Photo by John-Mark Smith: Pexels

दादा जी दादा जी... ये क्या है ? कहती हुई सात साल की स्वाति ने अपने दादा जी की गोद में एक लिफाफा रख दिया और उनकी पीठ पर चढ़ गई । लगभग सत्तर साल के रमाकांत जी ने स्वाति को कंधे में झुलाते हुए प्यार से उसके बालों पर हाथ फेरा और एक सरसरी निगाह उस लिफाफे पर दौड़ाई । ऊपर लिफाफे पर लिखा था "तुम्हारी वैदेही"।

अचानक ही इस नाम को पढ़ कर रमाकांत जी चौंक गए । उन्होंने चोर नजरों से इधर उधर देखा ये सोचकर कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं । एक अजीब सी हलचल उनके अंदर मच गई थी । लगभग पचपन छप्पन सालों के बाद उनका अतीत अचानक किसी जिन्न की मानिंद सामने आकर खड़ा हो गया था उनके । उन्होंने स्वाति को प्यार से गोद मे लिया और पूछा - बेटा ये लिफाफा तुम्हे किसने दिया ?

स्वाति ने भोलेपन से जवाब दिया - डाकिया अंकल ने...। ये दादी का खत है न !

रमाकांत जी के पास स्वाति के गूढ़ सवाल का कोई जवाब नहीं था । उसकी दादी की मौत पाँच साल पहले ही हो चुकी थी तब स्वाति मुश्किल से दो साल की रही होगी । उसे उस समय ये भी ज्ञान नहीं था कि उसकी दादी इस दुनिया मे नहीं है । उसे जानबूझकर किसी ने भी नहीं बताया कि उसकी दादी अब इस दुनिया मे नहीं ।शायद किसी को जरूरत ही नहीं पड़ी की उसे बताये ।

जब से उसने बोलना सीखा समझना सीखा उसके इस सवाल पर हमेशा जवाब दिया जाता दादी गाँव मे है । शायद इसी कारण उसने ये सवाल किया होगा ।

तभी उनकी बहू की कर्कश आवाज आई - पापा जी कहाँ हैं आप ? कोई काम धाम तो है नहीं कम से कम हमे तो परेशान मत कीजिये । नीचे आइये और चाय पी लीजिये।

रमाकांत ने उसे गोद से उतारते हुए कहा - स्वाति बेटा तुम खेलो मैं कुछ जरूरी काम से बाहर जा रहा हूँ । बहाना बना कर स्वाति को भेजते हुए रमाकांत जी ने अपनी छड़ी उठायी और अपने कमरे में जाकर कपड़े बदले । शाम होने वाली थी , उन्होंने वह लिफाफा अपनी जेब मे डाली और किसी को बिना कुछ बताये घर से बाहर निकल गए ।

उनके पैर आज तेजी से उठ रहे थे । कहाँ कल को घुटनों में दर्द की वजह से एक एक कदम चलना मुश्किल था और आज वह दर्द की परवाह किये बिना तेजी से बढ़ते चले जा रहे थे । उनकी नजरें किसी महफूज जगह को तालाश रही थी जहाँ वे सुकून से बैठकर वैदेही के भेजे लिफाफे को खोल कर पढ़ सके ।

आधे घंटे के बाद वे सड़क के किनारे बने छोटे से पार्क में पहुँचे । देखा , भीड़भाड़ ज्यादा तो नहीं थी पर कहीं उन्हें सुकून भरी जगह दिखाई नहीं दी । वे पार्क से बाहर निकल आये और एक तरफ बढ़ते चले गए । सामने एक लाइब्रेरी दिखी । उन्होंने सोचा देखते है कोई जगह मिली तो ठीक वरना कहीं और सुरक्षित जगह ढूढूंगा । लाइब्रेरी के अंदर गये तो देखा वहाँ भी जगह नही मिली । अंत मे बाहर सड़क के किनारे एक बड़े से पेड़ की छाँव उन्हें कुछ अच्छी लगी । उन्होंने थोड़ी देर अपना दम साधा और धड़कते दिल के साथ वह लिफाफा अपनी जेब से निकाल कर कुछ देर निहारा । अपना चश्मा ठीक किया और उस लिफाफे को खोला - उसके अंदर एक खत था जो वैदेही ने शायद अपने जीवन के अंतिम क्षणों में लिखा था

