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"विदेशी से स्वदेशी भला है,
पराया, पराया, और अपना, अपना ही होता है,
अपने अभिमान को बचाना है,
अपनी खोई गरिमा को लौटा लाना है।“
हमारे मन के कोने में हौले-हौले गहरा रही है,
हमारे मन के तारों को झंकृत कर सहला रही है,
क्या ये मात्र दुनियावी छलावा ही है, या कुछ और?
इसी संशय की बू चहुँ ओर से हमें आ रही है,
क्यों होता है ऐसा अक्सर कि जो पालक माता-पिता बच्चों को
दुलारते, पुचकारते, निहारते, सजाते, संवारते हैं,
उन्हें तमाम ज़िंदगी स्वावलम्बी बनाने का दम्भ भरा करते हैं,
वही नौनिहाल उनकी वृद्धावस्था में उनके संग दो मीठे पल गुज़ारने की बजाय
विदेशों की चमचमाती चकाचौंध में खो रहे हैं,
जिनको अंगुली पकड़कर चलना सिखाया, पढ़ना सिखाया,
लिखना सिखाया, खाना सिखाया, पीना सिखाया, तहज़ीब सिखाई, तालीम दिलाई,
आज उनकी व्यस्त जीवनशैली और दिनचर्या के चलते माँ-बाप को
उनके साहचर्य के दो पल भी नसीब नहीं हैं,
कभी सोचने को विवश हो जाती हूँ कि क्या जीवन का आखिरी, अंतिम और
हृदय-विदारक पल यही है, क्या यही है?
क्या नादान शिशु व्यस्क होने पर आपा-धापी के पाटों के बीच इतना उलझ जाता है कि
ना चाहते हुए भी, जाने-अनजाने अपने परिजनों के स्वप्नों पर तुषारापात कर जाता है,
क्या जीवन मात्र मुद्रा अर्जन तक ही सीमित और संकुचित है?
क्या अपने वतन में उनके व्यक्तित्व के मुताबिक़ व्यवसाय नहीं है?
क्या मात्र पैसे कमाने की मशीन-सा स्वचालित रोबोट बन जाना ही
हमारे भविष्य के कर्णधारों की क्रूर नियति है?
क्या अपनी मातृभूमि की गरिमा, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान में
स्वदेश की सौंधी खुशबू नहीं है?
सात-समंदर पार की यात्रा का अंतिम पड़ाव क्या यही है?
हमारे देश की सरज़मीं का भी एक अलग-सा जूनून है,
'घर की मुर्गी दाल बराबर होती है;
दूसरों की थाली में घी हमेशा ज़्यादा ही दिखाई देता है;
सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है’,
यूँ ही हंसी-ठट्टे में मुहावरों और लोकोक्तियों को नहीं गढ़ा गया है,
पर, लेकिन, किन्तु, परन्तु, दूर के ढोल सदा सुहावने ही लगते हैं,
अपनी चादर देखकर पाँव पसारने की उक्ति भी कुछ अनुचित नहीं है,
दूसरों के घरों की चमकीली रौशनी से आँखें चुंधियाने से बेहतर तो
अपने घर के दीये की टिमटिमाती लौ ही काफी होती है,
एक पेड़ को जड़ों से उखाड़कर पराई नितांत अनजान जगह पर
रोपने की कोशिश करना क्या व्यर्थ नहीं है?
अपने नाते-रिश्तों, अपने भाई-बहनों, अपने घर, अपने खेत,
अपने खलिहान, स्कूल, कॉलेज से जुड़ाव,
इन सबसे पल-भर में पल्ला छुड़ा लेना, कोई हँसी-खेल नहीं है,
मैं मानती हूँ कि जीवन जीने के लिए पैसों की ज़रुरत पड़ती ही है,
पर क्या अंधी दौड़ में भेड़चाल चलकर भीड़ भरे हुजूम में
शामिल हो जाना भला कहाँ की अक्लमंदी है?
विदेशी धरा पर हमारा सम्मान कम और अपमान ही अधिक होता है,
ब्रिटिश दासता के कई वर्षों का धीमा-धीमा विष
आज इतने वर्ष बीत जाने पर भी जवां है,
विदेशी अपनाने वालों,
अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से भी सुन्दर है,
क्या इसका तुम्हें तनिक भी गुमां है?
रंग-बिरंगी, सतरंगी, झिलमिलाती, मचलती, इतराती,
इठलाती तितलियों का जीवन क्षणभंगुर ही तो है,
पराया देश, पराई धरा, पराया वेश, पराई भाषा,
क्या इनको अपनाना, जीवन में जबरन उतार लाने की कोई विशेष विवशता है?
क्या इसके अतिरिक्त हमारे पास कोई विकल्प ही नहीं बचा है?
अपने सगे -सम्बन्धियों, नाते-रिश्तों की कुनकुनाती गर्माहट को त्यागकर,
परायों के बीच अपनी जगह बनाना ही क्या अखिरी चारा बचा है?
हमें अपने जीवन मूल्यों की सार्थकता को अपनी जीवनशैली में उतार लाना है,
जीते जी अपनों से बेगानों-सा व्यवहार, क्या यही आज की युवा पीढ़ी का नया तराना है?
खून के सगे रिश्तों की उष्मा का मोह त्याग,
विदेशी भूमि पर मात्र क्षणिक सुखों की लालसा लिए,
मृगमरीचिका-सी अंधी दौड़ लगा देना, क्या वस्तुत: हितैषी रुख है?
परिवारजनों की ज़िंदगी सूनी और वीरान है,
ना दीपावली, ना घर में जगमगाहट; चहुँ ओर सुनसान है,
ना होली पर रंगों का हुड़दंग; सारा घर वीरान है,
ना वैसाखी पर जश्न का माहौल है;
ना रक्षाबंधन पर भाई-बहन का कोई शोर है;
ना कोई हँसी-ठिठोली है;
ना बच्चों की किलकारी है,
सबकुछ गुमसुम, खामोश, सूना-सूना सा खाली है,
सोने के बंद पिंजरे में फड़फड़ाते पक्षियों की तरह रहने वालों,
अपने घर भी तो छप्पन भोगों की कोई कमी नहीं है,
रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं की मात्रा भी प्रचुर है,
फिर आखिर दूर-सुदूर देशों में अलग-थलग, एकांत माहौल में जाकर
खानाबदोशों-सा जीवन जीने की आखिर तुम्हें क्यों पड़ी है?
बेटा! तुम अपने घर को वापिस लौट आओ,
पैसा कमाने को तो अभी उम्र पड़ी है,
पैसा कमाने को तो अभी उम्र पड़ी है।