हु तो मैं निर्जीव गुड़िया
नचाई जाती हु डोरी से
रूप है मेरे अनेक
हु मनोरंजन की दुनिया से।
ना मे हु कोई उपकरण
ना मे चलती हु बैटरी से
मनोरंजन करती हु
इंसान की हस्तकला से।
रंगमंच पर होता है हमारा प्रदर्शन
हाथ और उंगलियों की कला हूँ मे
नई नई कहानी, वेशभूषा के साथ
कहलाती हु कठपुतली मे।
मेरी कोई मर्जी नहीं
बंधी हु मे धागों से
मे कोई स्वतंत्र नहीं
खेल दिखाती हु अपने अभिनय से।
कला और मे दिखाना चाहती हु
पर मोबाईल के दुनिया मे
कितना मनोरंजन करूंगी
कही हो न जाऊ लुप्त मे।
कला और मनोरंजन के माध्यम से
किसीके पेट भरने का साधन हु मे
अनुरोध है की रखिये ये कला को जीवित
भले ही फिर मे रहू किसीके बंधन मे।
मे हु कठपुतली, आप नहीं
फिर क्यू नाच रहे किसी के ताल पर
आपको है अपनी सूझबूझ
मत चलिये दूसरे के इशारों पर।