प्रिय रमाकांत जी,

पता नहीं आपको आपके नाम से पुकारना सही होगा भी नहीं ।। क्योंकि संबंधों के गहरे घने जाल में उलझी उम्र के इस दहलीज पर खड़ी मैं निर्णय नही ले पा रही कि क्या सही और क्या गलत है । आपके साथ बिताए वे पल कैसे भूल सकती हूँ । पर अफसोस किसी को बता भही नहीं पायी । पूरी जिंदगी आपकी यादों के सहारे मैंने बिता डाले पर जुबान पर आपका नाम किसी सामने नहीं लिया । आज अंतिम क्षणों मैं आपसे कहने की हिम्मत जुटा पायी हूँ। आज उस दहलीज पर खड़ी हूँ जहाँ से सारे रिश्ते नाते खत्म हो जाते है । ये खत आप तक पहुँचते पहुँचते शायद मैं इस दुनियाँ में न रहूँ । दिल मे एक बोझ लेकर मरना नहीं चाहती थी । मैंने आपको धोखे में रखा कि मेरी शादी हो चुकी है । जबकि मैंने आजतक शादी ही नहीं की । मैं अपने प्यार को पाना चाहती थी पर प्यार को खोने की कीमत पर नहीं । मेरा प्यार आप थे पर आपका प्यार न जाने मुझे क्यों किसी और का लगता था । यही कारण रहा कि मैंने आज तक आपको नहीं बताया कि मैं एक दोहरी जिंदगी जी रही हूँ । दुनिया की नजरों में एक विधवा और वृद्ध बन कर वृद्धाश्रम में और अपनी नजरों में सिर्फ आपकी वैदेही बन कर ।

आज अंतिम क्षणों में अपने वृद्धाश्रम का पता आपको बता रही हूँ और इस बात से अनभिज्ञ हूँ कि आप आएंगे भी या नहीं , आप की जिंदगी में मेरी कहीं भी जगह रही या नहीं । पर इस बात का मुझे यकीन है कि ऊपर वाला मेरे साथ अन्याय नहीं कर सकता और मेरी अस्थियों को विसर्जित करने से पहले आप संसार नही छोड़ सकते । अपने अंतिम क्षणों में आपको याद कर रही हूँ । जिंदगी में मुझे आपसे कोई शिकवा और शिकायत नहीं ,आपसे बस इतनी इल्तज़ा है कि आप हमारे रिश्ते के बारे में किसी से कुछ भी न कहें । मेरी वजह से कहीं आपकी बसी बसाई जिंदगी में अशांति न फैले आपसे आग्रह है कि मेरे मरने के बाद आप किसी को कुछ नहीं बताएंगे । बस अब इतना ही लिख सकूंगी । 

इजाजत दीजिये ।

वैदेही

वैदेही विधवाश्रम ,

इलाहाबाद ।

पत्र पढ़कर रमाकांत जी की आंखों में आंसू आ गए । उनके आगे इलाहाबाद के उस स्कूल की यादें ताजा हो आयी । जो उनके दस साल की पढ़ाई की गवाह थी । वह उस समय दसवी कक्षा में थे जबकि वैदेही सातवीं कक्षा में । रमाकांत जी का ननिहाल इलाहाबाद में ही था जहां से उन्होंने दसवी तक पढ़ाई की थी । उनके ननिहाल के बगल में ही एक बंगाली परिवार रहता था । सुबोध चक्रवर्ती का । वैसे रहने वाले वे कलकत्ते के थे पर नौकरी के सिलसिले में इलाहाबाद रहना होता था । उन्ही सुबोध चक्रवर्ती जी की इकलौती बेटी थी वैदेही चक्रवर्ती । मुझसे उम्र में तीन चार साल छोटी । घर आना जाना लगा रहता था । पर कभी ऐसा नहीं लगा कि वैदेही के मन मे कुछ ऐसी भावनाएं भी इतनीं कम उम्र में जन्म ले रही होंगी । मैं अपने पढ़ाई में व्यस्त रहता था । कभी कभी वह मुझसे कुछ सवालों को हल कराने आती थी । मैंने कभी उसे निराश नहीं किया । जितनी हो सकती थी मैंने मदद भी की । पर उसके मन मे कब प्यार के बीज पनपे मुझे पता ही नहीं चला , न ही कभी उसने जाहिर किया । फिर मैं कोई भगवान तो था नहीं कि दिल की बात जान जाता । समय बीतते रहे और मैंने अपनी दसवीं की परीक्षा पास कर ली । मैं अब अपने घर लौट रहा था ।

