पशुओं की है मूक इक भाषा,
पक्षी गाएं, गुनगुनाएं, चहचहाएं,
इनको कोई जान ना पाए,
आओ, इनकी बोली जानें,
आओ,इनकी भाषा पहचानें। “
ये पशु, ये पक्षी, ये परिंदे इतने खामोश क्यों हैं?
ये खग विहग खुद में ही मदहोश क्यों हैं?
मैं उत्सुक हूँ पूछने को मात्र एक प्रश्न,
कि इन मासूमों की ज़िंदगी इतनी हैरतअंगेज़ क्यों है?
ये मांगते हैं बस प्यार, थोड़ा दुलार, थोड़ा सत्कार,
पर उलट इसके इन्हें मिलती सदा फटकार।
इन बेज़ुबानों की ज़िंदगी इतनी महरूम क्यों है?
इनकी आखों की मूक भाषा में इतनी कशमकश क्यों है?
ये बोल भले ही ना पाएं,
इनकी मौन भाषा में आखिर इतनी कसक क्यों है?
वफादारी के बेमिसाल नुमाइंदे हैं ये,
वक्त पड़ने पर जान जोखिम में डाल दें,
खुदा के अनमोल फ़रिश्ते हैं ये,
ये पक्षी उन्मुक्त रहे हैं, इनको तुम अम्बर की सीमा छूने दो,
इनको इनकी गरिमामयी सीमा रेखा में रहने दो,
इन्हें दुलारो, इन्हें पुचकारो,
इनको इनके हिस्से का जी लेने दो,
ये तो हैं बस प्यार के भूखे,
इनको पिंजरों से मुक्त करो,
बीच राह में मिले जो घायल,
उसकी सेवा-टहल करो,
ये हमसे इतना ही मांगें,
कोई ना मारे, कोई ना पीटे,
ये बस हमसे नेह ही मांगें,
क्यों ना इनको पाले-पोसें,
इनको जीभर प्यार करें हम,
इनके मन को हम सब जानें,
इनके मन को हम सब समझें,
कण-भर उनको जीने दो,
मन भर उनको जीने दो,
कण-भर उनको जीने दो,
मन भर उनको जीने दो।

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