Source: Luis Galvez on Unsplash

आज की बेटी की कोई मिसाल नहीं है,
कोमलांगी है अगर, तो दोधारी तलवार भी वही है,
बेटी और बेटे में लेशमात्र भी भेद नहीं, आज के समय की तो मांग यही है।

कभी-कभी ये मन करता है,
कभी-कभी ये दिल जलता है,
छलनी-छलनी हो उठता है,
बेटी को लाचार देखकर मन ये क्रंदन कर उठता है,
‘कठुआ’ और 'उन्नाव' की दहशत को ये कैसे भुला सकता है?
बेटी को यूं तिल-तिल मरते अब और नहीं ये सह सकता है,
'निर्भया' की दुर्दशा देखकर आतंकित ये हो उठता है,
‘हाथरस’ की घटना को सुनकर हाहाकार ये कर उठता है,
आखिर क्यों है भेदभाव यह,
मन आंदोलित हो उठता है,
बेटा-बेटी एक ही जैसे,
फिर पालन-पोषण पृथक -सा क्यों है?
क्यों लड़की है घर का ‘बोझ’ और लड़का ‘तारनहारा’ क्यों है?
कभी-कभी ये मन करता है,
पूछा जाए जाके प्रभु से,
प्रभु! ये कैसा चलन निराला?
बाकी सब तो ठीक ही है, पर नर-नारी में अंतर क्यों है?
नारी सबला है, शक्ति है, नारी लक्ष्मी पार्वती है,
पर नारी को अबला मानकर चलना कहाँ की अंधभक्ति है?
बेटी की दुर्दशा देखकर, बेटी की यह व्यथा देखकर,
मन त्राहि-त्राहि कर उठता है,
पीड़ित तो होता ही है, ग्लानि से भी भर उठता है,
क्या लड़की होना ही पाप है?
क्या लड़की होना गुनाह है?
ऐसा ही कुछ रह-रहकर मेरा मन सोचा करता है,
कभी-कभी ये मन करता है,
अखबारों की खबरें पढ़कर, आठ-आठ आंसू रोता है,
देश का सुस्त कानून देखकर आलोड़ित-सा हो उठता है,
कभी-कभी ये मन करता है,
आग लगा दूँ दुनियाभर को,
जहां नारी का सम्मान नहीं है, उसका स्वाभिमान नहीं है,
हर पग पर पिता, पति और पुत्र का सम्बल, क्या उसकी पहचान यही है?
उसको क्यों कुचला जाता है, उपेक्षित क्यों समझा जाता है?
कभी-कभी ये मन करता है,
तोड़ी जाएं सभी रूढ़ियाँ, सभी बेड़ियाँ, सभी रीतियां,
मानवता को धर्म बनाकर, लिंगभेद का नाम मिटा दें,
भ्रूण हत्या को दूर भगाकर, 'अंतर' की दीवार हटा दें,
कभी-कभी ये मन करता है,
कभी-कभी दिल जल उठता है
कभी-कभी दिल जल उठता है।

.    .    .

Discus