उस दिन इलाहाबाद जंक्शन पर कई लोग मुझे छोड़ने आये थे । उन लोगों में सुबोध चक्रवर्ती जी की फैमिली भी थी । पर वैदेही नहीं थी । मुझे किसी की कमी खल रही थी , ऐसा लग रहा था मानों कोई चीज मैं मिस कर रहा हूँ । क्या वह चीज वैदेही थी ?

गाड़ी जब स्टेशन छोड़ रही थी अचानक वैदेही दौड़कर खिड़की के करीब आयी और एक कागज का टुकड़ा अंदर फेका सबकी नजर बचाकर । मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या हुआ । गाड़ी बढ़ने के बाद मैंने जब उसे खोला तो एक सूखा हुआ गुलाब का फूल और दो तीन पंक्तियों की चिट्ठी थी । पढ़कर पता चला कि मुझे वह पसंद करती है ।

रमाकांत जी ने एक लंबी सांस ली और सोचने लगे ....। एक बात की तो दाद देनी पड़ेगी उसे । उसके अंदर अपने प्रेम को , अपने जज्बात को आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता थी जो उसने पचपन छप्पन साल तक मेरे साथ साथ सबसे छुपा कर रख पायी । यहां तक कि जिंदगी भर घुट घुट कर जीती रही और किसी को कुछ बताया तक नहीं ।

पर उसका प्रेम कुछ जल्दबाजी में किया प्रेम नहीं था ? उसकी उम्र ही कितनी रही होगी बमुश्किल बारह साल की । और इस उम्र के प्यार उम्र के साथ ही हवा हो जाया करते है ।

मैं मानता हूँ कि प्रेम करने की कोई उम्र नहीं होती । पर प्रेम को समझने लायक उम्र भी तो होनी चाहिए ।आज जब मैं सत्तर साल का वृद्ध हूँ और प्यार, प्रेम ,स्नेह आदि शब्दों की बख़ूबी अर्थ समझ सकता हूँ क्या मैं उस कच्ची उम्र का प्यार समझ पाता ?

खैर ....।

रमाकांत जी ने लिफाफे में उस खत को डाला और पुनः अपनी जेब मे रखा और बिना कुछ किसी को बताए चुपचाप इलाहाबाद के लिए निकल लिए । उनके कदम न जाने क्यों कुछ थके से लग रहे थे । क्या वैदेही सचमुच में उनका इंतजार कर रही होगी ।

सुबह के सात बजे तक उनकी ट्रेन इलाहाबाद स्टेशन पहुंच चुकी थी । उन्होंने स्टेशन से बाहर आकर पचपन साल पुराने इलाहाबाद को याद किया और मन ही मन सोचा - वह री जिंदगी । उम्र भर जिस प्यार को तलाशते रहे वह इतनीं दूर इलाहाबाद में मुझे ढूंढती रही ।

रमाकांत जी ने एक टैक्सी ली और वैदेही विधवाश्रम का पता लगाने की कोशिश करने लगे । कुछ देर की छानबीन के बाद आखिरकार उन्हें पता चल ही गया । आधे घंटे के बाद रमाकांत जी उस विधवाश्रम में पहुँचे । बहुत बड़ा तो नहीं पर दोमंजिले भवन में में बनी थी वह आश्रम । गेट पर एक संतरी खड़ा था । मुझे देखकर पूछा - साहब किनसे मिलना है ?

