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“बचपन की यादें होती हैं अनमोल,
बचपन की यादों का नहीं है कोई मोल।“
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
रह-रहकर आज अचानक याद आती हैं,
रुक- रुककर यूँ लगता है मानो अपना हालेदिल सुनाती हैं,
वो स्वर्णिम दिनों की अलसाई हुई सुबह-सवेरे की उजियाली किरणें,
बचपन के स्वच्छ, धवल, शुद्ध अंतकरण की अनगिनत परतें,
आज रह-रहकर आँखों में चौंधियां सी जाती हैं,
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
जब दिलों में न कोई राग था ना द्वेष,
ना कोई जात-पात का था बचकाना बंधन
और ना ही किसी के हृदय में था कलुषता का भेष,
आज निरंतर अनवरत वो पुरानी स्मृतियाँ
मेरे ज़ेहन में जाने कहाँ से आ-आकर टकराती हैं,
बचपन की वो सुन्दर यादें
छुटपन की वो मीठी बातें,
जहाँ दोस्ती, जुबान, वादे, और नन्हे-नन्हें कदमों की कदमताल
एक अलग ही गीत गुनगुनाया करती थी,
जब बात-बात पर रूठना-मनाना, मान-मनुहार,
गिले-शिकवों की कोई कमी न थी,
पर चंद मिनटों में चुटकी बजाते ही सभी समस्याएं,
बैर, कटुता, मंद-स्मित मुस्कान के डस्टर से पौंछ दी जाती थी।
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
जब सहेलियों संग गुड्डा- गुड्डी के खेल में आनन-फानन ब्याह रचाए जाते थे,
और बारातियों का स्वागत ढोल-बाजों संग नाचते-गाते, झूमते-झुमाते
बच्चों संग बड़े भी प्रफुल्लित हो जाते थे,
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
जब शाम को बिजली गुल होने पर ओनो -कोनों से पचासों बच्चे
अपने-अपने घरों की बिलों से ख़ुशी से फुदकते, कूदते-फांदते
बाहर गली में निकल आते थे,
कभी गुल्ली-डंडा, कभी खो-खो, कभी रेस, कभी पोषम-पा,
तो कभी छुपन-छुपाई जैसे मनोरंजक खेलों में मस्त और व्यस्त हो जाते थे।
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
जब बड़ों का कहा पत्थर की लकीर माना जाता था,
छोटे कभी बड़ों के सामने मुंह खोलें,
ऐसी हिमाकत कोई नहीं कर पाता था,
संस्कारों और नैतिक मूल्यों, आदर्शों, प्रेम, प्यार, स्नेह
और भाईचारा को बचपन से ही घुट्टी में घोंटकर पिलाया जाता था।
घर के मुखिया को लोग भगवान का दर्जा देते थे,
और उनके बनाए नियमों को आँखें मूंद कर मान लेते थे,
भाई-भाई में बैर नहीं था,
स्वार्थ और अभिमान नहीं था,
महिलाओं की सुरक्षा चाक-चौबंद थी,
उन्हें राह में निकलते हुए कोई भय नहीं सताता था।
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
घर में रामायण ,महाभारत, पारिवारिक कार्यक्रमों का बोलबाला था,
बड़ों का सामान छोटे सहर्ष प्रयोग में लाते थे,
बड़ों के सम्मान हेतु प्राण तक न्योछावर कर दिए जाते थे।
आज रह-रहकर मुझे अपने विद्यालय की याद आती है,
जहाँ अध्यापक सभी बच्चों को एक आदर्श नागरिक बनाने हेतु
जी-जान लगा देते थे,
और कसौटी पर खरा न उतर पाने पर त्यागपत्र तक दे दिए जाते थे,
बचपन की निम्बू-सी खट्टी,
शहद सरीखी मीठी,
और मिर्ची जैसी तीखी यादों का पिटारा खोलने को
बार-बार जी मिचलाता है,
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
वो माँ का रसोई में जमीन पर पालथी मारकर भोजन परोसना,
पूरा खाना न खाने पर रोकना व मीठे-मीठे उलाहने देना,
कहीं बाहर जाते समय दही-चीनी से मुंह मीठा करवाना ,
और एक साथ लगे हाथ, पचासों हिदायतें देना,
बचपन की वो सुन्दर यादें, छुटपन की वो मीठी बातें,
रविवार को टीवी पर अपने पसंदीदा कार्यक्रमों को सिलसिलेवार देखना,
कभी सपरिवार कहीं पिकनिक मनाने निकल जाना,
घर का बनाया साफ़-सुथरा पौष्टिक खाना खाना,
और झूठी शानोशौकत और ऐबों से कोसों दूर रहना,
घमंड का तो दूर-दूर तक नामोनिशान नहीं मिलता था,
सभी आपस में दोस्ताना व्यवहार रखते थे,
और ईर्ष्या, जलन से कोसों दूर ही रहा करते थे,
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
रह-रहकर अचानक याद आती हैं,
मस्तिष्क में पुरानी स्मृतियाँ किसी फ़िल्मी रील की भांति
गोल-गोल घूम जाती हैं,
वो भूला-बिसरा ज़माना!
वो मां का घर के कामों से निपटकर तपती दुपहरी में
अपने मखमली आँचल में छुपाकर सुला देना,
और मेरा गहरी निश्चिन्त नींद सो जाना, अक्सर याद आता है,
आज ऐ सी है, कूलर है, नरम- मुलायम गद्दे हैं,
पर फिर भी नींद कोसों दूर है,
काश! वो समय फिर से लौटकर वापिस ला सकती,
तो मैं अतुल धनराशि लुटाकर भी उसको पाने में तनिक गुरेज़ न करती,
बचपन की वो सुन्दर यादें,
छुटपन की वो मीठी बातें,
रह-रहकर अचानक याद आती हैं,
रह-रहकर अचानक याद आती हैं।

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