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तुम न आते तो हमारे देश की औरतें सीख ही न पातीं कि सभ्यता क्या है। वो असभ्य थीं जो सिर्फ साड़ी पहनती थीं, तुमने ब्लाऊज़ पहना के सभ्य बना दिया उन्हें। वहाॅं, इंग्लैंड, की महिलाएं जब भारत आईं तो सभ्यता से परिपूर्ण थीं। मस्त लंबी बाहों वाली शर्टें और स्कर्ट्स घुटने के नीचे जहाॅं तक होती थीं, वहीं से मोजे नीचे तक ढक के रखते थे। अंग्रेज़ मर्द भी तो अपने गले तक को काॅलर के ऊपर से टाई लगा कर छुपा कर रखते थे। ये तो सभ्यता की अति नहीं हो गई?
कहीं ये सब सुन के गर्व तो नहीं करने लगे तुम खुद पे, कि हम आज भी तुम्हारे ग़ुलाम हैं? सवाल कठिन है न? क्योंकि जब हम तुम्हारे बनाए मानसिक दबाव की वजह से धोती-कुर्ता छोड़ के पैन्ट-ब्लेज़र को उच्चतर मानने के लिए मजबूर हो रहे थे, तभी तुम भी यहां के वस्त्रों से प्रेरणा लेकर हल्के और आरामदायक वस्त्र बुनने की फिराक में लग गए थे। फिर अंतर क्या रहा? है। अंतर यह कि हम पर रहा दबाव, पर तुम्हारे पास चुनने की थी आज़ादी। उस आज़ादी में तुमने फुल-स्लीव्ड शर्ट्स को तरह-तरह से काटा और बिन बांह की कमीज़ और शाॅर्ट्स से लेकर ब्रा-टाॅप्स तक को अपनी सोच में जगह दी। पर हम न कर पाए। हम पर तो तुम तहज़ीब थोप के गए थे। तो हां, गर्व कर लो थोड़ा सा खुद पे।
पर क्या ज़्यादातर लोग कभी इस सवाल का सोचे हैं कि जहां से इस कहानी कि शुरुआत हुई, दोनो के पहनावे में इतना अंतर कैसे था। एकदम विपरीत एक दूसरे के। जवाब, आगे लिखा है, पर एक बार रुक के सोच तो लो कि आखिर इतना अंतर क्यों है? कभी सोचा है कि रेगिस्तान में रहने वाले खुद को सर से पाॅंव तक ढक के क्यों रखते हैं? रेत की नदी में सिर्फ डूबने से ही नाक में रेत घुस जाने का खतरा नहीं होता, बल्कि वो तो उड़ के बाल, नाक, ऑंख, कान और मुॅंह में घुस जाती है। फिर वहाॅं पानी की भी किल्लत, नहाएं कैसे? इस ही लिए वहाॅं का पोशाक ऐसा चुना गया जिससे की रेत उनके ढीले-ढाले कपड़ों से फिसल जाए। ऐसी ही प्राकृतिक स्थितियाॅं वजह बनीं पश्चिमी देशों में ठंड से बचाने वाले कपड़ों की। पर जो लोग तुम अंग्रेजों में से हम पे हुकूमत करने आए, वो तो लूट-पाट की समझ से बेचारे घिरे हुए थे। क्या ही बुद्धि लगाते वो कि सही क्या ग़लत क्या। उन बत्दिमागों को तो लगा होगा कि वहाॅं जो पहने वो, यहाॅं भी वही पहनेंगे, वरना कहीं उनकी पहचान खो गई तो? फिर चाहे भले ही यहाॅं के मौसम में पश्चिम के मुकाबले लाख अंतर हो।
यह देश, भारत, समानता वाला देश था। यहाॅं औरत व आदमी, दोनो ही धोती पहनते थे। आज भी देश के कई हिस्सों में आपको महिलाएं व मर्द ऐसे मिलेंगे जो साड़ी को धोती ही बोलते हैं। बिन ब्लाउज़ की सारी अभद्रता नहीं थी, पर इस तरह के कई सोच बाहरी आक्रमणकारियों ने हम पे थोपा तो हम ऐसे अपना लिए इन्हें जैसे कि सच में यही सभ्यता हो। मैं ये नहीं कहता कि इस तरह से कपड़े न पहनो क्योंकि बाहरी तत्वों ने हम पे थोपा है, पर सच तो जानो ताकि तुम अनजाने में सभ्यता के नाम पे उनका विरोध न कर दो जो तुम से कहीं ज़्यादा वास्तव में सभ्य हैं। भले ही कहीं से भी आईं हों ये सभ्यताएं, कहीं से आने की वजह से कोई सभ्यता ग़लत या सही नहीं होती। ग़लत और सही निर्धारित करने का वही पैमाना है जो और सभी जगह लागु होता है, तर्क। आज के समय में सभी पहनावे के ढंग एक साथ, हर किसी के पसंद अनुसार, साथ-साथ इस समाज में खुशी-खुशी रह सकते हैं।