मुझे वैदेही जी से मिलना है ...।

वैदेही मैडम तो अस्पताल में भर्ती है पिछले एक सप्ताह से उनकी तबीयत बहुत खराब है । संतरी ने चेहरे पर निराशा के भाव लाते हुए कहा ।

कौन से अस्पताल में ?

यहां से दो तीन किलोमीटर दूर एक अस्पताल है सेंट मारिया अस्पताल । 

मैडम वहीं भर्ती है । वैसे आप कौन है सर ?

रमाकांत जी ने संतरी के सवाल का बिना जवाब दिए उसी टैक्सीवाले को सेंट मारिया अस्पताल चलने को कहा । दस मिनट के बाद वे अस्पताल के गेट के बाहर खड़े थे । रमाकांत जी पास कुछ सामान तो था नहीं उन्होने टैक्सीवाले को किराया देने के लिए जेब टटोली तो बदकिस्मती से बटुआ भी भूल आये थे । ट्रेन के टिकट लेने के बाद जो थोड़े बहुत पैसे बचे थे निकालते हुए कहा - भाई किराया देने के लिए मेरे पास पूरे पैसे नही है । तुम चाहो तो ये घड़ी रख लो । वह टैक्सीवाला अच्छा आदमी था घड़ी लेने से इनकार कर दिया । बोला - कोई बात नहीं साहब आप अच्छे आदमी प्रतीत होते है । कुछ परेशान से मालूम होते हैं आप जाइये साहब । कहीं मुलाकात होगी तो बाकी के पैसे दे देना । कहता हुआ वह टैक्सीवाला चला गया । रमाकांत जी ने बचे हुए पैसे जेब में रखे और घबराए हुए से अस्पताल के अन्दर दाखिल हुए । ओ0पी0डी0 में पता कर आई0 सी0 यू0 के उस कमरे में पहुँचे जहाँ वैदेही भर्ती थी। देखा वैदेही को ऑक्सीजन दिया जा रहा था । हाथों में पानी की बोतलें चढ़ाने को लगी हुई थी । वह चुपचाप आँखे मूंदे बिस्तर पर पड़ी हुई थी । कमरे में एक नर्स के अलावा कोई भी नहीं था । नर्स ने मुझे देखते ही कहा - सॉरी सर आप कौन ?

मैं इनके जान पहचान का हूँ बहुत दूर से आया हूँ ...। रमाकांत जी ने धीमी आवाज में जवाब दिया ।

सर अभी आप नही मिल सकते इनसे इनकी हालत अभी ठीक नहीं है आप बाहर इंतजार कीजिये । नर्स ने शालीनता से रमाकांत जी से आग्रह किया ।

आप समझने का प्रयास कीजिये । मेरा मिलना बहुत जरूरी है । मेरा इनसे बात करना बहुत जरूरी है ...।

पर सर डॉक्टर साहब ने किसी को भी अभी मिलने से मना किया है । अभी आप नहीं मिल सकते इनसे ...। अभी नर्स की बात पूरी भी नहीं हुई यही कि वैदेही के शरीर मे हलचल हुई । उसने आँखे खोलते हुए इशारों में कुछ कहना चाहा । नर्स ने उन्हें मना करते हुए कहा - आप प्लीज आराम कीजिये । अभी डॉक्टर ने आपको बात करने और किसी से मिलने से मना किया है ।

सिस्टर ...मेरे मर्ज की दवाई भी तो यही है मुझे इनसे दो मिनट बात करनी है । ऑक्सीजन मास्क के अंदर से ही वैदेही ने बड़बड़ाते हुए कहा और मास्क हटाने को कहा । नर्स डॉक्टर को बुलाने के लिए चली गयी ।

इधर वैदेही ने मास्क हटाना चाहा तो रमाकांत जी ने उनका हाथ पकड़ लिया और आंखों के इशारे से मना किया । वैदेही के चेहरे पर एक मुस्कुराहट फैल गयी । लगा की उसे ऑक्सीजन देने की जरूरत अब नहीं रही। रामाकांत जी के हाथों के स्पर्श मात्र से ही उसकी जाती हुई जिंदगी मानों फिर से लौट आयी हो । दौड़ते हुए डॉक्टर साहब आये और रमाकांत जी को बाहर जाने को कहा । पर वैदेही ने उनका हाथ मजबूती से पकड़ रखा था । काफी समझाने के बाद उन्होने रमाकांत जी का हाथ छोड़ा । रमाकांत जी ने बाहर निकलने से पहले वैदेही से कहा - आप जल्द ठीक हो जाएंगी । 

