“माता-पिता का आशीर्वाद तो सदैव चाहिए,
उनका साया संतानों को सर्वत्र चाहिए,
उनके बिना ये जीवन अपूर्ण है,
उनको तो सदैव आस-पास ही रहना चाहिए।“
अत्यंत दुःखद, मर्मान्तक और हृदय विदारक होता है,
किसी के भी पिता का दिवगंत हो जाना,
एक बार जाना तो पुनश्च कदापि लौटकर न आ पाना,
बिगड़ ही जाता है जाने वाले के परिवारजनों व सगे-सम्बन्धियों के जीवन का
ताना-बाना,
कई बार वार्तालाप करती हूँ स्वयं से,
आत्मसाक्षात्कार करती हूँ खुद से,
स्व से स्वत्व से, अपने आप से,
आखिर क्यों,
आखिर क्यों होता है ये जीती-जागती ज़िन्दगियों का अकस्मात्
दामन छुड़ाकर पलभर में बिछुड़ जाना,
ये विधि का विधान अत्यंत ही निष्ठुर है,
ये आदि से अनंत काल तक न कोई समझ पाया
और ना ही किसी ने आज तलक है जाना,
अत्यंत ही स्नेहिल, मधुरतम, शहद सरीखे मीठे
और गीली मिट्टी सरीखे सौंधे-सौंधे पलों का हठात् निष्ठुर हो जाना,
अत्यंत ही कठोर और मर्मभेदी होता है,
किसी के भी पिता का इस नश्वर दुनिया से अकस्मात् कूच कर जाना,
आठ-आठ आंसू रोते हैं परिवारजन, सगे-सम्बन्धी,
और संतानों के शोक का तो कोई भी नहीं ठिकाना,
अत्यंत ही कठोर और निर्मम क्षण होता है,
किसी के भी पिता का यकायक संसार को अलविदा कह जाना,
उनकी विगत स्मृतियाँ, खट्टी-मीठी, कटु-मधुर,
कहना-सुनना, समझाना-बुझाना, पुचकारना, डांटना-डपटना,
अधिकारों व कर्त्तव्यों की घुट्टी पिलाना,
सुख में, दुःख में मज़बूत चट्टान सा हमारे समक्ष होना,
समय की नज़ाकत अनुसार कभी रूठना तो कभी मनाना,
वस्तुत: यह संकट का चरमोत्कर्ष ही होता है,
किसी के पिता का इस निर्मोही जहान से सारे बंधनों और बेड़ियों को
तोड़कर बिना किसी पूर्व सूचना के फुर्र से उड़ जाना,
उनके संग बिताए क्षणों, पलों, बातों, यादों व तस्वीरों का पुन: पुन: बारम्बार
समय असमय स्मृतिपटल पर अंकित हो जाना,
उनके द्वारा सहेजी गई चीज़ों और
उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियों पर यादों की गाढ़ी परत का छा जाना,
अत्यंत तीव्र व मर्मघाती अनुभूति होती है,
किसी की भी संतान के सिर से घने छायादार वृक्ष की शीतल ठंडी छाँव का हट जाना,
पिता को मुखाग्नि देते पुत्र के चक्षुओं से गंगा-जमुनी धारा का
निरंतर बहते जाना,
पिता के गले लगकर उनसे बार-बार ‘कहीं न जाने की’ याचना करना,
उनको हिला-हिलाकर पुन: उठाने की निष्फल कोशिश करना,
ये सब देखकर आसमानी गगन का भी घोर- गर्जना से बरस पड़ना,
हे ईश्वर!
आखिर क्यों ही बनाया ये लोगों का पहले प्रेम, स्नेह, मोह, माया के बंधनों में
बंधना, आसक्त होना, लिप्त होना, आमोदित व प्रमोदित होना,
फिर एक दिन अचानक कच्चे रेशम की डोर सा,
रिश्तों-नातों को पीठ दिखाकर अनंत लोक की यात्रा पर चले जाना,
यह निर्विवाद सत्य है :
किसी के भी पिता के परलोक सिधारने के पश्चात
लाख कोशिश करने पर भी उनका लौटकर वापिस न आना,
लाख कोशिश करने पर भी उनका लौटकर वापिस न आना।