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‘जीवन की आपाधापी में निकलता नहीं कोई परिणाम,
कोई सोचता नहीं है कौन लगाएगा इन सबपर लगाम।‘
मैंने चाहा तुम्हें अपने प्यार के मधुरतम, स्वर्गिक अहसास सा,
परन्तु तुम नहीं लगा पाए ज़रा सा भी अंदाज़ा,
कि टूटने का, टूटकर बिखर जाने का गम होता है क्या?
कांच की किरचों की चुभन का असर भला होता है क्या?
दर्पण के यकायक बीच से चटकने का सबब होता है क्या?
तुम्हें रोका भी, तुम्हें टोका भी,
बीच राहों से वापिस लाने को मैं कई-कई बार रुका भी,
परन्तु मात्र सोचने और ख़याली पुलाव ही पकाने से भला कुछ होता है क्या?
किसी को टूटकर चाहना और लाख कोशिशों के बाद भी
उसकी थाह ना ले पाना,
किसी मंज़िल के बेहद करीब होकर मात्र कुछ क़दमों की दूरी से चूक जाना,
क्या होता है, कभी सोचा है क्या?
किसी के प्रेम में पड़कर समुद्र की अथाह गहराइओं सा छू लेने का आभास
क्या होता है, कभी जाना है क्या?
किसी को आप मन ही मन में देवता सा पूजने लगें और
वह आपको बेगानों सा समझने लगे,
उन क्षणों की अवशता और विवशता को कभी मापा है क्या?
किसी भी बंधन से नितांत परे रूहानी प्यार की रुमानियत और रूहानियत
का लुत्फ़ भला क्या होता है, कभी समझा है क्या?
बिना किसी जान-पहचान, किसी अनजाने से अपने दुःख-सुख साझा कर
लेना, उसके नितांत, निजी परिवेश में घुसपैठ कर लेना,
ऎसी अनुभूति को कभी जाना है क्या?
दुनिया के मेलों-ठेलों में, भीड़-भाड़ और रेलों में, संघर्षशील झमेलों में,
परिस्थितियों से लड़ते-भिड़ते, धकियाते, लुढ़कते, घिसटते,
कभी किसी कोमल, लजीले और संवेदनशील हथेली के स्पर्श की
लरजती छुअन को महसूसा है क्या?
दुनियावी फरेबों की तो लम्बी फेहरिस्त ठहरी,
उस ग़मगीन तराने को तो ना ही छेड़ो तो ठीक है,
पर, लेकिन, परन्तु तुमने कभी रिमझिम बारिश की कच्ची फुहारों के बीच
खुले गगन की आसमानी छटा में टिप-टिप बूंदों के शोर की हिलोरों को
हृदय में स्पंदित होना जिया है क्या?
आंधी-तूफानों, झंझावातों में भी कभी ना डिगने वाले,
अटल वृक्षों की शीतल छाँह में कभी पल-दो-पल, घड़ी-दो-घड़ी,
शांत चित्त होकर उनपर डेरा डाले मेहनतकश पंछियों के
नीड़ की बुनावट और प्रौद्योगिकी को निरखा-परखा है क्या?
तुमने कभी किसी निःसंतान दंपत्ति के चेहरे की बनती-बिगड़ती,
ढेरों मासूम सवालों का जवाब तलाशती, शून्य में ताकती निगाहों को
अपने चंचल नेत्रों में समाहित किया है क्या?
लाखों, करोड़ों युवाओं की आँखों में बसे उज्ज्वल भविष्य के सतरंगी,
मखमली स्वप्नों को कुचलते,
मसलते देख पाने का साहस ,कभी किया है क्या?
किसी अनजाने शहर से आए मेहमान को अपने व्यवहार से रूबरू पाना
और विचारों, ख्यालों का हूबहू होना,
आपने भी क्या कभी स्वयं को ऐसा रोमांचित महसूस किया है क्या?
एक अंतरंग साथी का कुछ पलों का ही संग-साथ होना,
उसके बिछुड़ने की असहनीय पीड़ा, वेदना, अदृश्य बेचैनी
और छटपटाहट का मर्मान्तक ज़हर आपने भी कभी पिया है क्या?
किसी भिक्षुक को किसी दिन भीख में अन्न का एक दाना ना मिला हो,
जिसने आँखों ही आँखों में रात्रि व्यतीत की हो,
व्याकुलता के मारे भूख- प्यास से बिलबिलाते उसके मनोभावों को
भेदने का प्रयास किया है क्या?
सरेराह, दिन-दहाड़े, हमारी सुकुमारी, सुकोमल बेटियों, बहुओं के सतीत्व,
नारीत्व, शुचिता और गरिमा पर प्रहार करने वालों से
भला कभी प्रतिकार लिया है क्या?
लाखों-लाख परिवारों में, सभी मुख्य दैनिक समाचारों में,
भ्रूण हत्या के जघन्य अपराधों के किस्सों का- सच बताइएगा,
कभी उन दम्पत्तियों की संकीर्ण व कुंठित मानसिकता पर
कुठाराघात किया है क्या?
कभी घोर अन्धकार में, बिना लाग-लपेट, बिना हर्ष-विषाद,
शोक, लोभ, मोह, परहित हेतु, सर्वजन सुखाय, विषपान भी किया है क्या?
सम्पूर्ण इच्छाएं, अभिलाषाएं, हमारी सभी मनोकामनाएं,
समाजहित, राष्ट्रनिहित, कल्याणकारी, परोपकारी और सदाचारी हों तो,
हम एकजुटता की नई परिभाषा गढ़ने में सफल हो जाएंगे,
किसी के मन में अपना स्थायी घर बना लेना,
उसपर साधिकार आधिपत्य जमा लेना,
उसे अपने जीवन की दैनन्दिनी और क्रियाकलापों में
सुई में धागे सरीखे पिरो लेने का आभास किया है क्या?
ऎसी आशान्वित और गौरवान्वित सोच, दशा और दिशा का
आह्वान किया है क्या?
आह्वान किया है क्या?

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