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“बचपन की यादें हैं होती,
सबसे मीठी, सबसे विलग,
बचपन तो सबका ही होता सबसे प्यारा शीशमहल।“
वो बचपन कितना प्यारा, कितना सुहाना और कितना मस्ताना था,
न खाने की चिंता न सोने का गम था,
न सजने सँवरने की कोई होड़ थी,
न परीक्षा थी ,न प्रतियोगिता थी, और न ही नौकरी या व्यवसाय का कोई
रंजोगम था ,
दोस्तों के संग खेलना, कूदना, बतियाना,
और खुले मैदान में अल्हड दौड़ लगाना,
और इन सब के चक्कर में घर लौटना भी भूल-सा जाना,
उस बचपन की मस्ती का ऐसा हसीं आलम था,
वो मिट्टी के घर बनाना, बनाकर तोड़ देना,
रेत के घरौंदों में अपना स्थायी आशियाना खोज लेना,
वो अलमस्त बचपन कितना सुहावना था,
कभी पतंगों के पीछे दूर तलक भागना,
और ना पकड़ पाने पर मायूसी के आलम में खो जाना,
वो भी क्या फक्खड़ ज़माना था,
कभी लूडो,कभी कैरम,कभी ताश की बाज़ियां,
कभी गिट्टे,कभी कंचे, कभी गुल्ली-डंडा
और कभी गुलेलों से आम के पेड़ों
पर निशाने लगाकर माली की मार के डर से दूर-दूर तक भागना,
वो बचपन कितना मासूम, कितना भोला और कितना अनजाना था,
कभी-कभी खिलौनों की जिद्द में दुकान पर ही
ज़मीन पर लोट- पोट हो जाना,
कभी आठ-आठ आंसू रोना, मचलना, जिद्द करना
और माँ के पुचकारने पर, मान-मनुहार करने पर फौरन मान जाना,
वो बचपन कितना दिलकश, कितना मुलायम और कितना सुकोमल था,
जब तब भूख लगने पर रो देना, माँ का ध्यान खींचने को बेमतलब रूठकर
मुँह फुला लेना,
वो बचपन भुजिया-सा नमकीन गोलगप्पे-सा क्षणभंगुर, शहद-सा मीठा और इमली-सा खट्टा था,
कभी पानी में अठखेलियां करना, छई-छपा-छपाक-छपाक,
और कभी ढोलक पर नाचना, देकर ढप-ढपा-ढप-ढाप,
कभी मेथी और पालक के परांठों को घास की रोटी बताकर करना खाने से इंकार,
कभी रूठना, कभी मानना,कभी इतराना,कभी इठलाना,कभी गुब्बारे-सा
मुंह फुलाना,
कभी लुका-छिप्पी खेलना, कभी धूप, कभी छाँव,
कभी माँ की बालियों से करना छीना झपटी,
कभी खाना माँ की मीठी घुड़की, और कभी थपकी,
कभी लोरी सुनने को मिलती और कभी मीठी झिड़की,
हाय! वो चटपटा, खट्टी-मीठी इमली
और मसालेदार चाट-सा बचपन कितना सुन्दर था,
वो अँधेरे में भूत का सपना देखकर, डर कर चीखना,
वो माँ का गोद में लेकर पुचकारना और लोरी गाकर पुन: सुला देना,
वो बचपन कितना मीठा, कितना स्वादिष्ट था,
वो बचपन कितना मीठा, कितना स्वादिष्ट था।

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