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भारत एक समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा का सर्जन, संरक्षण और संवर्धन करने वाला राष्ट्र है। हमारी संस्कृति विश्व की सबसे पुरातन यद्यपि जीवंत संस्कृति है क्योंकि हमने अपने इतिहास को केवल संग्रहालयों में प्रदर्शन का विषय मात्र नहीं माना वरन् उसे अपना मार्गदर्शक माना है। एक ओर भारतीय अपने बीते हुए कल को उत्सव और त्यौहार के रूप में मनाते हैं तो दूसरी ओर जब कोई प्रियजन इतिहास का हिस्सा बन कर वर्तमान से अदृश्य हो जाए तो भी उस तिथि को भूलते नहीं बल्कि पुण्यतिथि और पितृ पक्ष का रूप दे कर स्मरणीय और दिव्य बना देते हैं। इतिहास बनी घटना आनंद का विषय रही हो या फिर शोक का, पुण्य और परमार्थ से जुड़े कार्य दोनों ही अवसरों पर किए जाते हैं। हर अवसर विशेष पर सामाजिक लोकाचार और रिवाजों का भी एक अलग स्वरूप देखने को मिलता है। हर सामाजिक वर्ग का भोजन, भाषा, विचार-दर्शन, और पहनावा भिन्न-भिन्न होता हैं और उसके भिन्न स्वरूप का तार्किक औचित्य भी उपलब्ध होता है। इतना विशाल देश, हर राज्य की अलग संस्कृति ! और संस्कृति के यह भिन्न-भिन्न रूप मिल कर राष्ट्र संस्कृति का निर्माण करते हैं। ‘संस्कृति’ शब्द की स्त्रैण ऊर्जा का अनुभव इस ऊर्जा के मूर्तिमान स्वरूप को देखते ही हो जाता है। इस शब्द में प्राण संरचित करती, इसे आनंद और समझदारी से जीती, भावी पीढ़ियों में इसका बीज रोपण करती “स्त्रियों” को संस्कृति की परिचायक, पर्याय, और पहरेदार की उपमा देना उचित ही है। यदि बात राष्ट्र-संस्कृति और विविधता के संरक्षण और संवर्धन की हो तो मात्र एक ‘परिधान’ ही पर्याप्त हैं और उसका स्वरूप भी स्त्रैण ही हैं। “साड़ी” भारतीय संस्कृति का प्रभावी परिधान हैं। युगों-युगों से चली आ रहीं इस परिधान की महता इसी बात से समझी जा सकती है कि पौराणिक स्त्री पात्रों का निरूपण अधिकतर साड़ी में ही किया गया हैं। द्रौपदी की साड़ी को अनुचित आशय से स्पर्श करने के अपराध ने ना सिर्फ कौरव वंश का नाश कर दिया बल्कि आर्यावर्त का इतिहास बदल दिया। नारी अस्मिता का सुरक्षा कवच बनी ‘साड़ी’ द्वापर युग में प्रासंगिक थी और आज भी है। भारतीय महिलाओं के पसंदीदा परिधान साड़ी ने ना सिर्फ भारत बल्कि विश्व स्तर पर अपनी एक अलग और गरिमामय पहचान बनाई है।

“कपड़े का एक आयताकार लंबा टुकड़ा, जिसे दो अंतः वस्त्रों की सहायता से भिन्न-भिन्न
विन्यास में पहना जाता हैं, साड़ी कहलाता है। देह के उपरि भाग पर ‘उत्तरीय अथवा
अँगिया या चोली’ पहना जाता है, जबकि नाभि के नीचे के अंगों पर घेरनुमा वस्त्र पहना
जाता है जिसे ‘लहंगा या पेटीकोट’ कहा जाता है।“

