Photo by Atharva Tulsi on Unsplash
कदम-कदम पर पैरों को लहूलुहान करते यहां-वहां टकरा जाते हैं हादसे,
जहाँ तलक नज़र है जाती, कहीं-न-कहीं,
किसी-न-किसी रूप में दिखाई पड़ जाते हैं हादसे,
बचकर रहिए, संभलकर चलिए, तनिक एहतियात बरतिए,
यह शहर है हादसों का,
जहाँ पग-पग पर, चप्पे-चप्पे पर,
समाचार की बड़ी-बड़ी सुर्ख़ियों पर नित नए-नए,
अनोखे-निराले अंदाज़ में छा जाते हैं हादसे,
आप कहीं भी रत्तीभर सुरक्षित नहीं हैं,
क्योंकि ट्रेन में, विमान में, पहाड़ में,
तालाब में, नदी में, मैदान में,
यहाँ तक कि पैदल चलने वालों को भी कहाँ बक्श पाते हैं हादसे,
धन-दौलत, ऐश्वर्य संपदा, सब की छीना-झपटी है,
इन सबको पाने की लालसा और जुगुप्सा चहुँ ओर बलवती है,
ज़मीं से फ़लक तलक जहाँ-जहाँ भी नज़र डालोगे,
धरती, आकाश, समुद्र, महासागर, चाँद,
यहाँ तक कि ग्रहों- उपग्रहों पर भी गाहे-बगाहे उभर ही आते हैं हादसे,
इंसानों की इस बस्ती में,
अब आदमखोर ही ज़्यादा हैं,
मासूम अबोध, अजन्मे शिशुओं की तो कोई गणना ही नहीं,
यहाँ गलियों, कूचों, गाँवों, शहरों और महानगरों में,
किशोरवय: की युवतियों से प्रौढ़ावस्था, यहाँ तक कि
वृद्धावस्था तक के लोगों से,
कर पार हैवानियत की सम्पूर्ण हदें, व्यभिचार को ही व्यापार मान,
मामूली से मामूली मसलों पर कभी रोटी, कपड़ा और मकान,
कभी घर का कोई साज़ोसामान,
कभी मान, कभी मर्यादा, तो कभी छल-प्रपंच,
कभी धोखा, तो कभी झूठे दर्प का अहंकार,
यहाँ नामालूम कितने नगण्य से मामलों पर,
कभी वस्त्रों पर, कभी असहलों पर,
नित नए-नए ही रूप धरे, गली-गली में कूचों पर,
कभी मोहल्ले और कभी नुक्कड़ पर,
कभी पनवाड़ी के अड्डे पर,
कभी रिक्शा और कभी बस पर,
हिंसक, खूंखार और भयावह,
रक्तपात से सिंचित से,
लज्जा को करते तार-तार,
फिर बात-बात और कभी बिना बात, हो जाते हादसे,
किसी का जहां लुट गया, किसी का मिट गया,
किसी की अस्मत लुट गई, किसी का शहर उजड़ गया,
कहीं चोरी, चकारी, कहीं लूटपाट,
कहीं डाका, कहीं आगजनी, कहीं सेंधमारी,
कहीं बलात्कारियों के आए दिन बढ़ते अत्याचार,
कहीं जामताड़ा से जुड़े धोखाधड़ी के तार,
कहीं गृह-कलेश, कहीं उत्पीड़न, कहीं दुर्घटनाएं सरे बाज़ार,
कहीं भू-स्खलन, कहीं दरकें पहाड़,
कभी उफनती नदियों में आ जाती बाढ़,
यत्र-तत्र-सर्वत्र मचती चीख पुकार और दिल-दहलाता हाहाकार,
जहाँ तलक है दृष्टि जाती,
कुकुरमुत्तों की माफ़िक पनप आते हैं हादसे,
कहीं समुद्र रहा ठाठें मार-मार,
मचाए तबाही अपरम्पार,
लाखों की लीला कर समाप्त,
हो जाए शांत यूँ होके पस्त,
कभी शैल-शिखरों पर मचे तबाही,
सैनानियों को मौत मानो घर से बुला लाई,
कभी दुश्मन देशों की ललकार,
कभी संधि-समझौते, कभी मान-मुनव्वल तो कभी तकरार,
कभी अन्न-जल का संकट गहरा,
कभी सीमाओं पर दुश्मन का पहरा,
कहीं गरीबी, कहीं भुखमरी,
आज का शिक्षित युवा छोटे-छोटे रोज़गार की तलाश में,
मारे-मारे फिरे लाचार,
कहीं फैशनपरस्ती की अंधी दौड़,
चारों तरफ है भीड़ का रेलमपेल,
कोई सरपट भागे इस ओर, कोई उस ओर,
युवा आज का दिशाहीन है,
पथभ्रष्ट है और कुछ दीन-हीन है,
कहाँ जा रहा, पता नहीं है,
संस्कारों का अमल नहीं है,
परम्पराएं धराशायी हैं, नैतिक मूल्य ध्वस्त हो रहे,
'व्यवहारिकता' ही 'व्यवहारिकता' है,
आचार-संहिता लुप्त हो गई,