आपका कोई भी पहनावा किसी दूसरे को हानि नहीं पहुॅंचाता, पर किसी और को नापसंद हो आपकी पोशाक तो वो असहिष्णु इंसान आपको ज़रूर हानि पहुॅंचाएगा। इससे आप ग़लत नहीं हो जाते, न ही आपकी पोशाक। बस उस इंसान की सोच और दिमागी स्थिति में गड़बड़ी है। अपने अंदर उसने स्वीकार करने की प्रवृत्ति को कभी जन्म ही नहीं दिया। उसे ये नहीं पता कि उसे जो नापसंद है, किसी और को वह भरपूर पसंद है तथा उसे उस चीज़ को पसंद करने की पूरी आज़ादी भी है। कई बार कोई अपना नासमझ रिश्तेदार हमें प्रताड़ित करता है तो हम पीड़ितों को सलाह मिलती है, समझौता। ऐसी सलाह देने वाले सोचते हैं कि ये शांति का रास्ता है, पर होता है क्या? नहीं। बल्कि इसके उलट, इस रास्ते इन असमाजिक तत्वों को बढ़ावा मिलता है कि वो और भी लोगों की जीवन में अशांति की बौछार करते रहें। ऐसी सलाह देने वाले, खुद जब उन्हें किसी के पहनावे से परेशानी नहीं, अनजाने में अच्छों का बुरा और बुरों का अच्छा करते होते हैं।
आप आधुनिक महज़ कपड़ों से नहीं हो जाते, पर कपड़े आपकी सोच ज़रूर दर्शाते हैं। आपकी सोच आधुनिक होगी, तो निश्चित ही आप ये तो कम से कम समझेंगे कि किसी भी कपड़े में भेद-भाव का सीधा मतलब मूर्खता है। पेशेवर पोशाक (प्रोफेशनल अटायर) तथा अनौपचारिक पोशाक (कैज़ुअल अटायर) में सिर्फ इतना ही भेद है कि दोनों अलग-अलग माहौल में खुद को पेश करने का ज़रिया हैं। साथ ही किसी एक तरह के अनौपचारिक पहनावे और दूसरे किसी अनौपचारिक पहनावे में भी इतना ही अंतर है कि पहनने वाले की क्या पहनने की इच्छा है।
'पश्चिमी सभ्यता (वेस्टर्न कल्चर)' बोल के कोई आपकी बेटी को कमतर बना देगा, इस डर से अपने पसन्द की ड्रेस नहीं पहन सकती वो। क्यों बना दिया गया किसी सभ्यता को गाली? आखिर वो अपने पसन्द की पोशाक पहन के अपने पिता-चाचा के सामने क्यों नहीं खड़ी हो सकती? घर की दूसरी औरतों के मन में भी यही डर है कि उनकी लड़की को कोई बाहरी या मर्द किसी क्राॅप टाॅप, ब्रा टाॅप, शॉर्ट स्कर्ट में न देख ले। क्या होगी वजह इसकी? 'सुरक्षा' अगर वजह होती, तो अभद्रता क्यों हुई उनके संग जिन्होंने सूट-सलवार, साड़ी या बुर्के तक से खुद को ढक के रखा था? और क्या वजह है कि घर की बहू सर ढक के रहनी चाहिए ससुर के सामने? ससुर से ऐसा कौन सा वाला खतरा है? वजह इनमें से किसी को नहीं पता, बस थोपे जा रहे यह सोच के कि उनके खुद के हिसाब से ढके को ही ढका माना जाएगा अन्यथा नहीं। साड़ी-ब्लाउज़ में से दिखती कमर अंग प्रदर्शन नहीं मानी जा रही पर सर ढका होना चाहिए। आखिर इन अंगों के दिखने से होता क्या है?