इंटरनेट पर साड़ी की परिभाषा कुछ इस तरह पढ़ कर महसूस होता है कि भारतीय परिधानों की व्यवहारिक व्याख्या हो ही नहीं सकती, उन्हें तो धारण करके ही उनका सुख अनुभव किया जा सकता है। कपड़े का लम्बा आयताकार यह टुकड़ा जब चटख लाल रंग में रंग जाये तो सौभाग्य और दिव्यता का प्रतीक है , वही गेरुआ और सफेद हो तो वैराग्य की निशानी। विवाह पर उपहार स्वरूप ससुराल से मिले तो ‘बरी’, ननिहाल से मिले तो ‘मामा चुनरी‘ पीहर से मिले तो ‘तेवड’ और जच्चा को मिले तो ‘पीला’ कहलाता है। औरतों का सिंगार बनने से पहले इन साड़ियों को भी सिंगार करना करना पड़ता हैं। कभी प्राकृतिक रंगों के बेल-बूटियों कि कलमकारी, तो कभी रंगबिरंगे धागों से कशीदाकारी, कभी हाथ-करघे से बुनाई, तो कभी, लकड़ी के सांचों से छपाई, चमकीले तारों की जरी, कभी सुनहरी गोटा-पत्ती, कभी छोटी बड़ी गाठों से बनी बांधनी- बंधेज, लहर-दार छपाई से लहरिया तो कहीं रेशमी धागों से बुनी कांजीवरम्, विशाल भारत में साड़ियों की किस्मों का भंडार भी विशाल ही हैं। देवियों को साड़ी का कोई विशेष स्वरूप प्रिय होता है, इसलिए भक्त माता को उनकी पसंदीदा साड़ी भेंट स्वरूप अर्पण करते हैं। माँ दुर्गा लाल रंग तो माँ सरस्वती श्वेत रंग की साड़ी धारण करती हैं। अमृत स्वरूप जल देने वाली नदियां भी माँ की तरह पालन पोषण करती हैं, श्रद्धालु नदियों को भी साड़ी भेंट करते है। नदी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक विशाल साड़ी अर्पण करने का “चुनरी-मनोरथ’ प्रसंग यमुना मैया से जुड़ा वल्लभ सम्प्रदाय का प्रचलित रिवाज हैं  साड़ियां सामान्यतः छः गज से नौ गज की लंबाई में मिलती है। जिसे कई तरह से बांधा जा सकता है। ऊपरी सिरा आंचल या पल्लू कहलाता है।

भारतीय -पूर्वक अपनीगत साड़ी

कश्मीर के बुनकर के हाथों का जादू पश्मीना और कानी सिल्क की साड़ियों के रूप में पूरे देश को मोहित कर रहा है तो दूसरी ओर तमिलनाडु के कांचीपुरम् क्षेत्र मे बनी रेशमी कांचीपुरम्सा ड़ियां तमिलनाडु, कर्णाटक, केरल और आंध्रप्रदेश की संस्कृति का अहम हिस्सा है। भारत सरकार द्वारा इन्हें जी आई टैग भी प्रदान किया गया है जिससे इनकी गुणवत्ता को संरक्षित किया जा सके। ग्लोबल आईडैनटिफिकेशन टैग यह सुरक्षा प्रदान करता है कि क्षेत्रीय उत्पादों के साथ उस स्थान विशेष के नाम का प्रयोग स्थानीय निर्माता अथवा अधिकृत उपयोग कर्ता ही कर पाए। इससे ब्रांड वैल्यू में बढ़ावा मिलता है । पंजाब हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में सलवार कमीज़ का प्रचलन ज्यादा हैं लेकिन वहां के कारीगरों की कढाई-बुनाई की कला व्यापार प्रदर्शनियों और मेलों में सब का ध्यान आकर्षित कर रहीं है। ऊनी धागों से बुनी किन्नौरी साड़ियों और रंग बिरंगे फूल-पत्तियों की महीन कशीदाकारी के काम वाली फुलकारी साड़ियों के मुरीद पूरे देश के कला प्रेमी हैं। पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में आसामी सिल्क साड़ियां भारतीय महिलाओं की अलमारी की शान मानी जाती है। मूंगा सिल्क, शहतूत सिल्क के अलावा वहां के जन जातीय क्षेत्रों के बुनकरों द्वारा बनाई गई सूती और मिशिंग साड़ियां सांस्कृतिक परम्परा का प्रतीक है। मणिपुरी साड़ियां अपनी जटिल बुनाई के कारण जानी जाती है। अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिज़ोरम, नागालैंड की जनजातियों की पारम्परिक बुनाई को साड़ियों का रूप दे कर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शित किया जा रहा है ताकि देश और दुनिया में उनका काम जाना जाये।

