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नई दिल्ली लिखा साइन बोर्ड, ट्रेन की बजती सीटियों के बीच लंबे से प्लेट-फार्म पर लोगों की भीड़। कोई ट्रेन में चढ़ रहा है कोई उतर रहा है, किसी के पास महंगे सूटकेस, किसी के पास देसी थैला, कोई कोक का ‘सिप’ ले रहा है, कोई कुल्हड़ वाली चाय का ‘सूडका’ । इन सबके बीच काफी भिन्नता होने के बाबजूद कुछ चीजें एक जैसी है, जैसे कि एक ही ट्रेन के यात्रियों का गंतव्य, एअर कंडीशनर कम्पार्टमेंट से लेकर लोकल कोच तक बिकती चाय, “ टाईम पास मूँगफली”, चिप्स और बिस्कुट के पैकेट । महंगे टिकट के साथ ‘सर्व’ होने वाली टी-बैग वाली चाय ने ‘चाय गरम-चाय गरम’ के नारे के साथ मिलने वाली चाय से मात ही खाई है । दस रुपये की चाय के कुल्हड़ के साथ-साथ “भैया जी चीनी ज्यादा डाल दी” अथवा “बहुत कडवी बना दी” या फिर “इतनी अदरक ! चाय पिलाई है या काढ़ा भैया” इत्यादि विशेष टिप्पणियां देने का अधिकार “थैंक्स” की औपचारिकता वाली टी-बैग पर थोड़ा भारी पड़ जाना इसका कारण हो सकता है। अपनी कीमत का प्रदर्शन करने इन निर्जीव ट्रेन के डिब्बो में जीवंत कहानियाँ देखने और सुनने को मिल जाती है । संचार क्रांति ने देश को कितना बदल दिया है ये देखना रेल-यात्रा में रुचिकर होता है। आज की ताजा खबर वाले समाचारपत्र अपना अस्तित्व मजबूती से बनाये हुए है। उनकी कद्रदान उन्हीं की तरह जिम्मेदार और विश्वसनीय बुजुर्ग जनता है, जो खबर पढ़ने से लेकर, पंखा करने, खाना-परोसने, बचा हुआ खाना समेटने, ट्रेन की सीट को ख़राब होने से बचाने तक के सभी कामों में उनका प्रयोग कर लेती है, बाकी रहा देश और राजनीतिक पर होने वाली परिचर्चा में उन ख़बरों का सन्दर्भ, तो यह उनके समाचारपत्र रूपी इन्वेस्टमेंट का रिटर्न होता है। देश की युवा और खुद को युवा साबित करने की कोशिश में जुटी प्रौढ़ जनता की जिंदगी तो सेहत, साधना, सेंसेक्स और सोशल मीडिया के साए में ही पल रहीं है। पटरियों पर रफ्तार पकडती गाड़ी के साथ-साथ इस पीढ़ी का मन भी दौड़ रहा होता है बस अन्तर इतना ही है कि गाड़ी को अपनी मंजिल मालूम होती है और वो अपनी रफ्तार उसी हिसाब से कम ज्यादा करती है, लेकिन उनका मन मंजिल और पड़ाव का अन्तर ही नहीं समझ पा रहा। लगभग हर डिब्बे में एक यात्री होता है, जिसके लिए आस-पास की चहल-पहल बेमानी होती है। अपने टैब अथवा मोबाइल की स्क्रीन में डूबे कानों में ईयर-फोन लगाए ये लोग खुद के साथ ही व्यस्त रहते है। कौन सा स्टेशन छूटा, कौन सा आया इनको यह जानने में कोई रुचि नहीं होती। जहाँ से चले वहॉं से सीधे अपनी मंजिल पर ही उतरते है मानो वैराग्य का सबक चरितार्थ कर लिया हो। देह, चार्जर ईश्वर और इन्टरनेट प्राण वायु बस इतना ही जीवन है, बाकी सब मोह माया। इनमें से एक समूह पीहर से ससुराल और ससुराल से पीहर लौट रहीं स्त्रियों का होता है, जिनकी उम्र, अवस्था और विचार तो भिन्न-भिन्न होते है, लेकिन अनुभव एक ही जैसा होता है, उसी की चर्चा सहयात्री से करने में उनका सफर कट जाता है। देश आजाद हुए कई वर्ष हो गए, स्त्री के हिस्से में मायके और ससुराल का बंटवारा आज भी अनसुलझी पहेली है । कहीं तीर्थ जा रहे संतों का झुंड तो कहीं विवाह के मंगल गीत गाती वर पक्ष की महिलाएं, सब कुछ एक ही ट्रेन में । पटरियों पर सरपट दौडते ये ट्रेन के डिब्बे मात्र दो स्थानों को ही नहीं जोड़ते हुए ब्लकि ईश्वर के रचे किरदारों में से उन पात्रों के क्षणिक मिलन का केंद्र बन जाते है जिनका एक दूसरे के जीवन से कोई वास्ता नहीं होता पर नियति ने मिलना लिख रखा होता है।

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