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‘अबला अब भी अबला ही है,
कुछ क्षेत्रों में सबला भी है,
नारी ही सच्ची अधिकारी,
सब कुछ कर ले, यदि करे प्रण भारी।‘

नारी दशकों से ही आभारी रही है,
पुरुषों के कदमों तले का कालीन और कहलाने के लिए दासी ही रही है,
कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि
उनका अपना कोई स्वाभिमान नहीं है,
उनका जो भी है, प्राणप्रिये पति की धरोहर है,
उनका अपना वजूद, अपना अस्तित्व तो कहीं नहीं है,
बिना कसूर के भी सिर झुकाए मौन-सी खड़ी है,
अपना पक्ष, अपनी राय रखने को, उनकी सुनता कौन है?
खुशियां बांटने को इनके पास हज़ार बहाने हैं,
गम छिपाने को भी बेशुमार इनके ठिकाने हैं,
ममता की मूरत है ये, ये दुर्गा-सी शक्ति है,
संस्कारधानी है ये और बच्चों की ये प्रेरक भी है,
दया, प्रेम और करुणा की एक प्यारी सी मूरत है,
जिसके तप से ब्रह्मा कांपे, ऎसी ही ये तपस्विनी है।
खुशियों का सागर है ये,
और त्याग की इक सूरत है,
नारी के नौ रूपों में माँ का ही स्वर्णिम तप है,
नारी सदा से ही पुरुषों के चंगुल में फंसी रही है,
उसको तुम उसका हक़ दे दो, वही उसकी अधिकारिणी है,
कभी-कभी ऐसा लगता है कि सीमाएं अमर्यादित हैं,
नारी अब भी पराधीन है, उसकी कुछ भी पहचान नहीं है,
गरिमामयी है, श्वेत-धवल सी शुद्ध है,
असफलताएं इनके माथे,
लौहखंड शिला सी मजबूत खड़ी है,
उम्मीदों की किरण यही है, आशाओं का द्वीप यही है,
मोती यही है, सीप यही है,
दुविधाग्रस्त को राह दिखाती, तन्हाई का संगीत यही है,
कलकल, कलकल, छलछल, छलछल,
चहुँ ओर ही बजती यही ध्वनि है,
प्रतिछाया है, प्रतिध्वनि है,
घुँघरू सी रुनझुन रुनझुन है,
नारी दशकों से आभारी रही है,
नारी दशकों से आभारी रही है,
इस दुनिया का सत्य यही है,
सत्य यही है, सत्य यही है।

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