वस्त्र धारण करने की कोई भी सभ्यता बनी तो उन जगहों की प्राकृतिक स्थितियाॅं देख कर बनी। पर बाद में आने वाली पीढ़ियों को वजह का पता न चला, वजहों पे बात करने वाला कोई था ही नहीं, तो उन्होंने उन वस्त्रों को आंख बन्द कर के अपनी सभ्यता मान ली। ये हर देश, हर प्रान्त में रहा। वक्त आगे बढ़ा तो विभिन्न सभ्यताओं का आमना-सामना हुआ। समक्ष खड़े को कुछ लोगों ने दुश्मन मान लिया, तो कुछ ने उनसे प्रेरणा ली। कुछ ने तो उनसे नफरत करने के बावजूद उनके तरीकों को अपना लिया। जिन्होंने प्रेरणा ले के अपनाया, उनमें एक स्वीकृति थी। आखिर क्यों न स्वीकार किया जाए अपने से अन्य को? पर जो खुद से जुड़े को ही उच्चतम माने, वह अपनी सभ्यता को दूसरे से बेहतर बताने में लग गए। लगे रहे वो अन्य को गिराने की फिराक में ऐसा कि उनका दिमाग अशांति फैलाने का आदि हो गया।
इस असहिष्णुता ने भारत और आस-पास के देशों में जो उत्पात मचाया, वो यह है कि शरीर के अंग दिखने को बेशर्मी मान लिया गया। सभ्यताओं में जहाॅं ताल-मेल बैठा, वहाॅं बेहतर समझ वालों ने अलग प्रांत के होने के बावजूद दूसरे सभ्यताओं के विभिन्न क्षेत्रों में रूचि दिखाई। दूसरी सभ्यताओं के वस्त्रों के प्रयोग ने इन्सानों को विश्वास दिलाया कि उनके वस्त्र धारण करने के तरीकों की कोई सीमा नहीं है। कल तक जिस एक तरीके के पोशाक में खुद को पूर्ण रूप से व्यक्त करने में असफल थे, आज वो कुछ और भी चुन सकते थे। जब भारत के कुछ लोग इस विकास में हिस्सा लिए, तभी कुछ ज़िद्दियों ने उन्हें 'बेशर्म' कह दिया। अट्टहास की बात यह है कि जिस आधार पर वो उन विकसितों को 'बेशर्म' कहते हैं, वह तो खुद ही उन पे अंग्रेज़ों के द्वारा थोपी हुई सभ्यता है।
पर ये 'बेशर्मी' शब्द का प्रयोग क्या इसलिए कि उन्होंने किसी और सभ्यता में घुल के अपनी सभ्यता से दग़ाबाज़ी की है? शायद हाॅं, या शायद नहीं, पर जो भी रही हो वजह, आज असभ्य इसलिए मानते हैं क्योंकि ये किसी पोशाक में त्वचा के दिखने को अंग प्रदर्शन मानते हैं। इन्हें लगता है कि अगर किसी महिला ने कोई अंग दिखा दिया तो वह अपने बदन की नुमाइश कर रही। आखिर क्या ग़लत है जब किसी ने खुद को इतना संवारा है कि वो आकर्षक लगे! आकर्षण पाने के लिए कुछ लोग सुंदर आभूषण पहनते हैं, कुछ लोग मनोरंजन करते हैं, कई हैं जो सेवा करते हैं, कुछ हैं बुराई के खिलाफ सीना तान के खड़े हो जाते हैं। दरअसल ये सभी पुरुषार्थ किसी को आकर्षित करने के लिए नहीं हैं, बल्कि ये पुरुषार्थियों की प्रवृत्तियाॅं हैं। बस बाकी सारे जो इन कलाओं को समझ पाते हैं, खुद ही उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। पर जिन लोगों ने पहनावे को चरित्र मान लिया, वे कहाॅं समझ पाएंगे कि कुछ जगहों पे हमारे हर तरह के कपड़े पहन नहीं पाने की वजह वही हैं। अगर वे किसी महानगर में हैं, तो हमें उनसे इतना ही खतरा है कि वे गुट बना कर बुराई करेंगे हमारी या फिर अगर वे रिश्तेदार हैं हमारे तो आपत्तिजनक टिप्पणी कर देंगे। वहीं वे किसी गाॅंव या कस्बे से हैं तो यही मानसिकता उनकी उन्हें उस हद तक बेचैन करती है कि वे हमारा और हमारे परिवार का जीना तक हराम कर दें।