मैं आपका इंतजार करूँगा ।

ये बातें उन्होंने इतनीं दृढ़ता और आत्मविश्वास से कही की सारे लोगों के साथ साथ वैदेही भी आश्चर्य चकित रह गयी ।

और हुआ भी यही , जो वैदेही पिछले एक सप्ताह से हॉस्पिटल के आई0सी0यू0 में जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी रमाकांत जी के आ जाने के बाद आश्चर्यजनक रूप से उनकी सेहत में सुधार होना शुरू हो गया था ।

कुछ दिनों के बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी । अस्पताल से बाहर निकल कर दोनों ने एक टैक्सी ली । रमाकांत जी ने गौर किया ये वही टैक्सीवाला था जिसने उस दिन पैसे नहीं लिए थे।

टैक्सीवाले को वैदेही ने एक घर के सामने रोकने को कहा । ये वही घर था जिसमे वैदेही का परिवार रहा करता था ।

एक कमरे में पहुँच कर वैदेही ने रमाकांत जी बिठाया और खुद बाहर निकल गयी । चाय लेकर आयी और रमाकांत जी की ओर बढ़ाते हुए एक कुर्सी पर बैठती हुई बोली - कैसे हैं आपलोग ?

रमाकांत जी ने एक ठंढी सांस छोड़ते हुए कहा - ठीक हैं वैदेही जी आपलोग कैसे हैं ?

मतलब ?

मतलब की बालबच्चे कैसे हैं। रमाकांत जी ने खिड़की की ओर देखते हुए कहा ।

आप मिले ही नहीं ..। वैदेही ने चाय की शिप लेते हुए कहा ।

इसका मतलब आपने शादी की ही नहीं ..।

मैंने कहा न आप मुझे मिले ही नहीं फिर शादी किससे करती ? वैदेही ने फीकी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए कहा ।

आपने खुलकर मुझे बताया ही कहाँ ?

वैदेही ने इस पर रमाकांत जी का हाथ पकड़ा और अपने सिर पर रखती हुई बोली - अब आप झूठ नहीं बोल सकते । खाइए कसम मेरी और कहिए कि आपको हमारी चाहत का पता नहीं था ।

रमाकांत जी ने झट से हाथ हटा लिया और एकटक वैदेही के आंखों में प्यार से देखते हुए कहा - वैदेही जी अब इन बीत चुकी बातों में कुछ नहीं रखा है । सारे लोग अपनी अपनी दुनियां में खुश है आपके परिवार वाले और हमारे परिवार वाले भी । बस आपके और हमारे सिवा ।

हमारी उम्र भी तो देखिए जनाब ...। वैदेही ने माहौल बदलने का प्रयास किया ।

क्यों क्या हो गया है हमारी उम्र को । बस सत्तर साल के ही तो हैं ।और जिनके दिल जवान होते है वे कभी बूढ़े नहीं होते और प्यार करने को तो बिल्कुल भी नहीं । हमारे घरवालों ने जिस प्यार के लिए हमे तरसाया वह प्यार अब हम बूढ़े हासिल करेंगे । प्यार करने के लिए उम्र की कोई सीमा नही होती। कल भी हमने कच्ची उम्र में प्रेम किया था और आज हम सत्तर साल की उम्र में भी प्रेम करते हैं । आज से हम एक दूसरे के सारे शिकवे शिकायत दूर कर साथ रहेंगे।

वैदेही ने कस कर रमाकांत जी का हाथ पकड़ लिया । अब मैं शांति से मर सकूँगी । कहती हुई वैदेही ने आँखे मुंद ली।

झट से रमाकांत जी ने वैदेही के होठों पर अपने हाथ रख दिया और इशारों में ही कहा - "अभी नहीं "। 

.    .    .

Discus