कांजीवरम् के अतिरिक्त दक्षिण भारतीय राज्यों में आन्ध्रप्रदेश की धर्मावरम् साड़ियां भी बेहद खास मानी जाती है। तेलंगाना की गोल्लाभामा साड़ी अपने आप में अनूठी है। जिनमें मटका लिए गोपिका को विशेष बुनाई के द्वारा साड़ी में बनाया जाता है। त्रिपुरा भी सिल्क साड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। ईखत सिल्क अथवा पोचमपलली सिल्क के लिए तेलंगाना के पोचमपलली को ग्लोबल आईडैनटिफिकेशन टैग मिला है। उत्तराखण्ड की महिलाओं द्वारा साड़ी को बांधने का पहाड़ी , तरीका अद्भुत है, गाती धोती के रूप में बांधी गई साड़ी, उनकी पहाड़ी जीवन-शैली में सुविधा जनक होतीं हैं। उत्तर प्रदेश की बनारसी साड़ियां सबसे खूबसूरत रेशमी साड़ियों में शुमार होती हैं। आम से लेकर खास तक हर तबके के वैवाहिक कार्यक्रमों की शान होती है, बनारसी साड़ियां। लखनऊ की चिकनकारी की महीन कशीदाकारी सूती, शिफान, जोरजेट के कपड़े को मानो कारीगरों का कैनवस यानी चित्र फलक बना देती है, जिस पर उनके सुई-धागे जीवंत दृश्य रच देते हैं। भारत ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चिकनकारी का काम फैशन ट्रेंड का हिस्सा बन चुका हैं। जरदोजी की कढ़ाई का काम उत्तर प्रदेश के लखनऊ और आगरा , बनारस के साथ- साथ भारत के अन्य भागों में भी किया जाता है। इस कारीगरी में धातु से बने धागों से कशीदा किया जाता है, कुर्ते, शेरवानी और साड़ियों पर किया गया यह काम उन्हें बेशकीमती बना देता है। शादियों की खरीदारी का महत्वपूर्ण हिस्सा है जरदोजी साड़ियां।  

