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"यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।"

अर्थात जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवताओं का निवास होता है। महिलाएं समाज की धुरी व केंद्र बिंदु हैं जिसके इर्द-गिर्द संपूर्ण समाज का चक्र चलायमान है।

परन्तु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारा समाज पुरुष-प्रधान समाज है तथा नारी का स्थान परिवार व समाज में सदैव दोयम दर्जे का ही रहा है।

आखिर क्यों स्त्रियों को वह सम्मान प्राप्त नहीं हो पाता, जिसकी वे वस्तुत: सच्ची अधिकारिणी हैं, उन्हें पग-पग पर उपेक्षित और तिरस्कृत क्यों किया जाता है? क्यों उनकी सुरक्षा आज भी चाक-चौबन्द नहीं है, जबकि हमारा देश कागज़ की नाव से गगन के राफ़ेल तक की ऊचाइओं को छू पाने में सक्षम हो चुका है। महिलाएं आत्मनिर्भर हैं, अध्यापिका, पुलिस, सेना, डॉक्टर,नर्स,इंजीनियर, शायद ही कोई कार्यक्षेत्र होगा जहां पर महिलाएं कार्यरत ना हों। परन्तु इतना सब होने पर भी वे पुरुषों के द्वारा उत्पीड़ित हैं, प्रताड़ित हैं, हिंसा की शिकार हैं, फिर भले ही वह घरेलू, शारीरिक या मानसिक हिंसा हो। कदम-कदम पर उनके स्वाभिमान को चोट पहुंचाई जाती है, आत्मसम्मान को आहत किया जाता है ।

पहले जो था, सो था, परन्तु जब मार्च-2020 से कोविड-19 कोरोना वायरस नामक वैश्विक महामारी ने संपूर्ण विश्व में तांडव मचाना आरम्भ किया, तब से तो महिलाओं पर मानो आसमान ही टूट पड़ा।

चूंकि लॉकडाउन के मद्देनज़र अधिकांशत: फैक्ट्रियां, उद्योग-धंधे, कंपनियां इत्यादि पूर्णत: अथवा अंशत: बंद ही हो गए थे। वित्तीय संकट उत्पन्न हो गया, अर्थव्यवस्था ठप हो गई, काम-धंधे चौपट हो गए। सर्वसाधारण को घर की चारदीवारी तक ही सीमित रहना पड़ा। फलस्वरूप, उनकी हताशा, निराशा, दुःख, बेरोज़गारी से उपजी परिस्थितिजन्य भविष्य की अनिश्चितता का आसान शिकार बनीं-उनके घरों की महिलाएं। लॉकडाउन की समयावधि शनैः-शनैः दीर्घावधि में परिवर्तित होती गई और इस परिस्थिति की कटुता ने उन्हें एकाएक आक्रामक और हिंसक बना दिया।दिन-प्रतिदिन शारीरिक और मानसिक यंत्रणा का कहर आए दिन उन पर टूटने लगा। कुछ घरों में तो व्यसनों के लती पुरुष अपना सारा गुस्सा मद्यपान के बाद अपनी पत्नियों पर ही उतारने लगे थे। अखबार की सुर्ख़ियों में आए दिन छपने वाली खबरें दिल को दहला जाती हैं। लॉकडाउन के दौरान लोग बेरोज़गार हो गए, उनकी रोज़ी-रोटी का साधन छिन गया। परिवारों की सुख-शान्ति मानो भंग-सी हो गयी। लॉकडाउन के दौरान लोगों की सहनशक्ति समाप्त हो चुकी है, उनका धैर्य जवाब दे चुका है। वस्तुत: लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा में अत्यधिक वृद्धि हुई। इसका ताज़ातरीन उदाहरण अदालतों में निरंतर बढ़ते तलाक के मामले हैं। यह मनोवैज्ञानिक तनाव व कुंठा से उपजी कलह व कलेश का साक्षात उदाहरण है।

परन्तु इन सब में सर्वाधिक मामले घरेलू हिंसा व उत्पीड़न के ही थे। पुलिस थानों में उत्पीड़न के केसों की मानो बाढ़-सी आ गई। NCRB (नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो) के मार्च 2020 से सितम्बर 2020 के आकड़ों को देखने पर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। राष्ट्रीय महिला आयोग के पास उत्पीड़न की शिकार महिलाओं द्वारा दर्ज केसों की भरमार है।

हिंसक व आक्रामक होकर अपनी भड़ास किसी दूसरे पर उतार देना किसी भी समस्या का समाधान कदापि नहीं हो सकता।

हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि परिस्थितियां भले ही कितनी भी विकट हों, समय कभी भी एक-सा नहीं रहता, वह निरंतर परिवर्तनशील होता है। लॉकडाउन भी एक अस्थायी समस्या है जो धीरे-धीरे समाप्त हो ही जाएगी। वैज्ञानिक भी वैक्सीन की खोज में निरंतर कृतसंकल्प हैं।

आवश्यकता है हमें अपने मानसिक संतुलन को नियंत्रित रखने की, परिस्तिथियों से तालमेल व सामंजस्य बिठाकर चलने की। पुरुष वर्ग को भी हिंसकता व आक्रामकता को त्यागना होगा,महिलाओं को उनके हिस्से का खुला आसमान देना होगा, बराबरी का दर्जा देना होगा। उन्हें दुत्कार नहीं, प्रेम की दरकार है,आत्मसम्मान व स्वाभिमान की चाह है। वे हमारे समाज की निर्मात्री हैं, संचालक हैं।

लॉकडाउन स्थायी रूप से यहां रहने वाला नहीं है परन्तु महिलाएं तो सही मायने में हमारी सच्ची मित्र, सलाहकार व पथप्रदर्शिका थीं, हैं और रहेंगी।।

अंतत: मैं यह कहना चाँहूगी कि :-

"नारी का सम्मान करो,
वह है सम्मान की सच्ची अधिकारी,
जी हाँ! किसी ने सत्य कहा है
“एक नहीं दो-दो मात्राएँ,
नर से सदा है बढ़कर नारी।"

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