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“किशोरावस्था एक मीठा एहसास है,
इसे स्वीकार कीजिए,
हर एक उम्र की अपनी दरकार है,
इसे स्वीकार कीजिए।“
मेरी सजीली आँखों के समक्ष कुछ हलके, कुछ धीमे,
कुछ मद्धिम, कुछ मंथर दीये की लौ से सपने जगमगाने से लगे,
मेरे भीतर कुछ आंदोलित-सा है,
कुछ उद्वेलित-सा है, कुछ आह्लादित-सा है,
मानो किसी नवजात पक्षी के पंख फड़फड़ाने से लगे,
मन अंदर से प्रसन्नचित्त है, मन-मयूर आनंद से आलोड़ित है, झूम रहा है,
मानो आसमानी आसमान में हज़ारों हज़ार जुगनू टिमटिमाने से लगे,
जब से मेरे यौवन ने तरुणाई ली है, सोलहवें बसंत ने अंगड़ाई ली है,
मेरे भीतर मेरे अंतरतम से कुछ मीठे-मीठे गीत गुनगुनाने से लगे,
जब से मैंने प्रात:काल मुंह अँधेरे की धुंधली-धुंधली सी
उषाकाल की पौ फटते देखी है,
तब से मानो जीने की ललक और उमंगों में
नित-नवीन ख्वाब कुलबुलाने से लगे,
जीने के मायने क्या हैं? जीवन की सार्थकता क्या है?
जीवन से हमें क्या अपेक्षाएं हैं? जीने की प्राथमिकता क्या है?
ऐसे-वैसे, मीठे-तीखे, चटपटे, मसालेदार, इमली से खट्टे
प्रश्न ना जाने क्यों मेरे मन में खदबदाने से लगे,
जीवन की रेलमपेल में, सपनों की अंधी दौड़ में,
मेरे अंदर अंकुरित, स्फुटित, पल्लवित, पुष्पित,
पोषित-सा अहसास होने लगा,
मुझे बारम्बार नए-नए नित स्वप्निल रुझान आने से लगे,
सब कुछ सुहाना लगता है,
सारा जग रत्नजड़ित सा है,
अपना-बेगाना लगता है,
बेगाना अपना लगता है,
कुछ ऐसे ही मिश्रित रसास्वाद से लम्हें मुझे आ-आकर लुभाने-से लगे,
भोले बचपन की अल्हड़ता, मंद-मधुर सा मुस्कुराना,
सखियों संग बैठ अकेले में खुसर-पुसर,
गुपचुप-गुपचुप, पीपल की ठंडी छाँव में घंटों-घंटों तक बतियाना,
ऐसे ही कितने अद्भुत-से ख़्वाबों का दिन में आ जाना,
फिर कभी-कभी यूँ ही एकांत में बैठे-बैठे कहीं खो जाना,
ऐसे ही कुछ-कुछ भीगे-भीगे, रूखे-रूखे,
बर्फ की सिल्ली से भी ठन्डे, मनोभाव हमें सहलाने से लगे,
तन्हाई से नाता सा जुड़ा,
'बतरस' से मन कुछ उठ सा गया,
कुछ अनजाने, अनचाहे से बेचैनी से गलबहियां किये,
उन्माद हमें आने से लगे,
ये मोड़ ना जाने कैसा है, वय:संधि का त्रिकोण ना जाने कैसा है,
कभी-कभी खुद पे हंसना, शर्माना और इठलाना,
और कभी-कभी घर के ही किसी सूने कोने में छिप जाना,
उम्र के ऐसे-ऐसे पड़ाव हमारी ज़िन्दगी में अब जब-तब आने से लगे,
गुड्डे-गुड्डियों संग खेलकूद करने के दिन तो बीत चले,
ना जाने मन ऐसा क्या बेकाबू हुआ कि,
अनसुलझी, अनबूझ पहेली से मन को हम बहलाने से लगे,
नाज़ुक सी उम्र है तरुणाई,
ना मालूम ऐसा क्या है हुआ,
कि तन-मन के भीतर तरंगों-उमंगों के ऐसे-ऐसे उफान और
तूफ़ान उमड़-घुमड़कर आने-जाने से लगे,
फूलों का स्नेहिल स्पर्श हमें अब सहलाने-सा लगता है,
झरने का पानी भी मधुर संगीत गुनगुनाने-सा लगता है,
तितलियों के पीछे भागकर उन्हें पकड़ने का जी करता है,
पक्षियों का कलरव भी मन में अजीब-सा कोतुहल भरता है,
कुछ ऐसे ही नए-नए सतरंगी-से ख्वाब हमें अब रोज़-रोज़ आने-से लगे,
उन्मुक्त पंछी-सा खुले गगन में दिल उड़ने को व्याकुल-सा है,
काँटों पर चलकर भी मानो फूलों की छुअन का अहसास-सा है,
मन बेलगाम -सा रहता है,
जीने की उत्कट लालसा आम दिनों से सौ गुना ज़्यादा है,
तूफानों से टकरा जाने को जी चाहता है,
पुरातन रूढ़ियों, बेड़ियों और मान्यताओं को ठुकराने को दिल आमादा है,
कभी-कभी तो मायावी बंधनों से एक ही झटके में
मुक्त होने के ख्याल भी हमें अब आने से लगे,
नीरव अन्धकार को चीरकर उजले रंग-बिरंगे गुब्बारों से हलके होकर,
क्षितिज छू लेने के स्वप्न हमें अब आने-से लगे,
कभी-कभी मन विचलित होता है,
कभी-कभी हर्षित होता है,
कभी आशा-निराशा के हिंडोले पे झूलता-उतराता है,
ऐसे ही विचारों से ओत-प्रोत हम कभी डूबने, कभी उतराने से लगे,
ये वयस्कता का एक ऐसा चौराहा है जिस पर कभी मंद, कभी तीव्र,
कभी मंथर, कभी उष्ण, कभी शीत, कभी उग्र, कभी मधुर,
कभी छप्पन-भोग से स्वादिष्ट मिष्ठान,
तो कभी कटु निबोरी समान भांति -भांति के ख्यालात
हमें मकड़जाल से आए-दिन उलझाने से लगे,
हमें आए-दिन उलझाने से लगे।