मधुबनी , बावन-बूटी, भागलपुरी ...एक क्लिक पर दुनिया के किसी भी हिस्से से सामान खरीदना सम्भव बनाने वाली ई- कॉमर्स सुविधा ने बिहार की इन खूबसूरत साड़ियों को देश के हर हिस्से तक लोकप्रिय बना दिया है। बिहार की इन पारम्परिक कलात्मक साड़ियों ने इन दिनों फैशन की दुनिया में धूम मचा रखी हैं। बावन- बूटी साड़ियों में एक ही प्रकार की बूटियां बावन बार, साड़ी में बनाई जाती है। कमल, बोधि- वृक्ष, मछली, इत्यादि डिजाइन बुने जाते हैं। टसर सिल्क से बुनी गई सुनहरी दमक वाली साड़ियों के लिए बिहार का भागलपुर प्रसिद्ध है। मधुबनी साड़ियां हाथों से रंगाई के कारण अनोखी और अद्भुत होती है, मिथिलांचल की यह चित्रकला सूती, रेशमी साड़ियों में सज कर खूब खिलती है। पश्चिम बंगाल की तांत, सिल्क, गरद, बलूचरी, जामदानी साड़ियां मशहूर है। सफेद साड़ी पर लाल बार्डर की साड़ियां पारम्परिक रूप से दुर्गा पूजा में पहनी जाती है। ओडिशा की संबलपुरी, बोमकाई और कोटपाड़ साड़ियों की प्रसिद्धि वहां की हस्तकला को सम्मान दिलाती है। जगन्नाथ मंदिर से प्रेरित डिज़ाइन हैंडलूम से साड़ियों में बनाई जाती है। झारखंड में भी बंगाल की ही तरह सफेद आँगन पर लाल बार्डर और पल्लू वाली लाल-पाड़ साड़ी लोकप्रिय है। यह धार्मिक अनुष्ठानों का मुख्य हिस्सा होती है। खूबसूरत जरी और मीनाकारी वाली पैठनी सिल्क साड़ियां झारखंड और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में पसंद की जाती है। छतीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति की झलक कछोरा साड़ी में देखने को मिलती है । यहाँ की कोसा सिल्क साड़ियां भी अपनी उच्च गुणवत्ता के लिए जानी जाती है। मध्य प्रदेश अपनी चंदेरी सिल्क, माहेश्वरी और बाग प्रिंट की साड़ियों के लिए जाना जाता है। महाराष्ट्र की नउवारी साड़ी नौ गज लंबी परम्परागत मराठी साड़ी है, जिसे वहां के विभिन्न अंचलों मे भिन्न-भिन्न पद्धति से पहना जाता है। राजस्थान अपनी कोटा-डोरिया, बंधेज, लहरिया और अजरख प्रिंट की साड़ियों के लिए जाना जाता है। गुजरात की हस्त निर्मित पाटन पाटोला साड़ी एक सांस्कृतिक विरासत का रुतबा रखती है, इसके अतिरिक्त घारचोला और सफेद-लाल संगम वाली पानेतर साड़ी भी प्रसिद्ध है। विवाह के समय गुजराती दुल्हन पानेतर साड़ी में सजी नज़र आती है। कर्नाटक की कसूती साड़ी अपनी अनूठी डिज़ाइन के लिए अलग पहचान रखती है। मैसूर सिल्क साड़ियों का इतिहास बेहद पुराना है, विवाह अवसर पर विशेष रूप से पसंद की जाती है। केरल की परम्परागत कसावु साड़ी आधुनिक थीम आधारित विवाह अवसरों पर विशेष रूप से पसंद की जाती है, इस साड़ी की दीवानगी आजकल उतर भारतीय शादियों में देखने को मिलती है। चमकते सफेद रंग के साथ सुनहरा बार्डर बेहद खूबसूरत लगता है। सुन्दर समुद्री किनारों और पर्यटन के लिए प्रसिद्ध गोवा की पारम्परिककुनबी साड़ी वहां की जन जातीय विरासत है।

