आख्यानों में सोन-नर्मदा को ब्रम्हाजी का अश्रु बिन्दु कहा गया है। 

नभ मुक्त हो बूंद की चक्रीय यात्रा प्रकृति का प्राण बनकर मेघ का पर्याय बनती हैं। अर्थात बूंद से पोषित रेत की यात्रा भ्रूण से सजीव होकर ब्रह्मांड में लीन होती है । रेत का यह विलास विविध अर्थों में अनेक रहस्य को समेटे हुए है। बूंदें जब विभिन्न स्रोतों से सागर की ओर गमन करती हैं तब वह चट्टानों के घर्षण से रेत या बालू का सृजन करती हैं , जिसकी उष्णता से स्पंदित अन्न से बने व्यंजनों की श्रृंखला जहां हमें तृप्त करते हैं वहीं चोटिल का स्नेहन बनकर चिकित्सा में प्रभावी हैं। इससे निर्मित निकेत में हम सुरक्षा की अनुभूति करते हैं, वहीं इससे तीक्ष्ण हुए अस्त्र की धार से असुरक्षित। उपनिषदों ने इसे वीर्य के रूप में प्रतिष्ठित किया जिसने हमें सृष्टि का सजीव साक्षात्कार कराया। पवन के संयोग से प्रफुल्लित यह रेत हमारी कल्पनाओं की रांगोली को अभिनव आकृतियों के साथ सतह पर साकार करती है । इनके संयोग की स्वरबद्ध यात्रा से रेत का आंचल जीवंत होता है, जिसकी सामंजस्यपूर्ण उमंग हमारे अवचेतन को प्रेरित करती है । बूंद से मेघ बनने की यह यात्रा हमें आभास दिलाते हैं कि जलधि के तप से अमृतरूपी मेघ के उपहार से जीवंत वसुंधरा के साथ हम कैसे तादात्म्य बना सकते हैं।

सोन नदी के संदर्भ में महाकवि कालिदास ने गंगा और शोण के संगम पर स्थित पुष्‍पपुर नामक नगर का वर्णन किया है, जो पाटलिपुत्र का दूसरा नाम है। बाणभट्ट ने शोण को चन्‍द्रपर्वत का अमृत झरना, विंध्‍याचल की चन्‍द्रकान्‍त मणियों का आसव और दण्‍डकारण्‍य के कर्पूर वृक्षों का स्‍त्रवित प्रवाह कहा है। अमरकोश मे शोण नदी का पर्याय हिरण्‍यवाह है जिसकी गुप्‍तकाल तक ख्‍याति रही। संस्‍कृत में स्‍वर्ण को हिरण्‍य कहते हैं जो इस नदी के रेत(बालू) की विशेषता है। एक कथा अनुसार मेकल कन्या नर्मदा के विवाह के लिए बकावली पुष्प लाने की शर्त को पूर्ण करने में सफल शोणभद्र के साथ नर्मदा का विवाह निश्चित हुआ। इस दौरान सोणभद्र के व्‍यक्तित्‍व से आसक्‍त जोहिला के षडयंत्र से क्षुब्ध नर्मदा पश्चिम की ओर तथा अपराधबोधग्रस्‍त सोन पूर्व की ओर बहने लगे। उल्‍लेखनीय है कि 289 किलोमीटर लम्बी जोहिला सोन की एक सहायक नदी है, जो पूर्वी मध्य प्रदेश के शहडोल के निकट दशरथ घाट के समीप सोन में मिलती है। यह दशरथ घाट वही स्थल है, जहां आखेट के दौरान भ्रमवश शब्दभेदी बाण से अयोध्या नरेश दशरथ ने श्रवण कुमार का वध किया था।

वैवाहिक कार्यक्रम में शामिल होने सिहावल पहुंचा । जेठ की दुपहरी चेचक(माता) के दागों का शमन कर रही थी। भड़सारी(चने भूनने वाली भट्ठी) से उठती ज्‍वाला से झुलसती त्‍वचा से भड़भूजों का पसीना उड़ रहा था। मित्र, उनकी पत्नियों पुत्रवधुओ, नाती-पोतों का जीवन संघर्ष उनकी व्यथा कह रहा था। सहकर्मियों से प्राप्‍त वस्‍त्रों को ग्रामीणों को विवेकानुसार सौंपकर कर जल्‍दी ही मौसी के यहॉं आ गया।

