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“ज़िन्दगी जीने का नाम है,
ख़ुशी को मनाने और
गम को भुलाने का नाम है,
खट्टी हो, मीठी हो, कैसी भी हो ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी जीने का नाम है।“
हमारे आस-पास, हमारे इधर-उधर,
हमारे अगल-बगल इतना सन्नाटा सा क्यों है?
अभिजात्य वर्ग हो, मध्यम हो या हो निम्न वर्ग,
सभी के दिलों में उठती हुई हलचल और धीमा-धीमा सा
कोलाहल सा क्यों है?
जगह-जगह पर धर्मों के नाम पर वैर-वैमनस्य, ईर्ष्या और द्वेष का कुहासा सा
क्यों है?
सामाजिक समस्याओं का अम्बार-सा लगा है,
संकीर्णताओं का बाजार सा सजा है,
गली-गली, कूचे-कूचे, मोहल्ले, नगर और शहरों में
धीमे जहर सा फैलता व्यभिचार सा क्यों है?
सद्भावनापूर्ण माहौल और रामराज्य -सी शान्ति और
क़ानून व्यवस्था का अभाव-सा क्यों है?
भाई-भाई को देखकर ईर्ष्याभाव से ग्रसित-सा क्यों है?
अपराध जगत का निरंतर फैलता व्यापार सरेआम-सा क्यों है?
आखिर हमारे मन में शांतिप्रियता, न्यायप्रियता, पंचशीलता,
प्रेम, दया, मोह, ममता सरीखी कोमल और मृदुल भावनाओं का
अभाव-सा क्यों है?
हमारे हृदय का स्पंदन, कोमलता का स्पर्श और
मर्यादायुक्त मूल्यों का अभाव-सा क्यों है?
सरेराह,सरेबाज़ार नारी-शक्ति का आए दिन होता
अपमान-सा क्यों है?
हमारे नालंदा, तक्षशिला सरीखे विश्विद्यालयों की अमूल्य धरोहर-सा
आज क्यों कोई जीर्णाद्धार नहीं है?
आज देश में चहुँ ओर विषमताओं, आपदाओं और
विपदाओं की भरमार है,
क्यों उनका कोई पालनहार नहीं है?
आज के इस तकनीकी और रोबोट युग में
हर आदमी इतना बेजान और बेजुबान-सा क्यों है?
हर कोई भूला-भटका राह में अटका और लावारिस सा बदहाली से परेशान-
सा क्यों है?
चारों ओर कालिमा-सा एहसास और दैदीप्यमान सूरज के
उदीप्त होने का अभाव-सा क्यों है?
हमारी दृष्टि से अतिदूर. जहां क्षितिज के होने-सा गुमान होता है,
वहां तक पहुँचने की कशमकश का तूफ़ान-सा क्यों है?
आंधी-तूफ़ान, चक्रवात, भले ही लाख आ जाएँ,
पर जीवन को ऊर्जा से, पारदर्शिता से जीने का अभाव-सा क्यों है?
देश का जन-जन, जातीय सीमाओं की ऊंची-नीची पगडंडियों में
डूबता-उतराता हैरान-परेशान-सा क्यों है?
युवा शक्ति अत्यंत व्यस्त है,
रंग-ढंग भी अस्त-व्यस्त है, चमक- दमक से भी लकदक है,
मुझे समझ में ये नहीं आता कि इतना सब कुछ तो पा ही लिया है,
फिर भी इतना खालीपन-सा क्यों है?
हाहाकार-सा मचा हुआ है,
द्रौपदी आज भी अस्त-व्यस्त है,
आत्मसम्मान भी हुआ ध्वस्त है,
आखिरकार माजरा क्या है?
इंसानों की नगरी में हर मानव चेतना शून्य-सा क्यों है?
स्वार्थलिप्सा की होड़ लगी है,
अहंकार की दौड़ लगी है,
कुछ भी जाने बूझे बिना ही हर मस्तक पर सिलवट-सी क्यों है?
ये तो हम सबको ही पता है,
सभी एकाकी आये थे और अकेले ही चले जाना है,
ये मेले- ठेले चंद रोज़ का ठिकाना है,
खौफ, भय और अराजकता का सा माहौल है,
पल-पल, हर पल समय के मुट्ठी में से रेत की मानिंद
निकल जाने का भय सा क्यों है?
अपने अपनों को मिलने से कतराने लगे हैं,
लोग किनारे-किनारे ही चलने-से लगे हैं,
किसी को किसी से कोई सरोकार सा नहीं है
अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग बजाते
सब डुगडुगी से बजने से लगे हैं,
अधिकारों को साधिकार जताते-जताते
कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों से तनिक बचने से लगे हैं,
हर दिल में एक उदासी है,
मायूसी है, ख़ामोशी है, उम्मीदों की धुंधली चादर है,
फिर भी शीतलता की छाँव में भी तवे-सी तपिश-सी क्यों है?
फिर भी शीतलता की छाँव में भी तवे-सी तपिश-सी क्यों है?

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