महिला परिधानों में कश्मीर से कन्याकुमारी तक साड़ी ने अपना अघोषित साम्राज्य बना रखा है। चाहे महंगा ब्रांड की हो, या स्थानीय बुनकर- बुनी, रंगरेज ने रंगी हो या फिर प्रदर्शनी में टंगी हो, हर गुजरती महिला की नजर साड़ियों की नजर पर अटक ही जाती है। साड़ियां मानो एक कल्पना लोक में ले जाती है। इंद्रधनुषी आँचल को लहराती हुई हिन्दी फ़िल्मों की नायिका जब अपनी साड़ी में इठलाती है, तो नायक के साथ-साथ उन तमाम औरतों को भी लुभा रहीं होती है जिनको साड़ी पहनना पसंद है। सफल फ़िल्मों के किरदारों द्वारा पहने गए कपड़े अक्सर लोकप्रिय हो जाते हैं और कपड़ा व्यवसायी उस अवसर का पूरा लाभ उठाते हैं। बाज़ार उसी तरह के डिजाइन के कपड़ों से सज जाता है। पुरानी हिन्दी फ़िल्मों की बात करें तो अभिनेत्री मुमताज़ द्वारा फिल्म ब्रह्मचारी के गाने, ‘आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे’ में साड़ी पहनने का तरीका मुमताज़ स्टाइल के नाम से आज भी लोकप्रिय है। फिल्म ‘हम आपके है कौन’ में माधुरी दीक्षित द्वारा पहनी गई बैंगनी साड़ी भी फिल्म की ऐतिहासिक सफलता के साथ उसके स्वर्णिम इतिहास का हिस्सा बन गई। जयललिता जो दक्षिण भारतीय फ़िल्मों की अभिनेत्री होने के साथ-साथ राजनीति में भी सफल रही, उनका भी साड़ियों के प्रति विशेष लगाव रहा। सिने-तारिका रेखा औपचारिक समारोह और सार्वजनिक अवसरों पर साड़ी में ही ज्यादातर देखी जाती है। अपनी दिलकश और दमदार आवाज के साथ-साथ बड़ी गोल बिंदियाँ और गजरे को बालों में सजाए, डिस्को धुन पर “हरी ओम हरी” गाती हुई गायिका ऊषा उथप्प साड़ी मे बेहद आकर्षक नजर आती है। स्वर कोकिला लता मंगेशकर सदा गरिमामय साड़ी में नजर आई। फिल्म देवदास को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करती हुई एश्वर्या राय को विदेशी मीडिया द्वारा काफ़ी सराहना मिली जिसके बाद भारतीय अभिनेत्रियों द्वारा विदेशी फिल्म समारोह में साड़ी पहन कर शामिल होने का नया चलन शुरू हुआ जो अभी भी जारी है। महिला राजनेता भी साड़ियों में ही सार्वजनिक सभाओं में दृष्टिगोचर होती है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी, भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील, वर्तमान राष्ट्रपति माननीय द्रोपदी मुर्मू सभी ने गरिमामय साड़ी को अपने औपचारिक परिधान के रूप में पसंद किया है। 

जीवन की अन्य विधाओं यथा मेकअप करना, कंप्यूटर चलाना, गाड़ी चलाना, खाना बनाना इन सभी को सीखना ही पड़ता है यदि व्यक्ति की इन कार्यों को करने में रुचि हो । साड़ी पहनना भी एक कला ही है, जिसमें थोड़े से अभ्यास और सही मार्गदर्शन द्वारा पारंगत हुआ जा सकता है यदि इसे पहनने में रुचि हो। बड़े संयुक्त परिवारों को संभालने वाली और हस्तकला को मशीनी युग में जीवंत रखने वाली आम भारतीय नारी अपनी व्यस्त दिनचर्या में साड़ी में ही बेहद आराम से अपना कार्य कर लेती है। महानगर के व्यस्त जीवन और सार्वजनिक परिवहन साधनों तथा कार्यालयों में साड़ी को संभाल पाना असुविधाजनक है, यह विचारधारा किसी व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से उचित हो सकती है किन्तु इसे सामाजिक विचारधारा के रूप में प्रस्तुत करना इस परिधान के साथ अन्याय होगा। व्यक्ति उन वस्त्रों को धारण करें जो उसे सहज और रुचिकर लगे। यदि कोई आधुनिक विदेशी वस्त्र पहन कर खुद को सहज महसूस करता है तो उनके लिए वह वस्त्र विन्यास सही है लेकिन उनके प्रचार और विपणन हेतु परंपरागत साड़ी को दरकिनार कर उसे पिछड़ेपन की निशानी बताना तुच्छ मानसिकता की निशानी है। एक सामान्य सूती साड़ी कपास उगाने वाले किसान से लेकर वस्त्र निर्माण करने वाली औद्योगिक इकाई के मजदूरों और रंगाई करने वाले रंगरेज, और साड़ी विक्रेता की मेहनत, उद्यम, आजीविका का पर्याय है। भारतीय अर्थव्यवस्था का मजबूत पहलू, कलाकारों की रचनाधर्मिता की निशानी है। नारी का श्रृंगार है साड़ी। इसकी स्वीकार्यता युवा पीढ़ी में बढ़े ताकि प्रतिस्पर्धी उत्पादों के मुकाबले इसकी मांग, निर्माण और उत्पादन में वृद्धि हो ताकि एक गरिमामय स्त्रैण विरासत सुरक्षित रहे। 

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