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“जीने का नाम है ज़िन्दगी
चलते रहने का दूजा नाम है ज़िन्दगी,
हंसी-ख़ुशी से बिताओ ज़िन्दगी,
क्योंकि क्षणभंगुर है ये ज़िन्दगी।“
जाड़े की ठिठुरती रातों में कुनमुनाते रहने को जी चाहता है,
सुबह की रुपहली चमकती किरणों में
शबनमी ओस पर नंगे पाँव चलने को जी चाहता है,
प्रकृति की हरियाली और हरीतिमा में घुलने मिलने को जी चाहता है,
ठण्ड से सिकुड़ते बदन को अंगीठी और अलाव से
शिद्दत से सेंकने को जी चाहता है,
गजक, रेवड़ी, मूंगफली, तिल और गुड़ की सौंधी खुशबू के संग-संग
चाय की चुस्कियों में डूबे रहने को जी चाहता है,
कभी-कभी यूँ ही बिस्तर पर अलमस्त पड़े रहने को जी चाहता है,
किसी करीबी दोस्त, रिश्ते-नाते वालों से बतियां बताने को जी चाहता है,
सुख-दुःख बांटते-बांटते पुरानी मधुर खट्टी-मीठी स्मृतियों में
डूब जाने को जी चाहता है,
सर्दी की ढलती, सुरमई शामों में
कभी अपनों में तो कभी बेगानों में,
कभी डूबते-उतराते अफसानों में,
कभी भीने-भीने तरानों में, कभी अनकहे, अनजाने से,
कभी यहां, कभी वहां बिखरे पड़े,
हज़ारों लाखों अफसानों से,
मिलने-मिलाने को जी चाहता है,
कभी किसी के काँधे का सहारा लेकर,
कदम-से-कदमताल करते-करते,
अपने ग़मों की गठरी का बोझा हल्का करके,
रूठने-मनाने को जी चाहता है,
कभी-कभी राह चलते अजनबी मुसाफिर से,
कभी गुमटी पर चाय बेचने वाली चाची से,
कभी गली के नुक्कड़ पर प्रेस करने वाले काका से,
उनकी फक्खड़ ज़िंदगानी में झाँक आने को जी चाहता है,
कभी-कभी अपने पुराने सहकर्मियों से,
अपने वर्षों पीछे छूट गयी अनूठी सहेलियों से,
अपनी नन्हीं- नन्हीं, छुटपुट हास्यास्पद, बेतुकी और
बेसिरपैर की हांकने को जी चाहता है,
कभी-कभी यूँ ही अकस्मात्
बैठे-बैठे ख्यालों की पुरानी पगडंडियों पर विचरने को जी चाहता है,
कभी-कभी हँसते-हंसाते ही यकायक आंसू बहाने को जी चाहता है,
कभी-कभी अलमारियों के कपड़ों की तहें
बेमतलब ही उलझाने को जी चाहता है,
कभी-कभी अचार की सोंधी खुशबू और धनिया-पुदीना-अमियां की चटपटी,
मसालेदार लज्जत में सराबोर हो जाने को जी चाहता है,
कभी-कभी सूखी हुई सेवइयां, पापड, लाल-मिर्च और दाल की बडियों को
धूप दिखाने को जी चाहता है,
कभी-कभी पुस्तकों के पन्ने पलटते-पलटते
खुद ही पुस्तक बन जाने को जी चाहता है,
कभी-कभी दोस्तों संग खूब दौड़ते-भागते, मचलते, चुहुलबाजी करते
और अधकचरे, भूले बिसरे किस्से सुनाने को जी चाहता है,
कभी-कभी माँ के स्निग्ध आँचल में मचलने इतराने को जी चाहता है,
कभी-कभी भूख प्यास से बिलबिलाते,
बैचेन, मासूम परिंदों को दाना-पानी खिलाने को जी चाहता है,
कभी-कभी यूँ ही गली-कूंचों की ख़ाक छांनने को जी चाहता है,
कभी-कभी एकांत, नितांत एकाकी कोने में बैठे-बैठे
रोने-बिसूरने को जी चाहता है,
कभी-कभी अपने इष्टदेव से अकेले में बोलने-बतियाने को जी चाहता है,
कभी-कभी दुनिया के झूठे प्रपंचों और मोह-माया के मायावी संसार से
छुटकारा पा जाने को जी चाहता है,
छुटकारा पा जाने को जी चाहता है।

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