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किसी से कर ना अधिक इच्छा, नहीं कोई जग में अब सच्चा,
स्वत्व को तू अब अपना मान,
जटिलता उतनी होगी कम, ये लेगा जितनी जल्दी जान।“
उम्मीदें,अपेक्षाएं, इच्छाएं, कामनाएं न्यूनतम ही अच्छी होती हैं,
इस क्षणभंगुर संसार की अप्रतिभ महिमा से भला कौन अनभिज्ञ है,
यहां दया, ममता, मोह, माया, स्वार्थलोलुपता ही चहुँ और व्याप्त होती है,
इंसान इंसान से मित्रता कम और शत्रुता ही अधिक निभाता है,
मेरे पास भले ही न्यूनता हो, अभाव हो, दाने-दाने को मोहताजी हो,
परन्तु दूसरे की थाली में घी अधिक क्यों है,
इसकी अकारण व्यथा और जुगुप्सा तो सर्वथा व्याप्त होती है,
आज भाई भाई के खून का प्यासा हो गया है,
आज सगे -सम्बन्धियों के रिश्तों को सरेराह तार-तार होते देखना सहज सुलभ है,
दाम्पत्य जीवन में दरारों का पनपना,
सम्बन्ध विच्छेद की असहनीय वेदना से तड़पना,
आज नितांत साधारण सी बात होती है,
निजता के, स्वत्व के, अभिमान के, मान के, सम्मान के, प्रतिष्ठा व आन के,
मामूली से मामूली मसलों पर अदालतों के दरवाज़े खटखटाना तो
आज 'प्रतिष्ठा सूचक' बन गया है,
जहां भी दृष्टि दौड़ाइए,
वहीं पर लिप्सा, तृष्णा और आर्थिक अभावों का करुण क्रंदन जारी होता है,
महिलाएं आज के अत्याधुनिक और ‘कृत्रिम बुद्धि' के दौर में भी
घरेलू हिंसा, यातना और उत्पीड़न का शिकार होती हैं,
आज भी बच्चे भूखे पेट पानी के घूँट भरने को विवश होते हैं,
आज भी उनको दो जून की रोटी के लिए
भोर से सांझ तलक रोज़गार की तलाश होती है,
आज भी निर्धनता का स्तर गोदान के ‘होरी’ से कुछ अधिक भिन्न नहीं है,
उनकी झोंपड़ियों में आज भी प्रकाश का अभाव और कालिमा ही व्याप्त होती है,
आज समाज दस्तावेजों में, कागज़ी सबूतों के दम अवश्य भरता है,
पर ग्रामीणों के गाँवों की दशा व बदहाली जस की तस होती है,
आजकल समाज के विचारक संकीर्ण व दूषित मानसिकता के शिकार होते हैं,
आजकल हत्याएं ही मात्र मर्मान्तक नहीं,
उनको ठिकाने लगाने हेतु तरीके भी अत्यंत घृणित, दुर्दांत और वाहियात होते हैं,
आजकल के अपराधों की प्रकृति देख व सुनकर तो
आम इंसान का रोम-रोम सिहर उठता है,
आजकल पिता-पुत्री, माँ-पुत्र, बहन-भाई, देवर-भाभी, ससुर-बहू, जीजा- साली जैसे
संवेदशील रिश्तों की मर्यादा पर तो प्रश्नचिन्ह-सा लग गया है,
समाज जाने कैसे रसातल में धंसता जा रहा है,
आज की आधुनिक पीढ़ी की शिक्षित युवती होकर भी
मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा है,
आज की व्याप्त दुर्व्यवस्थाएँ देखकर तो मन त्राहि-त्राहि कर उठता है,
उम्मीदें,अपेक्षाएं, इच्छाएं, कामनाएं न्यूनतम ही अच्छी होती हैं,
हम अपने इहलोक को स्वर्गलोक बना पाएं, यही आज के युग की प्रबल मनोकामना है,
हम सर्वजन कल्याण की भावना का समाज के साथ तारतम्य बिठा पाएं,
यही समाज की उत्कट अभिलाषा और अवधारणा है,
मानवता, भाईचारा, प्रेम, स्नेह, सौहार्द का चहुँ और उजाला हो,
यही हमारी सदेच्छा है,
जो भी करना हो, स्वयं ही बीड़ा उठाएं, कर्म करें, आगे बढ़ें,
वरना तो यह सार्वभौमिक सत्य है कि
उम्मीदें,अपेक्षाएं, इच्छाएं, कामनाएं न्यूनतम ही अच्छी होती हैं,
उम्मीदों का दामन नहीं छोड़ना चाहिए,
पर उनके साथ गठबंधन भी अच्छा नहीं होता है,
समय पर चेत जाइए, क्योंकि कुछ चीज़ों में विलम्ब का अंजाम अच्छा नहीं होता है,
क्षणभंगुर संसार का बस इतना-सा सार है,
कर्म करो, आगे बढ़ो, बाकी सब निःसार है,
कर्म करो, आगे बढ़ो, बाकी सब निःसार है।