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“दिल का कोई कोना खाली-सा लगता है,
कोई आकर उसे खुशियों से सराबोर करेगा, ऐसा रोज़ लगता है।“
मैं होती हूँ हैरान, विकल परेशान,
कभी यह सोच-सोच यह शोर कहाँ से आता है,
गाँवों की धूलि वेला से ये आकुल-व्याकुल निकल-निकल चिकचोर कहाँ से
आता है,
शहरों की आबो-हवा है, धुल-धूसरित, पर्यावरण का कोलाहल घनघोर कहाँ से
आता है,
कहीं अग्नि-वर्षा की अति है, कहीं हिमपात, कहीं जलप्रपात,
आपदा बन गरजती है,
ना जाने ये मनभावन और विभोर दबे-पाँव चुपके-चुपके ये कौन मेघ बरसाता है,
मैं आकुल-व्याकुल सी रहती हूँ,
कुछ कह ना किसी से पाती हूँ,
ये मंद-मंद, मद्धिम=मद्धिम, शनैः-शनै: आतुरता से कोई आस=पास ही रहता है,
एकांत शांत से निर्जन में ये शोर कहाँ से आता है,
मन-अंतर आज भी भीगा है,
मन वीणा-सा झंकृत-सा है,
ना मालूम किन गहराईओं से,
आम की उन अमराइयों से,
ये अमलतास की गंध लिए शबाब कहाँ से आता है,
मन खोया-खोया रहता है,
एकाकी होना चाहता है,
रोम-रोम में, कण-कण में आलस-सा समाया रहता है,
अरुणाई है, तरुणाई है,
कुछ मीठी तन्हाई है,
कुछ नाउम्मीदी छाई है,
यह प्रतिपल, प्रतिक्षण परिवर्तन कौन जाने कहाँ से आता है,
इक सांझ सुनहरी छाई है,
स्वप्न रुपहले लाइ है,
इन सबको पनपाने का, पुष्पित करने, महकाने का, अंदाज़ कहाँ से आता है,
मेरे मन उपवन में उपजी नन्हीं-नन्हीं प्यारी कलियों को जाने में, अनजाने में, श्रृंगार
कहाँ से आता है,
आँखों में सूनापन-सा है,
शून्य में जैसे विचरण है,
किसी प्रिय को गलबहियां करने को ना-जाने दिल क्यों चाहता है,
आभार तुम्हें, आधार तुम्हीं,
तुमपर सर्वस्व न्योछावर करने का यह भाव कहाँ से आता है,
निःशब्द, निश्चेस्ट यूँ बैठे रहने को,
दीवारों-दर को ताकने को,
ठंडी आहें फिर भरने को, दिल क्यों ये फिर कसमसाता है,
दिन अंधियारे, रातें रोशन और यादों के समंदर में डूबना-उतराना, ऐसा विचार
उमड़-घुमड़कर बारम्बार चट्टानों से टकरा-टकरा,
पुनश्च क्यों लौट आता है,
दिन-रात बेचैनी से पहलू बदलना, करवटें पलटते-पलटते, खामोशी से नींद के
आगोश में समा जाना,
फिर अचानक रात्रि के तीसरे पहर में निशाचर की भांति उठ-उठकर, कुछ कहें-
सुनने का ख्याल आखिर कहाँ से आता है,
दिल की धड़कनें कभी-कभी बेकाबू होने लगती हैं,
चार कदम चलते ही थमने की चाहत रखती है,
उनके बगैर कहीं भी जाने का ख़याल ना कभी आया और ना ही कभी अत है,
मन चकनाचूर सा होकर, मायूस हो बैठा,
निराशा के अन्धकार में हताश हो बैठा,
इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नए सिरे से निर्मित करने का विचार कहाँ से आता है,
ठोकर मारकर ज़माने की सभी रस्में तोड़ देने का जज़्बाती और खुराफाती ख्याल
ज़हन में कहाँ से आता है,
कुछ भूतकाल की भूली-बिसरि यादों को, हृदय से चिपकाए किसी शांत, एकांत,
निर्जन में कोलाहल से दूर, इस समाज और दुनिया से छिपने-छिपाने का ख्याल
अक्सर रह-रहकर आता है,
डगमगाती-सी जीवन नैया को हिचकोलों से बचाना, पतवार की तक लगाना
और पुन: बीच मंझदार में ले जाना,
ये ऊंटपटांग विचार ना जाने कहाँ से आता है,
पानी संग अठखेलियां करना, कभी घर के किसी कोने में अकारण ही दुबके रहने
का मनोभाव ना जाने कहां से आता है,
किसी राहगीर को रास्ता बताते-बताते उसका पूरा जीवन वृतांत बांचने लग जाने
को जी चाहता है,
अपने गाँव की संकरी पगडण्डी पर धीरे-धीरे खेतों की हरियाली को निहारते-
निहारते अस्ताचलगामी सूर्या के गोले को समूचा निगल जाने को जी चाहता है,
अपने दिल से कलुषता, वैमनस्य, घृणा, अहंकार रुपी भावों को कुम्भ-स्नान कर
पवित्रता में डुबकी लगाने को जी चाहता है,
डुबकी लगाने को जी चाहता है।