तत्पश्चात् दिवंगत मित्र राजनारायण की भार्या पार्वती से संवाद के लिए जिज्ञासा प्रबल हुई। राजनारायण अर्थात नारायण(जल) पर राज करने वाले महादेव। यदि मेघों से पतित बूंदस्वरूप शिवअंश को कामाख्या रूपी वसुंधरा से जीवंत सृष्टि के सृजन की अनुभूति करें तब हम ऐसा आलौकिक जग पायेंगे जहां समस्त चराचर जीव हमारा सहोदर होगा।

जब मेरे दिवंगत मित्र की पत्‍नी पार्वती भाभी को मेरे आने की सूचना मिली तो वह अगले ही दिन दस किलोमीटर दूर सोन नदी के पार बसे नकझर गांव से भीषण गर्मी में 10 किलो चबैना सर पर लिए पैदल सिहावल पहुंची। यह वही नदी है जो भीषण गर्मी से संघर्षरत हो हमें अपने आंचल में क्रीड़ा के लिए अमृत रस से सराबोर करने के लिए प्रतिक्षण बांहें फैलाये प्रतीक्षारत है। लेकिन नदी के आंचल के परतों को चुराने की ज़िद सूरज नहीं त्याग पा रहा है। उसके चौड़े कूल पर बिखरी तप्त स्वर्णरेत को हम पैरों पर सरई के पत्ते बांधकर धारा तक पहुंचने का मार्ग तय करते। यह वही सरई तरु है जिसकी लकड़ी पर रसायन लगाकर बनी माचिस आग लगाने में समर्थ है। इसके ताप से अन्न भूना जाता है व जिस पर खेती होती है जो ग्रामीणों का पोषण करता रहा है।वही इसके उपयोग से बने घर शीतलता प्रदान करते हैं। नकझर गांव से इन्हीं अवरोधों को पार कर भाभी सिंहावल आई। नकझर(नाक से झड़ती लौंग या आभूषण) जो एक स्‍त्री की वात्‍सल्‍य, व्‍यथा और संतोष की अनुभूति है। क्‍योंकि नाक का संबंध स्‍वाभिमान और आत्‍मविश्‍वास के साथ ही कर्तव्‍यपरायणता से भी है। असल जिंदगी में आभूषणों को पति की जरूरतों, बच्‍चों की शिक्षा, बच्‍ची के विवाह में झरकर उन्‍हें संतृप्‍त होते देखा है। आम धारणा है कि आभूषण स्‍त्री के सौंदर्य प्रदर्शन का पर्याय हैं लेकिन, वे तो उन आभूषणों की केवल प्रहरी होती हैं। जीवन में बमुश्किल पांच-छह बार ही उससे साक्षात्‍कार कर पाती हैं। आखिर वैवाहिक तैयारियों के बीच द्रुतगति से लौटने की मंशा से उनके घर पहुंचकर उनकी प्रतीक्षा में एक-एक क्षण युग के समान प्रतीत होने लगा। दो मिनट बाद कुद्ध होकर मै लौटने ही वाला था कि भाभीजी साड़ी लपेटते हुए आ पहुंचीं, उनके इस अनापेक्षित आगमन पर अपराधबोध हुआ। क्‍योंकि पापड़ सेकने वाली सोन नदी की तपती बालू और जेठ की भीषण गर्मी से राहत के लिए वे स्‍नान करने लगीं थीं वो इस स्थिति में भट्टी में अनाज भूजने की अभ्यस्त है लेकिन मेरे लौटने की आहट से वे उसी दशा में लौट आईं।

कुशलक्षेम की औपचारिकता के दौरान तत्‍परता से गुंदते आटे से माथे पर दमकते स्‍वेदबिंदु और सुलगते कण्‍डों से उठते धुऍं में उनके पुत्र द्वारा खुदकुशी का प्रयास, देवराणी की मृत्‍यु, देवर की विपन्‍नता की कठोर साध्‍य खबर से हवा में सवार जीवनशैली के क्षण और उम्र सहसा ठहर गये। चूल्‍हे के अंगारो पर नाचती रोटियों की कौतुकता बच्‍चों के नंगे बदन और उनकी गति में झलक रही थी। चूल्‍हे के पास कुम्‍हला रहे कंद के सिरे अब साग बनकर धमनियों में दौड़ने लगे थे। दो-दो रोटियों पर विवश बच्‍चों के संतोष के दौरान मोटी रोटियों से तृप्‍त मन ने जब मंजूषा को रिक्‍त देखा तो अंतरात्‍मा का सैलाब हिमखण्‍डों सा कहीं जम गया। लेकिन उनके हृदय में तपती रेत के अंदर सदानीरा के समान प्रवाहित शीतल अंबु का उपहार अभी भी मचल रहा था।

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