या खुदा क्यूँ बदल गया है
भूख का यूँ हर रुबाब ,
दर्प पलता है उसी से
भ्रूण बनता है कबाब
अस्मिता के वास्ते है रुह-ए-अजल की आतिशी
खाक होकर बन गये क्यूँ ताज-ए-शाही आशिकी
अब्र से गिरती सिफा से
शजर हैं जो तरबतर
उसके सैलाबों में बहकर,
मिट गये हम बेखबर
रक्त की जिस बूँद से
कायम है अब तक इंकलाब,
स्याह है जख्म-ए-जिगर अब कौम का वह हर मिजाज
है वही डायर जहाँ से
बाग-ए-जलियां आबाद है
देशभक्ति के प्रपंच पर
सिन्दूर बस इक ख्वाब है
टैक्स के उँचे दरीचों
से तमस है झांकता,
स्वर्णस्वप्नों से है लकदक,
शोषकों का वास्ता
ख्वाहिशों की इन्तहां पर
है दफन जो आरजू,
फजल-ए-फरियाद होगी
कब हमारी जूस्तजू
युद्ध के वहसत में खोती
ही रहेगी जिन्दगी,
या कभी दीदार-ए-आजम
से सजेगी बन्दगी।