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मन पर कसो लगाम,
कि ये तो पानी सा चलायमान,
मन को बांधकर रखना होगा,
द्रुत गति से चलना होगा।‘
ये मेरा मन कभी-कभी भटक-सा जाता है,
कभी किन्हीं ख्यालों में डूबता उतराता है,
ये मेरा मन कभी भूतकाल में विचरण करने जाता है,
तो कभी ये मन भविष्य की सुनहरी आशाओं के दिप-दिप-दिप-दिप दीप जलाता है,
ये मेरा मन कभी अति चंचल व चलायमान-सा होता जाता है,
ये एक रसिक भँवरे की भांति इत-उत मंडराता है,
ये यत्र-तत्र-सर्वत्र होना चाहता है,
ये मेरा मन कभी भी कहीं भी शांति नहीं पाता है,
ये मेरा मन कभी भी एक जगह पर टिक नहीं पाता है,
दूर गगन में उन्मुक्त पंछी-सा उड़ने को बेचैन रहता है,
ये शांति की खोज में प्राय: प्रकृति के अनुपम नज़ारों की बाट जोहता है,
ये मेरा मन एक बेलगाम घोड़े-सा अल्हड़ होता जाता है,
ये कभी यहां, कभी वहां, प्रत्येक स्थान की थाह पाना चाहता है,
ये मेरा मन कभी भावातिरेक से भावविभोर हो उठता है,
तो कभी-कभी गम की अतल गहराइयों में कहीं गहरे पैठ जाता है,
ये मेरा मन कभी तितलियों की भांति मदमस्त, मनमौजी और मस्तमौला होता जाता है,
तो कभी-कभी मेरा मन प्राचीन खंडहरों और कंदराओं में एकाकार होना चाहता है,
ये मेरा मन कभी प्रसन्नता से लबरेज़ हो उठता है,
तो कभी-कभी ये साधु-सा चिरंतन मौन धारण कर लेता है,
कभी मीरा-सा मगन, तो कभी द्रौपदी-सा आक्रोशित हो उठता है,
कभी धर्मराज युधिष्ठिर-सा विद्वान, तो कभी दुर्योधन-सा विद्रोही हो जाता है,
ये मेरा मन कभी कृष्ण सा त्रिलोकदर्शी तो कभी सुदामा सा प्रिय मित्र भी हो जाता है,
ये मेरा मन कभी राम सा मर्यादापुरुषोत्तम तो कभी रावण सा अहंकारी भी हो उठता है,
ये मेरा मन कभी सात्विकता से ओत-प्रोत हो जाता है,
तो कभी-कभी मनसा-वाचा-कर्मणा उद्वेलित सा हो जाता है,
ये मेरा मन कभी वीतरागी हो उठता है,
कभी सन्यासी बन जाता है,
कभी-कभी तो मदांध और व्यावसायिक व्यापारी सा सौदेबाज़ी पर उतर आता है,
ये मेरा मन अत्यंत मासूम, प्यारा, भोला, निष्पाप बचपन सा हो जाता है,
ये मेरा मन कभी-कभी दुर्दांत, आखेटक और लुटेरा भी बन जाता है,
कभी खुद को ही अपने कर्मों की शाबाशी देने लगता है,
कभी तनिक-सी गुस्ताखी पर गीदड़-भभकी पर उतर आता है,
राग, द्वेष, प्रेम, प्यार, स्नेह, समर्पण, अहंकार, करुणा, दया, माया, ममता सभी को अपने में अंगीकार-सा कर लेता है,
परन्तु कभी-कभी मेरा मन मात्र स्वार्थी व आत्मकेन्द्रित-सा हो जाता है,
ये मेरा मन कभी-कभी भटक-सा जाता है,
कभी किसी की आँख की किरकिरी, तो कभी किसी की आँख का तारा सा बन जाता है,
ये मेरा मन कभी-कभी मुझे असहाय छोड़कर, कहीं दूर-बहुत दूर चला जाता है,
परन्तु कभी-कभी ये प्रात:काल का निकला हुआ, गोधूलि वेला में अपने घर को लौट आता है,
ये मेरा मन कभी-कभी रचनात्मक तो कभी विध्वंसकारी-सा हो जाता है,
ये मेरा मन कभी उषाकाल का सूर्योदय तो कभी सांझ का सूर्यास्त भी बन जाता है,
कभी पुलकित, आलोड़ित तो कभी-कभी नितांत, एकाकी, भयभीत और कृशकाय-सा हो जाता है,
ये मेरा मन घर के स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन से अक्सर ऊब सा जाता है,
ये मेरा मन प्राय: खट्टा, मीठा, तीखा, चटपटा, मसालेदार भोजन खाने को ललचाता है,
ये मेरा मन कभी-कभी मुझे कचोटता है, धिक्कारता है, ललकारता है,
परन्तु खुशी-गमी, धूप-छाँव, सर्दी-गरमी, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, ऊँच-नीच, पाप-पुण्य, सभी अवस्थाओं का भरपूर लुत्फ़ उठाना चाहता है, भरपूर लुत्फ़ उठाना चाहता है।

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