केदारनाथ विपदा के संदर्भ में

(दसवी वर्ष गांठ व स्मृति, नमन)
रचियता: प्रीति मेहरोत्रा
तीन दिन मुस्लाधर वर्षा के पश्चात् का दृश्य
शिव के आंगन में शवों का ढेर
एक मुहावरा पढ़ा था पहाड़ टूटना
जब साक्षात आया वर्षा के साथ
तब समझ आया 'भयंकर प्रलय'
उफन्ती नदी टूटते पहाड़
चारों ओर त्राहि त्रहि, घटा घनघोर
बरसते बादल, गरजता असमान
ये संगीत शिव के डमरू का
उफन्ती बहती
अल्कानंदा, मदकिनी, भागीरथी
बनी शिव का त्रिशूल
लुढ़क रहे पेड़, पत्थर, इंसान
शवों का ढेर, शिव के आंगन में.
धीर धरे बैठी थी धारी
टूट गया धैर्य का बांध
पार्वती से छूट गया शिव का हाथ
गौरी, कार्तिकेय, गणेश
कोई रोक ना पाया रुद्र का रूप
बद्री, केदार, गंगोत्री, यमनोत्रि
निस्तभत, आश्चर्य चकित, हतप्रभत
ब्रह्मा, विष्णु, गंगा, यमुना
शिव के आंगन में शवों का ढ़ेर
रौद्र रूप में शिव मिलेंगे
किस ने सोचा था जब घर से चले थे
बेल पत्र नही वृक्ष चढ़ायेगे
नारियल नहीं कपाल फोडा़ जायेगा
जल मंदाकिनी लायेगी
इंसान फूल बन बह जाएँगे
शिव के आंगन में शवों का ढेर लग जायेगा
ये विपदा किस की है देन?
देगा कौन उतर
क्यो शिव के आंगन में
शवों का ढ़ेर?
लालची, लोभी, धन लोलुप मानव
या वो देव जो करता है कर्म न्याय
प्रकृति का वास्तविक् रूप वापस लाये
मानव को फटकार, दुत्कार कर जगाए.
देव भी हार गये
लोभी मनुष्य के आगे
चेतावनी के बावज़ूद बनाने मे लगा रहा
घर, सड़क, सुरंग और बांध
अपनी सुविधा के लिये कर रहा हरि को बदनाम
शिव की धर्मशाला को पर्यटनशाला का काम
नहीं उठा पाई मठ की धरती बोझ
पूरा शहर धसक गया
बेघर हो गये मनुष्य
कयामत थी वो रात्रि
कहाँ जाता मनुष्य और पशूघन
कहाँ ले जाये?
सडक, सुरंग में फँस कर रह गए मनुष्य
कड़े संघर्ष के बाद बची जान
शिव की धर्मशाला को
बना दिया अधर्मशाला
लालची, लोभी, धन लोलुप मानव
पर्यटन शाला, अधर्मशाला मनुष्य ने बनाया
गंगा के उद्गम सथल को
चौड़ी सडक, बड़ी गाडी
पर्यटन को बढावा
कोई अंत नही मनुष्य की
लोभी प्रकृति का!
थमेगा नहीं मानव,
घरती का बोझ
बन कर रह गये हैं मनुष्य जाति
परवाह नहीं शवों के ढेर का!
शिव के आंगन में!
चेत नही रहा मनुष्य
अपनी धुन में मद मस्त
नही परवाह उसे पवित्र पार्वती के‌ देश की!
लोभ ने अंधा कर दिया सब को!
आओ कोशीश करें सोच पलट दे!
शिव पार्वती के देश मे
परिवर्तन ले आये!
सुख धन मे नही
प्रकृती को बचाए
ये हमारा धर्म बन जाये!
ये सपना सच हो जाये?! 

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