लाज-शर्म अब तो चुक गई,
'संस्कृति' तो बस पृष्ठों पर रह गई,
ओछी मानसिकता हावी हो गई,
छिछले विचारों और छिछोरी सोच की अंधदौड़ है,
नवीनता के नाम पर मात्र पिछलग्गु बनने की होड़ है,
नग्नता आधुनिकता का जामा ओढ़ रही,
अपने-पराए का भेद खोल रही,
'धैर्य' कहीं किसी को भी नहीं है,
रोज़ सुबह के समाचार में,
10 पन्नों में से 4 में,
नगरी-नगरी, शहर-गाँव में,
खतरनाक, दुर्दांत और कहर बनकर करते वार,
एक दिन नहीं 24 घंटे, सातों वार,
रह-रहकर भीषण पाषाण की भांति,
आँखों में खौफ का साक्षात मंजर लिए, विषैले धुंए-सा बवंडर लिए,
दिख जाते हैं हादसे,
कोई लौहपथगामिनी से कटा,
कोई ,लहूलुहान हुआ,
कोई विमान में जाकर अटक गया,
कहीं अग्निवर्षा हुई तो कहीं कोई इंजन फेल हुआ,
कोई जल-समाधि में डूब गया,
कोई बादल फटने से परलोक गया,
कोई फंसा किसी-किसी व्यसनों में,
दुनियावी फरेबी प्रपंचों में,
कभी दांव खेलते कभी पेंच,
रक्षक ही बन गया भक्षक है,
कहीं पत्नियों के कुकृत्य उजागर हैं,
क्या किया जाए भाई!
नई सदी है, नया-सा युग है,
21वीं सदी है ना, इसीलिए,
आज के ज़माने में तो जन्मते ही, बच्चों के हाथों में रिमोट है,
रोबोट और इंटरनेट ही आज सब कुछ है,
यही वजह है कि
आजकल हादसों का चेहरा-मोहरा, कुछ धुला-पुंछा, कुछ बदला-बदला है,
पहले पत्नियां सताई जाती थीं,
वे दहेज उत्पीड़न में जलाई जाती थीं,
‘तंदूर’ में तंदूरी कबाब की भांति पका दी जाती थीं,
'बार' में सभ्यता सिखाने पर गोली से उड़ा दी जाती थीं,
छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर ‘फ्रीजर’ में जमा दी जाती थीं,
पेशे से पढ़े-लिखे इंजीनियरों के हाथों टुकड़ों में
काट-काटकर पहाड़ियों में बिखरा दी जाती थीं,
नहीं,नहीं! घबराइए मत!
ये तो कुछ भी नहीं,
ये तो मात्र हलके-फुल्के से ही हैं हादसे,
अब चूँकि ज़माना बदल गया है,
तो अब पतियों की बारी है,
अब पत्नी अपने प्रेमी के संग कुछ ऐसी योजना बनाती है,
कभी पतियों को नीले ड्रम में सीमेंट संग देती समाधि है,
कभी ऊंची-ऊंची पहाड़ियों से, टुकड़ों-टुकड़ों में, किश्तों- किश्तों में,
वे पतियों को फिंकवाती है,
कभी धन, संपत्ति और कभी आभूषणों की चमचमाती चाहत में,
कहीं पतियों को देती जलसमाधि,
अपना उल्लू सीधा करतीं,
घात लगाकर धोखा देकर,
मां-बाप से पिंड छुड़ाती हैं,
संवेदनहीनता ही संवेदनहीनता फ़ैल चुकी है,
संवेदनशीलता जाने कहाँ लुप्त है,
धिक्कार है ऐसे लोगों पर,
जिनके हृदय पाषाण भरे,
अरे! कुछ तो लाज रखो, उस माँ की,
जिसने अपने रक्त-लहू से सींच-सींचकर,
पीड़ा-कष्टों से जूझ-जूझकर, ‘गुदड़ी के लाल’ बड़े किए,
कुछ दया-धर्म नहीं आँखों में,
महत्त्वाकांक्षा ठाठें मार रही,
आगा-पीछा कुछ ना सूझे,
जहाँ-जहाँ देखो, वहां-वहां,
'मानवता' ही हार रही,
इस कलयुगी माहौल में त्राहिमाम ही गूँज रहा,
क्या सभी विकल्प ही चुक गए, नृशंस हत्याओं का ही तांडव बचा रहा?
यदि रास ना आए व्यवहार किसी का,
तो ऐसी भी कोई बात नहीं,
अलग करो अपनी राहें,
चुन लो तुम भी कोई राह नई,
जन्म देने का अधिकार तुमको नहीं,
तो हत्या का हक़ किसने दिया?
पाप-पुण्य, और लाभ-हानि,
सब भाग्य के हाथों निश्चित है,
फिर भी बेसब्रों की महफ़िल में दहशत फैलाते,
दिल-दहलाते, निर्लज्जता से मुंह उठाते,
टकरा ही जाते हैं हादसे,
टकरा ही जाते हैं हादसे।