एक कुतर्क ये भी अक्सर सामने आता है कि अगर ऐसा है कि लोगों की अपनी इच्छानुसार पहने पोशाकों का विरोध नहीं होना चाहिए, तो फिर तो लड़कियाॅं बिकिनी पहन के आराम से घूमें या लोग निर्वस्त्र बाहर टहलें, तो भी उन्हें रोका न जाए? जब हम अनौपचारिक पोशाक (कैज़ुअल अटायर) की बात करते हैं, हमें याद रखना है कि उसमें पेशेवर पोशाक (प्रोफेशनल अटायर) जैसे कि 'थ्री-पीस सूट' या कोई भी औपचारिक पोशाक (फाॅर्मल ड्रेस) पहनना जितना अनुचित है, सिर्फ उतना ही अनुचित बिकिनी पहनना भी है। ऐसा इस लिए क्योंकि दोनों ही अनौपचारिक पोशाक नहीं हैं। पर क्या आपने कभी हिम्मत की कि उस अपरीचित का विरोध कर दें जो औपचारिक पोशाक धारण किए वहाॅं कोने में अपने दोस्तों संघ ठहाके लगा-लगा के फुल्की-चाट खा रहा है? आपको वह ग़लत ही नहीं लगा होगा शायद, लगा भी होगा तो भी उसे तो इस बात का एहसास न होने दिया होगा आपने। क्या मन में उसे आज 'बेशर्म' शब्द से नवाज़ने की इच्छा हो रही? आज भी नहीं हो रही न? क्योंकि वह बेशर्म नहीं है। उसे अपनी इच्छानुसार पहनने का हक है, ठीक उस ही तरह जैसे बिकिनी पहनी महिला को अपनी पसंद पहनने का हक है। निर्वस्त्र तक किसी के होने का ये मतलब कैसे हो सकता है कि वह औरों को यौन-क्रिया के लिए आमंत्रित कर रहा? अगर आपको भी ऐसा लगता है तो यह आपका सिर्फ अनुमान मात्र है, जब तक कि उस इंसान ने खुद से कोई संकेत न दिया हो। संकेत, ठीक उस ही तरह जैसे कि वह किसी भी कपड़े को पहन के देता तो ही आप उसे यौन-क्रिया के लिए आमंत्रण मानते।
कठिन लगे अगर ये सब समझना तो एक ही सीधा सार पर्याप्त होगा जो आपको हर गलती करने से बचा लेगा। "किसी के हक का उलंघन नहीं करना"। आपकी साड़ी आपको पसंद है, पर उससे झलकती आपकी मोटी तोंद मुझे नहीं पसंद। आपने दिन-रात सालों तक मेहनत कर के खुद को पहलवान 'हल्क' में तब्दील किया, और अब चिपकी टाईट सी टी-शर्ट पहन के दोना हाॅंथ ऐसे उठा के चल रहे रस्ते पे जैसे कि दोनों बगलों में कोई खपच्ची लगा दी गई हो। मुझे नहीं पसंद। पर मुझे हक नहीं है कि आपको कुछ भी बोलूॅं। हो सकता है कि आप मेरे नज़दीकी कोई अपने होंगे, तो एक प्रेम भरी सलाह आपको मैं शायद दे सकूॅं। पर आप से नफरत नहीं करूंगा मैं, न ही कोसुंगा, न ही कोई भी आपत्तिजनक टिप्पणी कभी करूंगा, क्योंकि आपका शरीर आपकी सम्पत्ति है। उस सम्पत्ति पे मेरा क्या दुनिया में किसी भी और का, आपके अलावा, कोई हक नहीं। इस ही तरह इस आधुनिक युग को अपनाने वालों ने भी आपका कोई नुकसान नहीं किया, जैसे कि आपने अपने मन-पसंद पहनावे से उनका कोई नुकसान नहीं किया। उन पे हमला न कर के ही आप उनके हकों का उलंघन करने से बच पाएंगे।