Photo by Plato Terentev: pexels

आज सुबह जब खिड़की से देखा
नन्ही सी एक चिड़िया को देखा
चीं चीं करती, दाना चुगती
खुद से जैसे बातें करती

रोज़ यह आती, दाना चुगती
रोज़ रोज़ बस यहि है करती
दाना चुगकर , तृप्त होकर
घर को अपने लौट वो जाती

क्या इतनी सी है ज़रूरत इसकी ?
बस दो दाने हैं पूँजी इसकी?
क्या चाह नहीं कुछ और पाने की?
क्या चाह नहीं अच्छा खाने की ?

भागदौड़ भरे इस जीवन में
क्या ऐसा खोया हमने
संगेमरमर के महलों में भी
पल भर को चैन न पाया हमने

रोज़ खाते पकवान हम
ऊँचे महलों में रहते
फिर भी इस नन्ही चिड़िया सी
खुश क्यों न रह पाते ?

"कैसा राज़ है ये चिड़िया रानी
मुझको भी बतलाओ
खुश रहने का कैसा सबब ये
मुझको भी सिखलाओ"

दूर गगन में उड़ती चिड़िया
जैसे मुस्काती बोलती है
"यह पूँजी है संतोष की
सबको न मिल पाती है"

"यह पूँजी है संतोष की
सबको न मिल पाती है"l

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